नोटबंदी : कोई माने या न माने, दिक्कतें तो हैं

प्रतीकात्मक तस्वीर: साभार 
कोई भी बात लिखने के पहले मैं कुछ बातें साफ़ करना चाहता हूँ. मैं इस देश का एक पढ़ा-लिखा नागरिक हूँ. हर हाल में देश की तरक्की चाहता हूँ. किसी दल का सदस्य नहीं हूँ. अर्थशास्त्री भी नहीं हूँ. मुझे अपने प्रधानमंत्री पर कतई शक नहीं है. लेकिन मुझे यह भरोसा जरूर हो चला है कि नोटबंदी के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सलाहकारों ने अँधेरे में जरूर रखा या यह भी कहा जा सकता है कि उन्हें भी आने वाली कठिनाई का ठीक-ठीक अंदाजा नहीं था.
पूरी बात मैं अपने तजुर्बे के आधार पर ही कह पा रहा हूँ. बीते एक सप्ताह में मैं तीन बार बैंक गया, तब जाकर 10 हजार मिला. एटीएम तो न जाने कितनी बार गया और यह मेरा दुर्भाग्य हो सकता है लेकिन सच यही है कि रुपया एक बार भी नहीं मिला. मुझे न तो बैंक में और न ही एटीएम में, कोई भी बड़ा व्यापारी, अधिकारी, राजनेता भी लाइन में लगा नहीं मिला.
जबकि आम आदमी ने अगर अपनी पत्नी-पति के खाते में पैसे डालने की कोशिश की तो उसे कामयाबी नहीं मिली. बैंक ने नियमों का हवाला दिया और चलता कर दिया. अब मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही कि बड़े व्यापारी, अधिकारी, नेतागण का काम चल कैसे रहा है? निश्चित ही बैंक इन्हें बेजा सपोर्ट कर रहे हैं. किसी भी समाचार माध्यम ने अब तक ऐसे किसी भी अहम् आदमी या औरत को लाइन में लगे नहीं देखा. राहुल गाँधी को छोड़कर और सब जानते हैं कि वे क्यों गए थे.
गांवों की दशा और भी खराब है. वहां हाहाकार मचा हुआ है. खाद, बीज, दवाई, शादी, सिंचाई सबके लिए किसान नगदी के सहारे है. वह उसके पास है नहीं, जो है वह चल नहीं रहा. बैंक में पैसा मिल नहीं रहा. वह तो भला हो स्थानीय व्यापारियों का, जो किसानों की मदद कर रहे हैं, मतलब उधार सामान दे रहे हैं. नहीं तो और आफत होती. फिर भी दिक्कत से इनकार करना बेमानी होगी.
शायद यही कारण होगा कि हमारे प्रधानमंत्री को अपनी घोषणा के चार-पांच दिन बाद देश से 50 दिन का समय मांगना पड़ता है. क्योंकि तब तक सलाहकारों की कलई खुल चुकी थी. पीएम इस सच से भी वाकिफ हो चुके थे कि कहीं न कहीं आकलन करने में चूक हुई है अफसरों से.
अगर ऐसा नहीं होता तो सबसे पहले एटीएम से हजार-पांच सौ के नोट की ट्रे हटाई जाती. उनकी जगह सौ रुपये के नोट की ट्रे बढाई जाती. सौ की करेंसी भी उसी हिसाब से तैयार रखी जाती. और यह सारा काम बिना हजार-पांच सौ के नोट को बंद करने की घोषणा किये भी किया जा सकता था. अगर ये सारे इंतजाम कर लिए गए होते तो शायद इतनी दिक्कत नहीं होती, जितनी आज हो रही है.
यही कारण है कि दिल्ली में बैठे अधिकारीगण टीवी पर नित नए आदेश जारी कर रहे हैं. यह सारी घोषणाएं देश भर से आ रहे फीडबैक के आधार पर ही की जा रही हैं. पर, इस सच से इनकार करना नादानी होगी कि अभी भी आप की तमाम घोषणाएं तुरंत गांवों तक नहीं पहुँच पाती. रिजर्व बैंक के ढेरों आदेश बैंक तक पहुँचने में ही समय लग रहा है. सरकार या सरकारी अधिकारीयों की घोषणा के हिसाब से बैंक नहीं चल रहे, उन्हें तो रिजर्व बैंक का आदेश चाहिए.
जरूरतमंद टीवी के जरिए मिल रही सरकारी घोषणाओं को सुनकर बैंक पहुँच रहा है तो सुनवाई नहीं हो रही. बैंक के हाथ भी बंधे हुए हैं. उसके पास रिजर्व बैंक का आदेश ही नहीं पहुंचा है. पर्याप्त मात्रा में धन भी नहीं मिल पा रहा है बैंकों को. यह पूरी दुनिया मांग-आपूर्ति के सिद्धांत पर चलती है. यहाँ भी वही फार्मूला लागू है. मांग ज्यादा और आपूर्ति कम. फिर दिक्कत तो बनी रहेगी. और आम आदमी को राहत तभी मिलेगी, जब वह बैंक जाए, उसकी सुनवाई हो जाए. पैसा मिल जाए. एटीएम से सौ-दो हजार के नोट सुचारू निकलने लगें.
पीएम की इस पहल से कितना कालाधन बाहर आया, यह तो वही जानें, पर अगर इस समस्या का निदान जल्दी नहीं निकला तो देश में दिक्कतें बढ़ेंगी. अभी सरकार के समर्थक कुछ भी कहें लेकिन सच से वे भी वाकिफ हैं कि समस्या का निदान निकालना ही होगा, अन्यथा दांव उल्टा पड़ जाएगा.
जानकारों, बैंक अफसरों, अर्थशास्त्रियों  से बात करने, उनके कालम पढ़ने आदि से जो जानकारियां मिल रही हैं, वह और खतरनाक हैं. मसलन, आयकर महकमे में अफसरों या कर्मचारियों की संख्या कतई नहीं बढ़ी है. इक्का-दुक्का मसलों को छोड़ दें तो देश के किसी भी हिस्से से कोई बड़ी कैश रिकवरी नहीं हुई है. जानकारी यह भी मिल रही है कि बाजार में ऐसे लोग सक्रिय हो गए हैं जो 35-40 फ़ीसदी तक कमीशन पर पुराने नोट बदल रहे हैं.
आयकर महकमे से आये दिन डील करने वाले लोग बखूबी वाकिफ हैं कि आगे क्या होने वाला है. एक व्यापारी ने कहा-मैं इसी बात से खुश हूँ कि ढेरों बाजार का बकाया पुराने नोट में ही सही वापस आ गया. यह जानने के बावजूद कि आगे इससे दिक्कत होने वाली है, मैंने कई करोड़ रुपये जमा करवा दिए हैं. आयकर महकमे के लोगों को जैसे पहले समझते थे, वैसे ही फिर समझ लेंगे. मेरी डूबी हुई रकम वापस आ रही है तो उसका स्वागत करना मेरी जिम्मेदारी है.
इस सूरत में भारत सरकार को आमजन की दिक्कतों को जल्दी से जल्दी दूर करना होगा. अगर ऐसा नहीं हो पाया तो नेक नियत से शुरू किया गया एक बड़ा और सकारात्मक फैसला नकारात्मक हो जाएगा. क्योंकि यह देश अभी भी गाँव, गरीब, किसान का है, इसलिए उसका हित सोचना सरकार की जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी. अन्यथा, चुनाव तो आते ही रहते हैं.

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