गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 59 : बड़े-बड़ों की 'बड़ी' बात

गणेश शंकर विद्यार्थी जी 
वह बड़ी संस्था, जो कंग्रेस के नाम से प्रसिद्ध है और जो राष्ट्रीयता के नाम पर देश के व्यक्तियों को गले से गले मिलने का संदेश सुनाने का दावा करती है, आज अपनी कठपुतली सदृश हैसियत से देश में फूट के जबरदस्त बीज बोने का कार्य कर रही है. मद्रास में कांग्रेस होने वाली थी. कुछ आत्माओं में एक्य के लिए एकदम ज्वार भाटा आया. इन आत्माओं में मिसेज बीसेंट का खास नंबर था. राजनैतिक दलों के लिए वे सत्तू बांधकर जुट पड़ीं. एक ओर वो मिस्टर गोखले और उनके दल वालों से मिलीं और दूसरी ओर उन्होंने मिस्टर तिलक के घर की यात्रा की. लक्षण दीख पड़े कि बस यह सारा परिश्रम ठिकाने लगा. पर, भीतर ही भीतर ज्वालामुखी पर्वत सुलगता रहा.
अंत में ठीक कांग्रेस के समय सब हवाई महल उड़ गए. झूले की पेंग एक ओर बढ़कर दूसरी ओर बढ़ती है. यहाँ भी आत्माएं इसी प्रकार फूलने लगीं. मिसेज बीसेंट का नंबर फिर आगे रहा. देवी जी बोलीं, "सारा करा कराया खेल मिस्टर तिलक के कारण बिगड़ गया, न वे कांग्रेस के मंत्री मिस्टर सुब्बाराव से यह कहते, यद्यपि नरम दल और राष्ट्रीय दल का उद्देश्य एक ही है, पर उनके काम के ढंग भिन्न हैं, और कांग्रेस में हम इस बात का प्रयत्न करेंगे कि लोक-मत निर्माण कराके हम अपने ढंग को स्वीकार करा लें और कांग्रेस की बहुसम्मति अपने पक्ष में कर लें. और न मिस्टर गोखले और कांग्रेस के अन्य संचालकों के हृदयों में भविष्यत् के झगड़े की आशंका उत्पन्न होती. मि. सुब्बाराव की मि. तिलक से जो बातें हुईं थीं, उनके अनुसार मि. तिलक की स्थिति यह है-गरम दल वाले साधारणतः सरकार का नियमबद्ध विरोध करेंगे और नरम दल वाले साधारणतः सरकार का साथ देंगे...गरम दल वाले कांग्रेस में बहुसम्मति अपनी ओर करने का प्रयत्न करेंगे. वे बहुसम्मति की आज्ञा शिरोधार्य समझेंगे.
जब बहु सम्मति से उनके खिलाफ कोई बात होगी तो वे उसके सामने सिर झुकाएंगे. मिसेज बीसेंट के पत्र का उत्तर मराठी में निकला. उसमें मि. सुब्बाराव द्वारा लिखी गई, बात का पूरा उल्लेख था, और कहा गया कि यदि दोनों दलों में मेल नहीं हुआ तो इसमें मि. तिलक का दोष नहीं है, परन्तु दोष है उस पत्र के लेखक का, जिसने कांग्रेस के दिग्गजों के पास उसे भेजकर मि. तिलक को सरकार का बायकाट करने तथा आयरिश उद्दण्ड उपायों द्वारा सरकार को तंग करने वाला ठहराया. इसके पश्चात् मि. गोखले का पत्र प्रकाशित हुआ. 'मराठा' का छीटा जिस पत्र की ओर था, मि. गोखले के पत्र से पता लगा कि वह उन्हीं का लिखा हुआ था. मि. गोखले का कहना है कि मैंने मि. सुब्बाराव का लिखा हुआ शर्त-पत्र एक सप्ताह के बाद देखा, उसके पहले मि. सुब्बाराव ने मुझसे कहा था कि मि. तिलक से मेल होना कठिन है, क्योंकि उनके मत से कौंसिल म्युनिस्पलटी आदि छोटे-छोटे सुधारों के लिए हाथ-पैर मरना बिल्कुल फिजूल है. वे तो बस ब्रिटिश राज्य के भीतर केवल स्वराज्य चाहते हैं. उनका कथन है कि नियम-बद्ध रुकावटों को सरकार के रास्ते में डालकर आयरिश लोगों ने लगभग 30 वर्ष में होम रूल प्राप्त कर लिया, इसी प्रकार हमें करना चाहिए.
