गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 61: बहुत सी बातों की एक बात
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श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी |
प्रजा के प्रतिनिधियों के अच्छे से अच्छे प्रस्ताव को उसी घाट उतारे जाना, जिस घाट बुरे उतारे जाने चाहिए, ह्रदय की आशा और विश्वास की जड़ को रेतना है. और यह किसी प्रकार भी देश के लिए कल्याणकारी नहीं कहा जा सकता. रजा कुशलपाल सिंह ने प्रस्ताव किया था कि जिस प्रकार किसानों को तकावी बांटी जाती है, उसी ढंग पर कल कारखाने कायम करने के लिए प्रान्तिक सरकारें लोगों को रुपया उधर दें. प्रस्ताव के परमोपयोगी होने में किसे संदेह हो सकता है? इधर-उधर प्रदर्शनियां होती फिर रही हैं. जर्मन और आस्ट्रियन माल के मुकाबले में भारतीय माल को दिखाया जा रहा है. परन्तु खाली प्रदर्शनियों से भूखों का पेट नहीं भर सकता और हालत-मंदों की जरूरत पूरी नहीं हो सकती. यदि देश में रोटी का कठिन और कठोर सवाल हल करना है, और इस समय देश के व्यवसाय के किसी भाग को घात लगाने वाले अमेरिका और जापान से बचाना है, तो आवश्यक है कि लोगों को व्यवसाय में पूरी मदद दी जाए. यदि इंग्लैण्ड में इस प्रकार की मदद देना सरकार बुरा नहीं समझती, रंग के व्यवसाय के लिए वह डेढ़ करोड़ रुपये देना उचित समझती है, तो भारतीय प्रजा ने कोई पाप नहीं किया है. और वह इंग्लैण्ड वालों से अधिक सहायता की पात्री है.
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राजा कुशलपाल सिंह के इस प्रस्ताव को कितने ही मेम्बरों से साथ भी दिया. व्यवसाय सचिव मि. क्लार्क ने भी सहानुभूति प्रकट की, परन्तु इसके आगे उनकी दलीलें बड़ी ही सूखी हैं. उनका कहना है कि सरकार नियमित रूप से सहायता नहीं डे सकती. क्यों ? युद्ध के कारण. पर, इंग्लैण्ड की सरकार तो देती है! वह अधिक अमीर है. निःसंदेह इंग्लैण्ड अमीर है, और क्लार्क साहब के शब्दों में, वहां के आदमी व्यवसाय के चक्करों से परिचित और खूब होशियार हैं. परन्तु, भारत सरकार के पास भी बचे हुए रुपए हैं, वह उधार ले रही है. इस आवश्यक काम के लिए, कम से कम रेल से अधिक आवश्यक काम के लिए, वह थोड़ा सा कर्ज और लाड लेती. और यदि भारतीय आज व्यवसाय में बोदे हैं तो कोई नहीं कह सकता कि कि ब्रह्मा ने 'बोदापन' सदा के लिए इनके ललाट पर अंकित कर दिया. थोड़ी देर के लिए हम मान लें कि भारत सरकार देश के व्यवसाय की मदद के लिए कुछ नहीं कर सकती, तो हम पूछते हैं कि इंग्लैण्ड की सरकार ही हमारी मदद क्यों नहीं करती?
