इंदौर-पटना रेल हादसा : फिर जाँच और मुआवजा का नाटक


प्रतीकात्मक फोटो-साभार 
मैं बीते 24 वर्ष से पत्रकारिता में हूँ. हर साल दो-तीन रेल हादसे देखते हुए उम्र की सीढियां भी चढ़ते जा रहा हूँ. हर रेल हादसे के बाद जाँच के आदेश, मृतकों आश्रितों को कुछ मुआवजा, गंभीर घायलों को उतनी ही रकम, जिसमें किसी अस्पताल में उसके इलाज का एक-दो दिन का खर्च शायद पूरा पड़े. 'भाग्यवश' मामूली घायल की श्रेणी वालों को भी हादसे से सँभलने के लिए शायद कुछ रकम. आगे क्या ? कोई नहीं जान पाता, या कोई बताना नहीं चाहता या फिर यह भी ख सकते हैं कि कोई जानना नहीं चाहता. ऐसा भी कह सकते हैं कि हम सब मिलकर फिर एक नए हादसे का इन्तजार करते हैं. इंदौर-पटना एक्सप्रेस के कानपुर के समीप हुए हादसे के बाद फिर यह सारी घोषणाएं हो चुकी हैं.
सौ के आसपास मौतों के बाद एक बार फिर वही कहानी सामने है. मेरी समझ से परे है कि जब हम बुलेट ट्रेन की बात करने लगे हैं तो भी दो सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार वाली एक भी पटरी हमारे पास नहीं है. हमारे प्रधानमंत्री जापान जाकर ट्रेन से यात्रा करते हैं. फोटो ट्विटर पर डाली जाती है. देश के लोग खुश होते हैं. सपने देखते हैं कि वे भी अपने देश में ऐसी ट्रेन में कभी न कभी सवारी जरुर करेंगे. पर, कब, यह कोई नहीं जानता. निश्चित हमारे नीति-नियंता कुछ ठोस कर रहे होंगे-रेल हादसों को रोकने की दिशा में, रेल सफ़र को और सुरक्षित बनाने को, पटरियों को और सुरक्षित बनाने को, रेल लाइनों का नया जाल बिछाने को, पर ये सारी बातें, सारे प्रयास बेमानी लगने लगते हैं, जब हर हादसे के बाद आने वाली जाँच रिपोर्ट के नतीजों को हम गंभीरता से नहीं लेते. उन रिपोर्ट के आधार पर हम सुरक्षा के कदम नहीं उठाते. अब देखिए न आज का हादसा दो ट्रेनों के भिड़ने से नहीं हुआ है. निश्चित हमारे सुरक्षा उपायों में कोई चूक हुई होगी. ऐसा भी नहीं है कि इस हादसे से पहले ऐसे हादसे नहीं हुए हैं. हुए हैं, एक नहीं, अनेक हादसे हुए हैं. रेल आज से नहीं, अंग्रेजों के ज़माने से हमारे देश के प्रमुख सार्वजनिक परिवहन में से एक है. चाहे भले ही उस ज़माने में गोरे अलग कोच में बैठते थे और भारतीय अलग. लकीर के फ़कीर की तरह हम रेल बजट अलग से पेश करने के आज भी हिमायती हैं. पेश भी करते हैं, पर रेलवे के सफ़र को सुरक्षित बनाने, यात्रियों को सहज टिकट उपलब्ध कराने, सुरक्षित यात्रा के लिए बेहतरीन ट्रेनें  उपलब्ध कराने की दिशा में न जाने कौन सा और किस तरह का छिपा प्रयास करते हैं, कि उसका सकारात्मक असर हम जैसे सामान्य लोगों के जीवन पर नहीं पड़ता.
बजट भाषण सुनते हुए, अख़बारों में पढ़ते हुए हम इन सभी पहलुओं को पाते हैं लेकिन बजट और इसकी खबरों की ही तरह इस तरह के सभी पहलू भी गायब होते दिखते हैं. संभव है कि सभी उपायों पर काम हो रहा हो. जल्दी ही हम पर उसका असर भी हो, लेकिन हम जैसे देश के करोड़ों लोग तो तभी जान पाएंगे, जब हमारे जीवन पर सीधा असर पड़ेगा. असल में यह समस्या केवल एक पार्टी की सरकार से नहीं जुड़ी है. सभी सरकारें इसके लिए जिम्मेदार हैं. आबादी बढ़ती जा रही है. इस अनुरूप न तो ट्रेन बढ़ रही हैं और न ही पटरियां और न ही सुरक्षा के उपाय. इस पर चिंतन की भी फुर्सत शायद किसी के पास नहीं है. मैं फिर कहूँगा, अगर है और चिंतन चल भी रहा है, तो हम जैसों को कोई जानकारी नहीं है. ट्रेन यात्रा सुरक्षित बनाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए. ट्रेन समय से चलें, यह भी प्राथमिकता का विषय है. लोगों को पुख्ता सीट मिले, यह इंतजाम करना भी सरकार की जिम्मेदारी है. इसमें कोई बहाना भी नहीं चलेगा और न ही कोई बहाना बनाया जाना चाहिए. हम तकनीक की बात करते हैं. चाँद-सूरज की बात करते हैं. फिर एक सफ़र को सुरक्षित नहीं बना पाना यह हमारी अयोग्यता है. मैं उन परिवारों के साथ हूँ, जिन्होंने अपनों को इस ताजे रेल हादसे में खोया है. उनके जल्दी स्वस्थ होने की कामना करता हूँ, जो घायल हैं. सरकार से उम्मीद कर सकता हूँ कि वह सुरक्षित रेल सफ़र के लिए जरूरी सभी उपाय करेगी, वायदा नहीं. आमीन!

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