गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 57 : अमेरिका और महायुद्ध

श्री गणेश शंकर विद्यार्थी 
रण-चण्डिका का काम साधारण गति से हो रहा है. बेल्जियम की भूमि उसी प्रकार रक्त से रंगी जा रही है. खाइयों के दांव हैं. कभी कुछ खाइयों पर जर्मनों का कब्ज़ा हो जाता है और कभी कुछ पर मित्र राष्ट्रों की सेना का. आस्ट्रिया की कारपैथियन पर्वतमाला में रूस की अच्छी जीत हुई, पर उधर, और रोमानिया की सरहद पर जर्मन और आस्ट्रियन सेना लड़ाई के लिए एकत्र हो रही है.रोमानिया को इंग्लैण्ड से 75 लाख रुपये का कर्ज मिला है और उसके तीन लाख जवान तैयार खड़े हैं. आशंका है कि शीघ्र ही युद्ध के तराजू के पलड़े में रोमानिया भी अपनी तलवार डाल देगा.
उधर तुर्कों की पूरी दुर्गति हो चुकी है. रूसियों ने उन्हें खूब छकाया है और फारस के तवरीज नगर पर, जो तुर्कों ने ले लिया था, अपना कब्ज़ा कर लिया है. और जहाँ-तहां अंग्रेजी सेना भी उनकी खबर ले रही है. परन्तु, इस पर भी खबर आ रही है कि तुर्क मिस्र पर हमला करने की पूरी तैयारी कर रहे हैं. उनकी इच्छा मिस्र पर कब्ज़ा करने तथा उसके नए सुल्तान को अपने सुल्तान के इच्छानुसार कोर्टमार्शल द्वारा दण्ड देने की है. मिस्र में अंग्रेजी फ़ौज का काफी प्रबंध है. इसलिए यदु तुर्कों ने अरब की खाक और बालू को छानते हुए मिस्र पर आक्रमण करने का सहस किया, तो भी उनका अच्छा स्वागत होगा. और इस बात का तो कोई डर ही नहीं है कि तुर्कों के हमले से सुइज नहर के आने-जाने का रास्ता रुक जाएगा और अफ्रीका की परिक्रमा करके भारत में आना संभव होगा. ये महायुद्ध की ऊपरी उलझने हैं. भीतरी उलझनों का अभी बहुत कम लोगों को पता होगा. पर, इन ऊपरी उलझनों में भी एक न एक शाख फूटती ही आती है, और नई शाख फूटी है अमेरिका की.
आज से कुछ दिन पहले तक यहाँ यही समझा जाता था, यद्यपि ऐसा समझना भूल थी कि अमेरिका की पूरी सहानुभूति मित्र-राष्ट्रों के साथ है. परन्तु एक प्रातःकाल यही संसार जागा, आँखे मलते-मलते उसे पता लगा कि अमेरिका के विषय में सभी बातें वैसी ही नहीं हैं, जैसी समझ ली गई हैं. युद्ध के अवसर पर जो वस्तुएं युद्ध की सामग्री या युद्ध का पोषण करने वाली घोषित कर दी जाती हैं, उन्हें एक लड़ने वाला राष्ट्र दूसरे लड़ने वाले राष्ट्र की सीमा में नहीं पहुँचने देता. इसी नियम के आधार पर इंग्लैण्ड जर्मनी में कई प्रकार के माल नहीं जाने देता. ऐसे अवसर पर बहुत से जहाज धोखा देते हैं, इसलिए जिन जहाजों पर संदेह होता है, उन्हें अंग्रेज जहाज पकड़ ले जाते हैं और फिर उनकी तलाशी लेते हैं. कई अमेरिकन जहाजों के साथ अंग्रेजी जहाजों ने यही व्यवहार किया. इस पर अमेरिका चिढ़ गया. उसने इंग्लैण्ड को एक विरोध पत्र भेजा. उसने पूछा है कि तटस्थ देशों में माल न जाने देने का इंग्लैण्ड का क्या हक़ है और वर्जित वस्तुएं भी उन देशों में क्यों न जाएँ, जो उस वास्तु को अपने यहाँ से बाहर नहीं भेजते. जैसे इटली तांबा अपने यहाँ से बाहर नहीं जाने देता तो फिर इटली में तांबा जाना क्यों रोका जाए? अंग्रेजी बंदरों में अमेरिकन जहाजों को पकड़कर पहुंचाए जाने पर भी उसने असंतोष प्रकट किया है. इंग्लैण्ड के पर-राष्ट्र सचिव  सर एडवर्ड ने अमेरिका के इस विरोध का उत्तर दृढ़ता से दिया है. उन्होंने जहाजों के रोकने में  न्याय को अपने पक्ष में बताया है और अंकों द्वारा सिद्ध किया है कि जो चीजें तटस्थ देशों में जाती हैं, वे यथार्थ में उनके लिए नहीं जाती. वे जर्मनी में पहुँच जाती हैं. जैसे 1913 के सितम्बर और अक्टूबर में अमेरिका से इटली में 34 लाख सेर, हालैंड में 6.5 लाख सेर और स्वीडन में 14 लाख सेर तांबा गया था पर 1914 में इन्हीं दो महीनों में 12.5 करोड़ सेर, हालैंड में छह करोड़ सेर, नार्वे में 42 लाख सेर और स्वीडन में 33.5 लाख सेर तांबा गया. इसमें संदेह नहीं कि यह सब तांबा इन देशों द्वारा जर्मनी पहुंचा.