गणेश शंकर विद्यार्थी के लेख / नए टैक्स
भारत आज कृषि प्रधान देश है पर यह सदा ऐसा नहीं रहा है. उसका व्यवसाय नष्ट किया गया और नष्ट किया ईस्ट इंडिया कम्पनी के बाणिकों ने. उनकी इस क्रूर लीला से इंग्लैण्ड को लाभ पहुंचा, और उसके इस लाभ के नाम पर नहीं, किन्तु न्याय और उदारता के नाम पर, जिनका इंग्लैण्ड को काफी गर्व है, और साथ ही उसकी स्वार्थ की दृष्टि से भी, क्योंकि भारत की तबाही उसको तबाह किये बिना नहीं छोड़ेगी. और भारत की खुशहाली से उसे लाभ पहुंचेगा. हमारा इंग्लैण्ड से भारत के व्यवसाय की रक्षा और सहायता के लिए आगे बढ़ने का मतालवा करना बेजा नहीं है. परन्तु, नक्कारखाने में तूती की आवाज. क्लार्क साहब ने कहा-यह प्रस्ताव स्वीकार किया जाएगा, यदि उसका रूप बदलकर यह कर दिया जाए कि जहाँ तक संभव हो सरकार व्यवसाय के काम में मदद दे. प्रस्ताव का यह रूप हो गया और यह पास हो गया. बड़ी ही नई बात. क्या सरकार को इस बात की बधाई देने की आवश्यकता है कि जिस बात को संसार की असभ्य से असभ्य गवर्नमेंट अपने कर्तव्य का मुख्य अंग समझती होंगी, उसे आज हमारी सरकार ने एक गैर सरकारी मेंबर के समझाने पर अपनाने का कष्ट उठाया है? हमें कौंसिल के सरकारी मेम्बरों की इस प्रकार की गति पर ह्रदय से दुःख होता है. क्योंकि इसी प्रकार की बातों में हमें सरकार की मान मर्यादा घटती दीख पड़ती है. इस प्रस्ताव का तो रूप ही बदलकर रह गया, पर दूसरे तो बिल्कुल ही मर मिटे.
गणेश शंकर विद्यार्थी के लेख / देश का व्यवसाय
मध्य प्रदेश के मि. दादा भाई ने रेल के खर्च से 50 लाख लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य रक्षा के लिए अलग करने का प्रस्ताव किया था, पंडित मदन मोहन मालवीय ने 15 लाख तक की वृद्धि आबपाशी के लिए चाही थी. उन्हीं के प्रस्ताव थे कि 12 लाख रुपये काला-कौशल की उन्नति के लिए मंजूर किये जाय और 10 लाख रुपये की कमी रेलों के खर्च में की जाय. यद्यपि शिक्षा के महत्व के प्रश्न से किसी को इनकार नहीं और देश का अशिक्षित होना स्वीकार किया जाता है और रेल के अधिक खर्च और कम आमदनी, और आबपाशी के थोड़े खर्च और अधिक आमदनी को सब मानते हैं, पर इन बातों के होते हुए भी सभी कौड़ियाँ पट्ट ही पड़ती हैं. कौंसिल देश की भाग्य के विधाता हैं, हमें उसके फैसले के सामने सिर झुकाना ही पड़ता है. उसकी गति हमारे ह्रदय में उसके प्रति वह भाव उदय होने नहीं देती, जो होना चाहिए था. हमें स्पष्टता के साथ कहना पड़ता है कि हमें ऐसा भासित होता है कि देहली और शिमले के कौंसिल हाल स्कूल और कालेजों के डिबेटिंग रूम से अधिक महत्व की चीजें नहीं हैं. गैर सरकारी मेंबर सरकारी डोरी के इशारे पर चलें, तो भला, नहीं तो जंगल में चीखा करें, उसकी पुकार कोई नहीं सुनेगा. हमें कौंसिलों से उस समय तक कोई बड़ी आशा नहीं है, जब तक देश के मुट्ठी भर शासकों का दल इस बात का विचार धीमा नहीं करता कि देश का कल्याण केवल उन्हीं बातों में नहीं है, जो उनके दिमाग में चक्कर मारती हैं. किन्तु देश की मिटटी से पैदा होने वाले लोग भी कुछ अपना भला और बुरा सोच सकते हैं, पान्तु तो भी, यदि कौंसिलों का रूप पलट जाय, उसमें गैर सरकारी चुने हुए मेम्बरों की अधिकता हो, सरकार को इससे हानि न होगी, क्योंकि सभापति को असाधारण अधिकार प्राप्त होते हैं-तो कौंसिलों में कुछ जान आ जाए और वे काम और विश्वास की चीज बन जाएँ. यही बहुत से प्रस्तावों का एक प्रस्ताव है और बहुत सी बातों की एक बात है.
नोट-प्रख्यात पत्रकार श्री गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 15 मार्च 1915 को उनके प्रिय पत्र प्रताप में छपा था.
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