गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 56 : बजबज का दंगा

गणेश शंकर विद्यार्थी जी 
पाठक गुरुनानक (कोमागेटा मारू) जहाज के अभागे यात्रियों को भूले न होंगे. विदेशों में उन्हें विपत्तियों का सामना करना पड़ा. स्वदेश आ जाने पर भी मुसीबत ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. बजबज का भयंकर दंगा अभी हाल की बात है. उसकी तहकीकात के लिए के एक कमीशन बैठा था, जिनमें पांच मेंबर थे. जिनमें से दो, बर्दवान के महाराजा और सरदार दलजीत सिंह, भारतीय थे. अब कमीशन की खोज का फल प्रकाशित हुआ है. रिपोर्ट में उससे अधिक कोई खास बात नहीं है जो दंगे के पीछे बंगाल की सरकार ने प्रकट की थी. बंगाल सरकार ने भी सारा दोष यात्रियों का बतलाया था. इस रिपोर्ट में भी लगभग वही बात कही गई और सरकारी कर्मचारियों के काम को उचित उचित बतलाया गया और उनकी खूब तारीफ़ की गई है.
गुरुदत्त सिंह इस अभागिनी यात्रा का प्रधान संचालक था. दंगे के बाद से वह लापता है. रिपोर्ट में उसके विषय में बहुत कुछ कहा गया है. कमेटी का मत है कि हांगकांग में गुरुदत्त सिंह ने बहुत से भोले सिखों को कनाडा के सब्जबाग दिखाकर अपना साथी बनाया, उन्हें विश्वास दिलाया कि कनाडा प्रवेश में हमें किसी प्रकार की रोक-टोक का सामना नहीं करना पड़ेगा, उनमें से कई आदमियों को हांगकांग से नौकरी छुड़वा कर  अपने साथ ले लिया. उन्हें इस बात का भी विश्वास दिलाया कि हांगकांग की सरकार ने हमें कनाडा प्रवेश की आज्ञा दे दी है, इत्यादि-इत्यादि. इन चालों के लिए कमेटी ने गुरुदत सिंह को पक्के धोखेबाज के नाम से पुकारा है. गुरुदत्त सिंह ने अपने मार्ग का जो अवलंबन किया या जिस मार्ग का उसे अवलंबन करना पड़ा, उसे हम भले ही पसंद न करें, या उसे बुरा तक समझें, परन्तु हमारे सामने कोई भी ऐसी बात नहीं है, जिसके आधार पर हम उसे बदनियत कह सकें. जनवरी 1914 में वह हांगकांग पहुंचा. उसकी इस बात को कमेटी की रिपोर्ट में स्थान मिला और कोई कारण नहीं कि हम उस पर संदेह करें कि-"मैं उन लोगों का कष्ट नहीं देख सकता था, जो हांगकांग के गुरुद्वारे में वैंकोवर (कनाडा) जाने के लिए पड़े हुए थे. उन पाठकों को याद होगा, जो विदेशों में पड़े हुए अपने भाइयों की मुसीबतों की कष्ट कथा कभी-कभी सुन लिया करते हैं कि कनाडा में लगभग पांच-छह हजार सिख पुरुष हैं, स्त्रियाँ नहीं, उनकी जो स्त्रियाँ या बच्चे कनाडा के तट पर पहुंचे भी, वे धक्के देकर वापस कर दिए गए, और इस प्रकार धक्के खा चुकने वाले सिखों की एक संख्या बहुधा हांगकांग में पड़ी रहा करती थी. गुरुदत्त सिंह ने इन्हीं आफत के मारों को देखा होगा. वह वीर जाति का था और उसके ह्रदय में जाति और देश के अपमान, अभिमान और दुर्दशा का भाव काम कर रहा था, इसीलिए इस यात्रा को आरम्भ करने के पहले उसने प्रकाशित किया, मैंने यात्रियों को वचन दिया है कि यदि कोई जहाज कंपनी हमें कनाडा तक का टिकट न देगी, तो भी मैं सब प्रबंध कर लूँगा और सदा के लिए वैंकोवर की बड़ी अदालत से इस सवाल का फैसला कराके ही छोडूंगा. यदि कनाडा की सरकार ने हमें उतरने से रोका, तो मैं अपनी गवर्नमेंट से पूछूंगा और उस समय तक लौटने का नाम नहीं लूँगा, जब तक बिल्कुल फैसला न हो जाएगा. और अंत में जो कुछ होगा, वह मैं अपने देशवासियों के सामने रखूंगा."
