गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 63 : रेलों का सरकारी प्रबंध

श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी 
24 मार्च 1915 को बड़ी कौंसिल में रेल के प्रबंध का प्रश्न उठा था. गत वर्ष मद्रास के मि. विजय राघवाचार्य ने इसी विषय पर एक प्रस्ताव पेश किया था, उस समय उसकी सुनवाई नहीं हुई. इस साल बम्बई के सर इब्राहिम रहमतउल्लाह ने उसी प्रस्ताव को पेश किया. साइत अच्छी थी इसलिए बात खाली नहीं गई.सर इब्राहिम रहमतउल्लाह का प्रस्ताव यह था कि रेलें हैं तो सरकार की, पर उनमें से अधिकांश का प्रबंध इंग्लैण्ड की गोरी कंपनियों के हाथ में है, सो ज्यों-ज्यों उनके ठीके का समय पूरा होता जाय त्यों-त्यों सरकार रेलों का प्रबंध अपने हाथों में लेती जाय. एक को छोड़कर लगभग सभी सरकारी मेंबर इस प्रस्ताव के साथ थे.

वाणिज्य और व्यवसाय विभाग के मेंबर मि. क्लार्क ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए कहा कि सरकार खुद ही इस विषय पर विचार कर रही है और भारत सचिव की आज्ञा से इस बात की तहकीकात की जा रही है कि कंपनियों के द्वारा रेलों का काम चलाने में खर्च कम पड़ता है या सरकारी प्रबंध द्वारा ? इस खोज का फल निकलने ही पर इस प्रश्न का निर्णय हो सकेगा. पर, कंपनियों के प्रबंध से सरकारी प्रबंध के अधिक खर्चीले होने की आशंका व्यर्थ है. यह तो कोई बात नहीं कि जिस काम में कंपनी का एक पैसा खर्च हो, उसी काम में सरकार का सवा पैसा खर्च पड़े. पर, यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाय कि सरकार को कुछ अधिक खर्च करना पड़े, तो भी देश और देशवासियों का हित इसी में है कि रेलों का प्रबंध जितना शीघ्र कंपनियों के हाथों से निकलकर सरकार के हाथों में चला जाय, उतना ही अच्छा. सभी जानते हैं कि ये कम्पनियाँ देश की नहीं और देश वालों की भी नहीं. विलायती बनिए ही इन मायाओं के विधाता हैं. रेलों में जितना नफा होता है, सब सात समुद्र पार उनकी जेबों में पहुँच जाता है. नफा का रुपया हमारे देश का होता है पर, कंपनी वालों की जेबें इतनी गहरी और इतनी दूर हैं कि हमारा देश स्वप्न में भी आशा नहीं कर सकता इस प्रकार गई हुई लक्ष्मी से उसकी फिर कभी भेंट होगी.
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1912 में केवल एक वर्ष में हमारे देश का 84 लाख रुपया इनकी लम्बी जेबों में सदा के लिए चला गया. यही बात हर वर्ष होती है. यह पहली बात है. दूसरी सुनिए. रेलवे कम्पनियाँ स्वेच्छाचारिता में अद्वितीय हैं. उन्हें देश और देशवासियों के लाभ के लिए काम करने की आज्ञा मिली है. शर्तनामों द्वारा वे भारत सरकार की जंजीरों से बंधी हुई हैं. भारत सचिव को उनके ऊपर सब तरह के अधिकार प्राप्त हैं. परन्तु, कंपनियों के संचालक शर्तों की एक तिनके के बराबर भी परवाह नहीं करते. इंग्लैण्ड में ही बैठे-बैठे पार्लियामेंट और अन्य अधिकारियों की सहायता से, वे जो चाहते हैं करा लेते हैं. भारत में भी उनके जोर की कमी नहीं है. कितने ही एंग्लो इंडियन पेंशन लेकर इंग्लैण्ड में इन कम्पनियों के कार्यकर्ता बनते हैं. वहां बैठे-बैठे वे अपना डोर हिलाते हैं और अपना मतलब हल करते हैं. उनके काम से चाहे देश का नाश हो और चाहे लोग बरबाद हों, उन्हें इसकी कुछ भी परवाह नहीं. और यदि भारत सरकार कुछ करना भी चाहे तो इनके बड़े-बड़े हिमायतियों के कारण उसकी कुछ भी पेश न जाय. ये मोटी बात है. इनके भीतर छोटी बाते भी हैं.
