गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 62 : कौंसिल में देशी भाषा
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श्री गणेश शंकर विद्यार्थी |
अंत में शिक्षा सदस्य सर हारकोर्ट बटलर ने प्रस्ताव से सहानुभूति मत प्रकट करते हुए यह कहा कि युद्ध के बाद यह प्रस्ताव प्रान्तिक सरकारों के सामने उनके विचार के लिए पेश किया जाएगा और इसी निर्णय पर प्रस्ताव को वापस ले लिया गया. देशी भाषा का प्रश्न नया नहीं है. संसार में बहुत ही थोड़े ऐसे अभागे देश हैं, जिनके बच्चों को अपनी भाषा में नहीं, किन्तु किसी विदेशी भाषा में शिक्षा पानी पड़ती है.हमारे देश की गणना उन्हीं अभागे देशों में है. यह है भारी ताबान, जो हमें अपनी हीन अवस्था के कारण देना पड़ता है. जिन देशों की ऐसी हीन अवस्था नहीं है, भले ही वे असभ्य हों, भले ही वे किसी से किसी बात में कम हों, पर कम से कम वे इस घटी में न होंगे. अपनी भाषा का वियोग एक ऐसा रास्ता है जो हमें उस ठिकाने पर ले जाता है, जहाँ जातीय आत्म-सम्मान, आत्मोन्नति और स्वाभाविकता का बलिदान होता है. यदि हम अपने भावों को उठाकर अलग भी रख दें तो भी हमें संसार भर में कोई भी ऐसा समझदार आदमी नहीं मिलता, जो यह कहने का साहस करे कि किसी व्यक्ति के लिए संसार की कोई विदेशी भाषा उसकी अपनी भाषा से अधिक सरल और उसकी उन्नति के लिए अधिक आवश्यक और उपयोगी हो सकती है.
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उस टेढ़े रास्ते पर विचार कीजिए, जिससे होकर हमें अपने लक्ष्य तक आना पड़ता है. पहले हम अंग्रेजी भाषा पढ़ते हैं. जब दिमाग पर खूब जोर लगाकर हम उसे समझ लेने के योग्य होते हैं, तब हम उस विषय की ओर झुकते हैं, जो हमारा लक्ष्य है. यदि देशी भाषा में शिक्षा हो तो हमें इतना चक्कर न काटना पड़े और भाषा के पढ़ने में दिमाग न खर्च करना पड़े.मानसिक और शारीरिक हानि के सिवा आगे की उन्नति भी मारी जाती है. भाषा पढ़ते-पढ़ते ही जीवन का एक अमूल्य युग बीत जाता है. तो भी, भाषा पर प्रभुत्व प्राप्त नहीं होता, और आगे किसी बात के न जानने के कारण सिवा इसके कोई उपाय नहीं रहता कि इधर-उधर थोड़ी तनख्वाह की नौकरी कर ली जाए.
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देश के लाखों युवक इस प्रकार बिना सहारे, अभागी बीच मंझधार में पड़े हुए हैं. इनमें एक ऐब उत्पन्न हो जाता है, जिससे वे न इधर के रह जाते हैं, और न उधर के. अपने पूर्वजों के काम करने में उन्हें लाज लगती है. डांट-फटकार सुनते हुए भी वे क्लर्की से रोजी चलाना, हाथ की मेहनत से रोटी कमाने की अपेक्षा अधिक अच्छा समझते हैं. और, जिस देश में इस प्रकार के युवकों की अधिकता है, यह बड़ी ही कठिन बात है कि इस घोर संग्राम के समय में यह आगे बढ़ सके.
नोट-श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 22 मार्च 1915 को उनके प्रिय अखबार प्रताप में छपा था.
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