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मि. गोखले का कहना है कि मि. तिलक की कही हुई इन बातों से मैं मेल के विरुद्ध हो गया.इसी प्रकार बाबू भूपेंद्र नाथ बसु को वह पत्र लिखा गया जिसकी ओर 'मराठा' का इशारा था. उसे देखकर मिसेज बीसेंट ने मि. तिलक से तार द्वारा पूछा कि क्या आप सरकार का बायकाट चाहते हैं? उत्तर मिला, "मैंने ऐसा कभी नहीं चाहा" इस कभी शब्द पर मि. गोखले ने बड़ा जोर दिया है. उन्होंने बतलाया है कि मि. तिलक ने 1906-07 की स्पीचों में लोगों से कहा था, ...यदि तुम लड़ने की शक्ति नहीं रखते, तो क्या तुम इस विदेशी सरकार का वहिष्कार करने की भी शक्ति नहीं रखते? हम उसे लगान इकट्ठी न करने दें और शांति कायम न रखने दें. हम उसे भारतीय सरहद या विदेशों में भारतीय धन और भारतीय रक्त के खर्च पर न लड़ने दें. हम उसकी अदालतें न चलने दें. हमारी अपनी अदालतें हों. जब समय आवे तो हम टैक्स न दें. क्या तुम मिलकर यह कर सकते हो? यदि हाँ, तो कल ही से तुम स्वतंत्र हो" इसी ढंग की मि. तिलक   की एक स्पीच के कुछ खंड और उधृत किये गए हैं. मि. गोखले के इस पत्र का मि. तिलक ने उत्तर दिया है. उन्होंने मि. सुब्बाराव के लिखे हुए शर्त-पत्र ही को अपनी बैटन का सच्चा विवरण माना है. लिखित बैटन के सामने कही गई बातों का क्या मूल्य? इसके सिवा उन्होंने यह रहस्य खोला है कि मि. सुब्बाराव बम्बई के कांग्रेस नेताओं से मिलकर आये थे, जो मेल के लिए बिल्कुल राजी न थे, और जो समझते थे कि मि. तिलक और उनके साथी अगर कांग्रेस में आ गए तो कांग्रेस बड़े खतरे में पड़ जाएगी. मि. तिलक का कहना है कि यद्यपि मेरा उत्तर पाने पर मिसेज बीसेंट और बसु बाबू ने मेरे उपर से सरकार के बायकाट का दोष उठा लिया जो मि. गोखले के 'गुप्त' पत्र के कारण उन्होंने मुझ पर लगाया था, परन्तु मि. गोखले अभी तक मुझ पर मि. सुब्बाराव की बातों तथा मेरी पिछली स्पीच के आधार पर यही दोषारोपण करते जाते हैं, जो सरासर बेजा है. साथ ही मि. तिलक का कहना है कि उसी समय सब कुछ कहा जा सकता है जब मि. गोखले अपना 'गुप्त' पत्र प्रकाशित करें.
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यह है सारे झगड़े का सार. मि. गोखले का गुप्त पत्र अभी तक गुप्त है. हम नहीं जानते कि वह प्रकट भी होगा या नहीं? इस झगड़े में कुछ बातें मजेदार हैं. मि. तिलक के मत से कांग्रेस के काम का ढंग ठीक नहीं है, इसीलिए इसमें आकर वे अपने ढंग के साथियों की संख्या बढ़ाने की कोशिश करेंगे, और साथ ही वे कहते हैं कि हम सदा, चाहे बात उल्टी भी क्यों न पड़े, बहुसम्मति के आगे सिर झुकावेंगे. तिलक कानून-शिकन नहीं और आगे ऐसा न हो जाने के लिए वे कानून के अनुसार चलने की घोषणा भी कर रहे हैं. पर, कुछ भी करो, यह दूसरी ओर वाले एक सुनने को तैयार नहीं? यह 'ढंग' और 'बहुसम्मति' अपनी ओर करने की बात तिलक के मुंह से कैसे निकल गई? तिलक ऐसा बुरा काम करें-बुरा ! और इसीलिए अब लोगों को अपने विश्वास के अनुसार संसार के भला करने खाम ख्याल अपने दिमाग से निकाल डालना चाहिए और कांग्रेस के अधीश्वर चुप बैठे रहें ? भावों की स्वाधीनता का यह फ़तवा उन महापुरुषों की ओर से मिलता है, जो सौभाग्य से, या दुर्भाग्य से उस शिक्षा और उन प्रथाओं के कारण आगे बढ़े हैं, जिसमें भावों की स्वाधीनता कूट-कूट कर भरी मानी जाती है.
अधिकारीयों की स्वेच्छाचारिता का सदा रोना रोने वाले ये सज्जन इस समय अपनी बातों से प्रेस एक्ट और मीटिंग एक्ट की गहरी 'स्वाधीनता' को भी मात कर रहे हैं. गरम सूर्य के ताप से उदारता का सारा रक्त सुखा डालने वाले एंग्लो-इंडियन अधिकारी की तरह उनके दिमाग में यह बात आ ही नहीं सकती कि उनके 'सुचारू' ढंग में किसी प्रकार की त्रुटि हो सकती है. गाड़ी जैसी चल रही है, वैसी ही चलती रहे, क्योंकि उन्होंने परिवर्तनशील समय और समाज की गाड़ी के पहियों को अपनी इच्छा अनुसार ऐसा बांध दिया है कि वे उनकी बड़ी ऊँगली के इशारे बिना टस से मस नहीं हो सकते. वर्ष के तीन दिन में तीन घंटे का तमाशा एक बड़ा ही अच्छा दृश्य है और संसार को इस भली समाधि के भंग करने की धृष्टता न करनी चाहिए.
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देश का इससे बढ़कर दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि उसके 'बड़े' आदमी देश के लिए भी अपने व्यक्तिगत झगड़ों से ऊपर न उठ सकें. झगड़े का सार यही है, मि. तिलक कांग्रेस में न आवें. एक आदमी के अलग रखने के लिए भावों की स्वाधीनता और देश की उन्नति का बलिदान सा हो रहा है.इसीलिए गड़े मुर्दे तक के उखाड़ने की आवश्यकता पड़ी. मि. तिलक ने जिस ज़माने में जो बातें कहीं थीं, वह जमाना गया, और साथ ही अब मि. तिलक भी नहीं हैं. पुराने झगड़ों का लाना भावी मेल तक हरताल फेरना है. मि. तिलक ने इतनी सख्त बातें कहीं थीं, तो बहुत से वर्तमान माडरेट में से भी कितने ही ऐसे बातें कह चुके हैं. परन्तु, यह उधेड़बुन उस मार्ग की कंजी नहीं है, जिधर कांग्रेस को जाना चाहिए.
नोट-प्रख्यात पत्रकार श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख प्रताप में 22 फरवरी 1915 को प्रकाशित हुआ था.

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