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भारत में रेलों का किराया अधिक है. पर, इस पर भी जब कम्पनियाँ चाहती हैं तब किराया बढ़ा लेती हैं. कोई एक रेट ही नहीं. माल की सुरक्षा की जिम्मेदारियों से तो वे कोसों दूर भागती हैं. कोई शक्ति ऐसी है भी नहीं, जो इनका सिर पकड़कर उन्हें न भागने दे. तीसरी बात सुनिए. इनकी वाणिज्य नीति देश के लिए बड़ी हानिकारक है. उससे विदेशी माल के व्यापार को वारा पड़ता है, स्वदेशी माल के व्यापार को हानि पहुँचती है. यदि आप कानपुर से बम्बई या कलकत्ता जूते भेजें, तो आप को उससे अधिक रेल किराया देना पड़ेगा, जो आप को बम्बई या कलकत्ते से कानपुर को जूतों के भेजने पर देना पड़ेगा. फासला वही है और कंपनी भी वही, पर चाल दुरंगी है. बम्बई और कलकत्ते से विदेशी माल देश के भीतर आता है, इसलिए वहां से रेल किराया कम है. एक दिल्लगी और देखिए. यहाँ से कच्चा चमड़ा बम्बई भेजिए, किराया कम लगेगा. उन्ही चमड़ों के जूते भेजिए, किराया अधिक लगेगा. कच्चे माल का किराया कम है पक्के का अधिक. फल यह होता है कि बम्बई में विलायत के बने हुए जूते कानपुर के बने हुए जूते से सस्ते पड़ सकते हैं, और इसीलिए, बम्बई में ट्रासवाल से आने वाला कोयला बंगाल के कोयले से और फ़्रांस से आने वाली नारंगी या जंजीवार से आने वाला आम नागपुर के संतरे से या मलीहाबाद के आम से सस्ता पड़ता है.
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बम्बई प्रदेश के एक नगर में (शायद यह नगर अहमदाबाद है) दियासलाई बनाने का एक कारखाना खुला. उम्मीद थी कि काम चटकेगा पर एक दिन इस आशा पर पानी फिर गया. क्यों ? रेलवे कंपनियों की स्वेच्छाचारिता से. जितने की चीज नहीं, किराया देकर बाहर पहुँचने पर उससे अधिक की पड़ती. फिर कौन लेता ? इसीलिए देश में दियासलाई के कितने ही कारखाने होते हुए जापान, आस्ट्रेलिया की दियासलाई से हमारे घर की आग जलाई जाती है. चौथी बात सुनिए.हमारे देश का ही पैसा, हमारे आदमियों के ही हाथों से पैदा करें, इतनी अनुदारता, कि भारतीयों को रेलवे स्टाफ में उच्च पद न दें. पांचवीं बात और वह सबसे बड़ी यह है, और देश का कोई भी कानून इस अन्याय को रोकता नहीं दिखाई पड़ता-रेलवे कम्पनियाँ जातीय वैमनस्य का जितना अधिक पोषण करती हैं, उतना शायद ही कोई संयुक्त दल करता हो. भारतीयों के लिए अलग स्थान और यूरोपीयन के लिए अलग. भले ही भीड़ के मारे थर्ड क्लास के आदमियों का दम घुटता हो, पर क्या मजाल कि वे साहब के थर्ड क्लास की ओर नजर उठाकर देखें. यह छोटी बात है. फर्स्ट और सेकण्ड क्लास में बड़ी बातें देखने में आती हैं. उसमें बैठने के लिए केवल धन ही की आवश्यकता नहीं है. इज्जत भी कोई बड़ी चीज नहीं है. क्योंकि रेलवे कंपनियों के राज्य में ये दोनों चीजें साधारण गोर के जूते की नोक पर नाचा करती हैं (इसलिए इन दोनों के होते हुए भी जिन भारतीयों का बाहुओं में बल न हो, अपने भले और देश की इज्जत के लिए, वे इन स्वर्गीय डिब्बों में बैठने का नाम भी न लें.)
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कंपनियों की नादिरशाही की और भी कितनी बातें कही जा सकती हैं, पर आज इतनी ही यथेष्ट हैं. सरकार के हाथों में प्रबंध हो जाने से यह धांधली नहीं रह सकेगी. नफे का रुपया देश में रहेगा. देश के वाणिज्य के हित के विरुद्ध कोई काम न हो सकेगा. रेल की ऊँची नौकरियों में भारतीयों का प्रवेश होने लगेगा और जातीय भेद-विभेद भी कम हो जाएगा. सरकार इस काम को भली-भांति कर सकती है, क्योंकि वह इस समय भी लगभग आठ हजार मील की रेलों का प्रबंध करती है. वह आर्थिक प्रश्नों को भी आसानी से हल कर लेगी. क्योंकि 1912 तक रेलों की साढ़े पांच अरब की लागत में पौने चार अरब का प्रबंध सरकार ही ने किया है.    
नोट-प्रख्यात पत्रकार श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 29 मार्च 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ था.

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