गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 64 / मिसेज बिसेंट की वक्तृता
![]() |
श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी |
गत दो वर्ष से आप ने भारत के राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण किया है. गत मद्रास कांग्रेस में आप ने जो भाग लिया था, जो अमूल्य सहायता दी थी, उसके लिए सभापति बाबू भूपेंद्र नाथ बसु ने मुक्तकंठ से आप को प्रशंसा पूर्वक धन्यवाद दिया था. स्वयं आप ने गोरखपुर के व्याख्यान में कहा-मेरे ह्रदय की आतंरिक अभिलाषा यही है कि मैं भारत की सेविका बनूँ. और मैं यही पारितोषिक चाहती हूँ कि आप मुझे भारत की सेवा करने का अवसर देते रहें. इन बातों को देखते हुए आशा होती है कि आगामी चार-पांच वर्ष के भीतर ही हम मिसेज बिसेंट को कांग्रेस के प्रधान का आसन सुशोभित करते देखेंगे. गोरखपुर में आप की जो वक्तृता हुई वह पढ़ने और मनन करने योग्य है. वर्तमान महायुद्ध, महात्मा गोखले और बाबू गंगा प्रसाद वर्मा की मृत्यु पर, नए भारत रक्षा बिल पर और युक्त प्रदेश के लिए कार्य-कारिणी कौंसिल के सम्बन्ध में हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स के विरोध पर आप ने दुःख प्रकट किया. महात्मा गोखले के स्मारक के विषय में कहा कि उनकी मूर्ति तो स्थापित करनी ही चाहिए, पर उनकी भारत सेवक समिति को-जिसके लिए वह अंत समय तक चिंतित थे-उनका मुख्य स्मारक बनाना चाहिए.
इसे भी पढ़ें : वीरों की दृढ़ता
वर्तमान युद्ध के समय भारत ने ब्रिटेन की जो सहायता की है, और जो व्यापक गंभीर राजभक्ति दिखलाई है, कुछ लोगों ने जानबूझ कर उसके अर्थ को अनर्थ कर डाला है. यह समझना नितांत भूल है कि भारत अपनी वर्तमान राजनैतिक अवस्था से संतुष्ट है या वर्तमान ब्यूरोक्रेटिक शासन-प्रणाली को ही सर्वोत्तम समझता है अथवा आजकल की तरह सदा ही ब्यूरोक्रेटिक शासन की मातहती में ही रहना चाहता है. हमारी राजभक्ति का यह अभिप्राय कभी नहीं है कि हम अपने राजनैतिक स्वत्वों को-स्वतंत्रता के स्वत्वों को-तिलांजलि दे चुकें.
साम्राज्य में भारत का पद कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका से किसी तरह नीचा न होना चाहिए. इन उपनिवेशों के लोग भारत के साथ जैसा बर्ताव करें, ठीक वैसा ही भारत को इनके साथ करना चाहिए. यदि भारतवासी किसी उपनिवेश में नहीं बस सकते या जमीन नहीं खरीद सकते या व्यापार उद्योग, रेल आदि के काम नहीं कर सकते तो उस उपनिवेश के लोग भी भारत में न बस सकें, न जमीन खरीद सकें, न व्यापार इत्यादि कर सकें. मामला साफ है. हम पूरी समानता चाहते हैं.
