नजीब का गायब होना और कुछ सुलगते सवाल
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय नई दिल्ली के छात्र नजीब का 23 दिन बाद भी कुछ पता नहीं चला. घर वाले परेशान दिल्ली की सड़कों पर मारे-मारे फिर रहे हैं, पर फ़िलहाल उन्हें कहीं से राहत भरी खबर नहीं मिल सकी है. और उन्हें मिलेगी तभी जब नजीब उन्हें सही-सलामत मिल जायेगा. पर, आज एनडीटीवी के माध्यम से मेरी मुलाकात नजीब की माँ, भाई और बहन से हुई. मैं केवल उन्हें सुनता रहा. उनका दर्द जायज है. जिसका बच्चा इतने दिनों तक गायब रहेगा, स्वाभाविक है वह कष्ट में ही रहेगा. लेकिन उनकी बातों से पुलिस की जो काहिलियत, जाहिलियत और काबिलियत सामने आई, वह निश्चित निंदा ही करने लायक है.
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| शर्मनाक! बेटे नजीब की तलाश में दिल्ली की सड़कों पर भटक रही माँ के साथ पुलिस का व्यहार |
इस परिवार के मुताबिक पुलिस ने उनकी तहरीर अपनी सुविधा से लिखवाई. वे नजीब की पिटाई करने वालों का नाम डालना चाहते थे. वे गलियारे में मिली नजीब की चप्पल का उल्लेख करना चाहते थे. पर, एसएचओ ने वही लिखवाया, जो उसे सूट करता था. कानून कहता है कि कोई भी पीड़ित थाने आए तो वह जो कहे, जिस भाषा में कहे, वाक्य विन्यास उसका भले ही ख़राब हो, पर पुलिस उसे हूबहू दर्ज करे. फिर कानून पुलिस को ही यह अधिकार भी देता है कि अगर सूचना झूठी हो तो जाँच-पड़ताल के बाद पूरा केस ख़ारिज कर दे. पर, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री की नाक के नीचे बैठी दिल्ली पुलिस ने की अपनी मनमानी. अपने मन से रिपोर्ट लिखवाने का फायदा पुलिस को यह हुआ कि नजीब का केस दस्तावेजी हिसाब से कतई गंभीर अपराध की श्रेणी में नहीं आता. इस केस में कोई अफसर भी पूछताछ आमतौर पर नहीं करता. और पुलिस को यह भी पता है कि ये मीडिया वाले या नजीब के साथी छात्र भला कितने दिन शोर-शराबा करेंगे. पुलिस ठीक से यह बात जानती है. पर, शायद वह यह नहीं जानती कि एक माँ अपने बेटे के लिए किस हद तक जा सकती है?
पिटाई के बाद अस्पताल, वहां इलाज का न मिलना, फिर अचानक नजीब का गायब हो जाना सामान्य घटना तो नहीं है. इसे हर वह आदमी समझ सकता है जिसके साथ कभी ऐसा हादसा हुआ हो या उसमें तनिक भी संवेदनशीलता हो. इंसानियत बची हो. परिवार वालों की मानें तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी इसमें लापरवाही बरती. हर स्टार पर. जब नजीब अभी कुछ दिन पहले ही हास्टल में आया था तो तय है कि कैम्पस में न तो उसके बहुतेरे दोस्त रहे होंगे और न ही बहुत दुश्मन. परिसर में होने वाली किसी भी घटना के लिए निश्चित ही वार्डन, कुलपति आदि जिम्मेदार होते हैं, फिर वे कैसे इस गंभी वारदात से मुंह चुरा सकते हैं और क्यों? चिंता का विषय है पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन की रहस्यमय चुप्पी. किसी प्रभावशाली व्यक्ति का कुत्ता, बिल्ली, भैंस, गाय चोरी हो जाए तो बवाल मच जाता है और यहाँ एक होनहार छात्र के गायब होने की रिपोर्ट भी पुलिस ठीक से नहीं लिखती. अगर उसने ऐसा किया होता तो कम से कम इस केस की विवेचना शुरू होती. गायब होने से ठीक पहले उसकी पिटाई करने वालों से पूछताछ होती तो भी शायद कोई सुराग मिलता. तकनीकी तौर पर दक्ष दिल्ली पुलिस का ज्ञान का स्तर इस केस में कहाँ गुम हो गया, समझ से परे है और सवाल खड़े करता है. जब उस नौजवान की चप्पल यूं ही लावारिस मिलती है तो तय हो जाता है कि उसके साथ कुछ न कुछ हादसा हुआ है. पिटाई के बाद अस्पताल आदमी तभी जाता है जब उसे चोट लगी होती है, यह बात तब और अहम् हो जाती है कि नजीब को एम्बुलेंस से अस्पताल ले जाया गया और डॉक्टर ने इसलिए इलाज नहीं किया कि उनकी नजर में वह पुलिस केस था. जबकि कानून कहता है कि अस्पताल में आने वाले किसी भी व्यक्ति का इलाज रोका नहीं जा सकता. पहले इलाज देने के बाद डॉक्टर के पास यह अधिकार सुरक्षित है कि वह अपने स्तर पर पुलिस को सूचित कर दें, पर इस मामले में सब कुछ उलट हुआ. तीन सप्ताह बीतने के बाद न तो घर वालों को पता है कि नजीब कहाँ है और न ही पुलिस वालों को. उसके गायब होने की असल कहानी भी शायद इसलिए सामने नहीं आ पा रही क्योंकि पुलिस ने सही धाराओं में केस दर्ज नहीं किया. बहरहाल, नजीब की गुमशुदगी पूरी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करती है. इस पूरे मसले को देखकर तो यही लगता है कि नजीब और उसके परिवार की मदद अब केवल ऊपर वाला ही कर सकता है, क्योंकि नीचे वालों ने अपने हाथ खींच लिए हैं.

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