गुरुदत्त सिंह का यह प्रोग्राम था और इसमें हम नहीं समझते कि कहीं से भी बदनियती और धोखेबाजी टपकती दिख पड़ती है. निःसंदेह लोग उसके साथ हुए, पर उनमें से अधिकांश यह नहीं जानते थे कि बात यहाँ तक बढ़ जाएगी, पर यह जानते थे कि हम सहज ही कनाडा में न घुस सकेंगे. हांगकांग की सरकार ने पहले तो कोमागेटा मारू जहाज को जाने की आज्ञा नहीं दी. जब बहुत कहा सुना गया तो आज्ञा मिली. पर उसका मतलब यह नहीं था कि उससे यात्री कनाडा में उतर सकेंगे. यह बात गुरुदत्त सिंह से कह दी गई थी, पर यात्रियों से नहीं कही गई. यदि कमेटी समझती है कि गुरुदत्त सिंह ने अपने साथियों को बरगलाया, उन्हें धोखा देकर कनाडा लिवा ले गया, और कमेटी को इन बातों के प्रमाण मिले हैं तो क्या गुरुदत्त सिंह को दोषी बतलाते हुए कमेटी हांगकांग की सरकार पर इस गफलत का दोष नहीं रख सकती कि जालिया गुरुदत्त सिंह के जाल से बचाने के लिए उसने अन्य यात्रियों को पूरी स्थिति भली-भांति क्यों न समझा दी ? यदि वह ऐसा करती, तो एक चालाक आदमी  अपनी चालाकी से सैकड़ों आदमियों को तंग न कर सकता.
कमेटी के सामने दूसरा प्रश्न यह था, कि क्या इस दंगे में जर्मनी की भी कोई चाल थी? बहुत सी शंकाएं की गई, पर कोई निश्चयात्मक नतीजा नहीं निकला. अंत तक कमेटी अँधेरे में ही भटकती रही. अगर और मगर ने अंत में उससे कहलाया है कि कुछ संदेहजनक बातें हैं और यह बिल्कुल संभव है कि इस मामले में जर्मनी का कुछ हाथ हो, पर हमें इस बात के प्रमाण न मिल सके. और ये संदेहजनक बातें हैं ये कि (1) जापानी कंपनी से खरीदे जाने के पहले कोमागेटा मारू जर्मन जहाज था, (2) गुरुदत्त सिंह ने उसे एक एजेंट से किराये पर लिया था. (3) इस यात्रा की खबर लन्दन से पहले जर्मनी की राजधानी बर्लिन के पत्रों में प्रकाशित हुई थी. और (4) कनाडा की गवर्नमेंट को इस बात के प्रमाण मिल गए हैं कि कोमागेटा मारू का आन्दोलन जर्मनी की कारस्तानी का फल था. इतने बड़े इल्जाम के लिए इनसे बढ़कर लचर सबूत शायद ही और कोई हो सके. जहाज के दो पीढ़ी पहले जर्मन माल होने के कारण ही इस काम में जर्मनी की चालों का संदेह करना भेड़ के बच्चे को उसके बाप के पानी गन्दा करने के दोष में मारने का विचार करना है. आज से कुछ ही मास पहले जर्मन एजेंटों से न मालूम कितने आदमियों ने किस-किस प्रकार के सौदे किए होंगे. यदि इन आदमियों के काम पर इस प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता, तो उस समय जबकि लड़ाई का कहीं शान गुमान भी नहीं था, किये जाने वाले इस सौदे के भीतर बड़ी चालों का संदेह करना खुद को धोखे में डालना है.बर्लिन में पहले खबर पहुँच जाना भी कोई बात नहीं है, और कनाडा सरकार की बात का मूल्य उस समय तक एक कौड़ी के बराबर भी नहीं है जब तक वह सप्रमाण आगे नहीं बढ़ती. ऐसी सड़ी-गली बातों पर कहीं कहीं जोर दिया जाना बुरा नहीं समझा जाता, परन्तु जिम्मेदार आदमियों का इस रद्दी गूदड़ पर इस प्रकार टूटना किसी प्रकार शोभा नहीं देता.
नोट-प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का यह सम्पादकीय लेख प्रताप में 1 फरवरी 1915 को प्रकशित हुआ था.  

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