युक्त प्रदेश के लिए कार्यकारिणी कौंसिल के सम्बन्ध में हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स ने जो कुछ किया है, उसे सुनकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ है. यह कोरी शरारत और निर्बुद्धिता का काम है. हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स को अब यही जवाब देना ठीक है कि 1833 और 1853 के क़ानून के अनुसार युक्त प्रदेश में गवर्नर और कौंसिल का शासन स्थापित किया जाय. हमारे सामने तीन बड़े महत्व के प्रश्न हैं. हिन्दू मुस्लिम प्रश्न, शिक्षा का प्रश्न और प्रांतीय स्वराज्य का प्रश्न. कम से कम इतना मानने के लिए तो हम सब तैयार हैं कि भारत में हिन्दू मुसलमान, दोनों को ही भारतीयों की ही भांति रहना होगा. दोनों को चाहिए कि पुराने सब झगड़े भूल जाएँ और भविष्य में एक-दूसरे को हानि न पहुंचाएं. घृणा का अंत घृणा से नहीं होता, किन्तु प्रेम से होता है. किसी मनुष्य को धार्मिक विश्वास के कारण सरकार की ओर से न लाभ पहुंचना चाहिए और न हानि ही पहुंचनी चाहिए. सरकार भले ही पिछड़ी हुई जातियों की शिक्षा और उन्नति की ओर अधिक ध्यान डे और सहायता करे, पर यह सहायता धार्मिक भेद के अनुसार नहीं, किन्तु पिछड़ेपन के अनुसार ही हो. यदि किसी प्रान्त में मुसलमानों की संख्या कम है-जैसे पंजाब और पूर्वीय बंगाल में-उसमें हिन्दुओं को भी विशेष निर्वाचन का अधिकार दिया जाए. ऐसी अवस्था में ईसाइयों, पारसियों, सिखों और जैनियों को भी यह अधिकार मिलना चाहिए.
यह भी देखें : राष्ट्रीय महा-सभा
रही आपस के मामले की बात, सो प्रत्येक नगर में जहाँ हिन्दू-मुसलमान में अनबन हो, प्रधान-प्रधान नागरिकों की एक सभा मेल-जोल के लिए स्थापित होनी चाहिए. मामूली मामलों में दोनों को एक दूसरे के विशवस का ख्याल रखना चाहिए. उदाहरण के लिए गोवध का मामला लीजिए. यदि हिन्दुओं के विश्वास का ख्याल करके मुसलमान लोग काबुल के अमीर का अनुकरण करें, तो बड़ा ही अच्छा है. यदि ऐसा न हो तो वह कम से कम इतना ध्यान तो अवश्य ही रखें कि कभी हिन्दुओं की आँखों के सामने गोवध न करें. एक बड़ी जरूरी बात यह है कि जिन बड़े-बड़े मामलों में हिन्दू-मुसलमान के स्वार्थ एक हैं, उनमें वह मिलकर भारतीयों की तरह काम करें. प्रारंभिक शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य होनी चाहिए. शिक्षा का काम भारतीयों के हाथ में होना चाहिए. शिक्षा का उद्देश्य सरकारी नौकर पैदा करना नहीं, किन्तु अच्छे नागरिक पैदा करना होना चाहिए. केवल मानसिक शिक्षा काफी नहीं है, किन्तु शारीरिक, धार्मिक और नैतिक शिक्षा भी होनी चाहिए. पर धार्मिक शिक्षा से मतमतांतर के झगड़े बिलुक दूर रहने चाहिए. वह उदार हो, उसका उदार प्रभाव पड़े, वह ऐक्यता का भाव उत्पन्न करे, कार्यशील बनावे और चरित्र को ठीक करे. हमें पहिले ही पहिल हिन्दू विश्विद्यालय के रूप जातीय शिक्षा केंद्र स्थापित करने का अवसर मिला है. वह पाश्चात्य और पूर्वीय विद्याओं का मंदिर होगा.
इतना कहने पर मिसेज बिसेंट ने स्थानिक और भारतीय स्वराज्य पर विस्तार से विचार किया और वाद-विवाद के लिए स्थूल रूप से एक स्कीम भी पेश की. इस स्कीम में गांवों की पंचायत, शहरों की म्युनिसिपल्टियां, जिलों के बोर्ड, प्रांतीय पार्लियामेंट की स्थापना और अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करने की व्यवस्था है. अंत में आप ने भारत के भविष्य के लिए आशा प्रकट की.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 5 अप्रैल 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ.
Comments
Post a Comment