गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 65 / कानपुर शिल्प-विद्यालय

गणेश शंकर विद्यार्थी जी 
संसार में इस समय औद्योगिक उन्नति की लहर है. जो देश औद्योगिक उन्नति कर रहे हैं, उनकी चैन से गुजरती है. जो इस मैदान में पिछड़े हुए हैं-उनके पिछड़े हुए होने के कारण चाहे कुछ भी हो-उनके बच्चे, यदि आज अमीर हैं तो निश्चय है कल गरीब हो जाएंगे, और यदि आज गरीब हैं तो कल वे अपनी सड़ी से सड़ी आवश्यकता के लिए दूसरों का मुँह ताकेंगे.
हमारा देश इस मैदान के पिछड़े हुए देशों में से है. क्या वह सदा ही ऐसा था ? यह एक दुखदायी प्रश्न है. एक दिन था कि भारत के व्यवसाय और कारीगरी की धाक चीन, जापान से लेकर काहरा, रोमा, कार्डोवा आदि सभी तत्कालीन सभ्यता के केन्द्रों में थी. परन्तु, वह जमाना अब केवल नाम लेने भर को रह गया है. उठे हुए महल के कंगूरे गिर गए, और महल भी जमींदोज कर दिया गया. उस दर्दनाक कहानी के कहने की आवश्यकता नहीं है जो अपनी गोद में हमारे उत्थान और पतन का इतिहास छुपाये हुए है. हम वह नहीं हैं, जो कुछ हम थे, पर हम हैं, जो कुछ इस समय हैं. आवश्यकता है अपनी दशा के सुधारने की. यदि इस ओर ख्याल नहीं किया जाता, यदि अपनी सार्वदेशिक उन्नति में हम अपने व्यवसाय और कारीगरी की उन्नति के प्रश्न को स्थान नहीं देते, तो यह अत्यंत कठिन है कि 'लकड़ी काटने वाले और पानी खींचने वाले' के सिवा हम कुछ और कहला सकें.

देश का स्वास्थ्य-एक

वर्तमान समय विज्ञानं का युग है. सभी कामों में वैज्ञानिक उपायों का आश्रय ग्रहण किया जाता है. हाथ की कारीगरी वैज्ञानिक मशीनों के सामने नहीं ठहर सकी है. जिन देशों ने वैज्ञानिक उपायों का आश्रय नहीं ग्रहण किया, उनको बड़ी विपत्ति में पड़ जाना पड़ा. विदेशियों ने उनका व्यापार हथिया लिया और उनके हाथ के कारीगर हाथ पर हाथ रखे बैठे रह गए. उनका धन बाहर खिंचने लगा, उनके बच्चे भूखों मरने लगे. भारत की भी यही दशा हुई. अब यदि इस औद्योगिक महासंग्राम में भारत को जीवित बचना है, तो उसे वैज्ञानिक उपायों का आश्रय ग्रहण करना पड़ेगा. वह इसे ग्रहण भी कर चला. हम स्थान-स्थान पर वैज्ञानिक मशीनों की घोर गर्जना सुनने लगे हैं, हम औद्योगिक जन-संख्या की रचना देखने लगे हैं. पर, इतने से भी काम नहीं चलेगा. इस अवस्था में भी बाहर वालों ही का मुंह देखना पड़ता है. जब होशियार कारीगर की आवश्यकता पड़ती है, तब कारखाने वालों की नजर इंग्लैण्ड, जर्मनी और अमेरिका की ओर दौड़ती है. इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे देशी कारखानों में वे गोरे नौकर हैं, जो बड़े-बड़े शर्तनामों पर विदेशों से आकर काम करते हुए देखे जाते हैं. देश में ही ऐसे आदमी तैयार करने की सख्त जरूरत है.

कायदे की तलवार

देश वालों में तो आगे बढ़ने का माद्दा ही नहीं. इसमें उनका कसूर नहीं है. सब बातों पर विचार करते हुए हमें कहना पड़ता है कि उनकी आत्माएं दबी हुई हैं. सरकार इस प्रश्न पर कुछ सालों से विचार कर रही थी. बहुत से सोच-विचार और घुमाव-फिराव के पश्चात 1907 में नैनीताल में सर जॉन हिवेट के उद्योग से की गई एक सरकारी कांफ्रेंस में यह तय हुआ था कि संयुक्त प्रान्त के लिए एक शिल्प विद्यालय कानपुर में स्थापित किया जाय, जिसमें शकर, चमड़ा, तेजाब और सार रंगने, छींट बनाने, कागज बनाने आदि की रासायनिक शिक्षा दी जाय. कूता गया था कि इस काम के लिए आठ लाख खर्च होंगे. और फिर हर साल लगभग पौने तीन लाख का खर्च पड़ेगा. इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया था. परन्तु भारत सचिव लार्ड मारले ने इसे पुनर्विचार के लिए कहकर लौटा दिया कि बंगलौर में एक विज्ञानं विद्यालय है, क्या उससे लाभ नहीं उठाया जा सकता ? पुनर्विचार पर भी शिल्प विद्यालय का स्थापित होना आवश्यक समझा गया.

एंग्लो इण्डियन पत्रों में खलबली

इधर 1910 में सर जॉन हिवेट ने एक और प्रस्ताव रच डाला. वह पहिले प्रस्ताव से हल्का था. इसमें पाहिले साढ़े तीन लाख और फिर बाद में 83 हजार रुपये हर साल का खर्चा था. इसे भारत सचिव ने मंजूर भी कर लिया. पर, बीच में इधर-उधर से इस प्रस्ताव की असफलता की ऐसी-ऐसी आशंकाएं उठ पड़ीं कि सारी बात खटाई में पड़ गई और व्यावहारिक रूप से कुछ भी काम न हुआ. 6 अप्रैल 1915 को, प्रान्तिक कौंसिल में डॉ. तेज बहादुर सप्रू ने एक प्रस्ताव पेश किया कि उपरोक्त शिल्प विद्यालय का काम शीघ्र ही आरम्भ कर दिया जाय. उन्होंने उसके विषय में असफलता की आशंका करने वालों को मुंह तोड़ उत्तर दिया. संतोष की बात है कि सरकार ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और आशा की जा सकती है कि शिल्प विद्यालय का काम शीघ्र ही आरम्भ हो जाएगा. यद्यपि, बात बहुत देर में सुनी गई, पर सुनी तो गई. इसीलिए हम प्रान्तिक सरकार को धन्यवाद देते हैं. प्रान्त-प्रान्त में ऐसे विद्यालय की आवश्यकता है, और हम चाहते हैं कि अन्य प्रान्तिक सरकारें भी इस विषय में संयुक्त प्रान्त की सरकार से पीछे न रहें.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 12 अप्रैल 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ था. 

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