सर एडवर्ड ने कहा कि पकडे हुए अमेरिकन जहाज के निर्दोष पाए जाने पर जो कुछ उसकी हानि होगी, वह पूरी कर दी जाएगी. पर, इस उत्तर से अमेरिका संतुष्ट नहीं मालूम पड़ता और उसका असंतुष्ट होना बिल्कुल स्वाभाविक है. ऐसे अवसर बार-बार कहाँ मिला करते हैं, जब इंग्लैण्ड, फ़्रांस, जर्मनी रूस आदि रक्त की फाग में मस्त हैं, तब अमेरिका जापान आदि ऐसे ही राष्ट्रों का तो सोना है. ये लड़ें और वे उनका व्यापार हथियावें. फिर भला अमेरिका को अपने पथ की यह रूकावट कैसे अच्छी लग सकती है ?
दूसरी चालें भी आरम्भ हो गई हैं. अमेरिका के समुद्री किनारे पर बहुत से जर्मन तिजारती जहाज पड़े हुए हैं. वे समुद्र में निकालें तो अंग्रेजी जहाजों के शिकार हो जाएँ, इसलिए अमेरिका के तट पर पड़े दिन काट रहे हैं. दिन तो कट रहे हैं,पर घाटे से, अपने ही पास का तो खा रहे हैं. उधर, अमेरिका के पास जहाजों की कमी है. यह कमी अपने काम के लिए नहीं है. दूसरों के व्यापार पर अपना अधिकार ज़माने के लिए यह कमी है. इसलिए अमेरिका के व्यापारी इन जहाजों को खरीदने के लिए तैयार हैं. जर्मन जहाज वाले बेंचने को उधार खाए बैठे हैं. वे हलके हो जाएंगे और खासी रकम मिलेगी, जिससे उनका और उनके देश का काम चलेगा. इस सौदे को कानूनन उचित ठहराने के लिए अमेरिका की राष्ट्र सभा में एक कानून पेश है. कानून पास हुआ और जर्मन जहाजों पर अमेरिका की झंडी फहराने लगी.
इंग्लैण्ड इस सौदे के औचित्य को मानने को तैयार नहीं है. उसे संदेह है कि केवल झंडे का ही परिवर्तन होता है बाकी बातें वैसी ही रहेंगी. अमेरिकन राष्ट्र-सभा के कुछ सदस्यों ने इस कानून का विरोध भी किया है. अंतिम समाचार इस विषय का यह है कि एक अमेरिकन व्यापारी ने, जिसका बाप जर्मन था, एक जर्मन जहाज डेसिया खरीद लिया है. और वह जहाज रुई भरकर हालैंड के लिए रवाना हो चूका है. देखें, इंग्लैण्ड उसके साथ क्या व्यवहार करता है? पर, अमेरिका की इस गति से यह न समझ बैठना चाहिए कि वह जर्मनी के पक्ष में है. इसमें संदेह नहीं कि अमेरिका में बसे हुए जर्मन-अमेरिकनों की एक बड़ी संख्या है और वे अपने पहले देश और कैसर की विजय के लिए बहुत कुछ हाथ, पैर, जिह्वा और लेखनी काम में ला रहे हैं. इसीलिए उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रीय गीत की उपेक्षा तक की. उन्होंने साफ किया कि इंग्लैण्ड हमारे जहाजों के सौदे के विषय में जो चाहे सो करे, यदि ऐसा ही सौदा अंग्रेजी जहाजों का होगा तो हम उस अमेरिकन झंडे के प्रभुत्व को नहीं मानेंगे और साथ ही उसे यह भी शिकायत है कि अमेरिका से कनाडा द्वारा बहुत सा लड़ाई का सामान इंग्लैण्ड पहुँच रहा है.
जहाँ तक वर्तमान अंतर्जातीय नियमों का सम्बन्ध है, वहां तक इसमें संदेह नहीं, कि अमेरिका गलती कर रहा है और इंग्लैण्ड ठीक रास्ते पर है. इन नियमों से इंग्लैण्ड को हक़ है कि वह अपने शत्रु का माल किसी प्रकार भी न पहुँचने दे. 1864 में अमेरिका में घरेलू लड़ाई हुई थी. उस समय इसी नियम के कारण लंकाशायर का सारा माल अमेरिका जाना रुक गया था. उस समय इंग्लैण्ड ने हानि उठाई थी और इस समय उसी तरह अमेरिका को उठानी चाहिए. पर, इस नियम की नींव ही ठीक नहीं.
यदि जनता-शक्ति, संसार के उपकार, रक्तपात की भयंकरता और मनुष्य के उच्च भावों के नाम पर संसार से पशुतामयी नर-रक्त-प्रवाहिनी युद्ध-लीला की अंत्येष्टि-क्रिया कर देने की इच्छा उनमें है, जो शांति की माला जपा करते हैं, और जिनकी अभिलाषा का फल वह शांति मंदिर है, जो हेग में स्थापित है, तो इस विषय में इस नियम का निर्धारित किया जाना कि प्रत्येक राष्ट्र का यह कर्तव्य है कि वह लड़ने वाले राष्ट्रों को किसी भी युद्ध का कोई भी सामान न पहुँचावे, अधिक हितकर, अधिक उपयुक्त और अधिक उन्नतिशील होगा.
नोट-प्रख्यात पत्रकार श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 8 फरवरी 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ था.

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