जल्दबाजी का नहीं,लम्बी प्लानिंग का हिस्सा है नोटबंदी


मैं मामूली पत्रकार हूँ. अर्थशास्त्र की कोई समझ नहीं है मुझे. मोदी या राहुल भक्त भी नहीं हूँ मैं. संभव है कि मैं गलत होऊं पर, एक बात समझ आ रही है कि नोटबंदी, कैशलेस भारत या लेस कैश भारत की परिकल्पना अचानक नहीं की गई है. रिजर्व बैंक या सरकार की ओर से आठ नवम्बर के बाद आये दिन नए-नए आदेश यूं ही नहीं आते रहे. यह सब कुछ तय शुदा कार्यक्रम चल रहा है.
मंगलवार को जब वित्त मंत्री अरुण जेटली करों में बढ़ोत्तरी की बातें कर रहे थे, तो साफ हो रहा था कि सब कुछ तय कार्यक्रम के हिसाब से ही चल रहा है. आम आदमी मानकर चल रहा है कि नोटबंदी के बाद हर रोज आने वाले निर्णय के पीछे जल्दबाजी में लिया गया फैसला है. असल योजना शायद यह थी कि पहले कैश बैंकों में जमा कराओ. फिर कैशलेस भारत या लेस कैश भारत की बात करो. इलेक्ट्रानिक पेमेंट पर मिलने वाली चटनी बराबर छूट भी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है.
मेरा मत है कि बड़े पैमाने पर जनधन खाते खोलना भी कहीं कहीं इसी नीति का हिस्सा था. इसका खुलासा अभी होना बाकी है, क्योंकि जनधन खातों में भी बहुत बड़ी रकम जमा हुई है, जो सारी उनकी तो नहीं है, जिनके खातों में है.
बड़े लोगों की बात छोड़ दें तो देश की आम आबादी कैश लेस हो चुकी है. उसके खाते में पैसे हैं लेकिन बैंक में नहीं. एटीएम से दो हजार निकल रहे हैं. उसकी जरूरत ज्यादा की है तो वह बैंक से 24 हजार ले सकता है, ऐसा दावा सरकार और बैंक दोनों कर रहे हैं, पर ऐसे खुशनसीब लोगों की संख्या कम ही है, जिन्हें बैंक से या रकम मिल गई हो. संभव है कि करेंसी चेस्ट से बैंकों को भर-पूर रकम मिल रही हो, पर आम लोगों को तो नहीं मिल पा रही. बड़ी मात्रा में देश भर से नए नोट की बरामदगी भी तो यही बताती है कि बैंकर शर्तिया गड़बड़ कर रहे हैं. नहीं तो भला करोड़ों रुपये के नए नोट कैसे बरामद हो रहे हैं.
अपनी इस पहल से सरकार ने घरों में रखी लाख-पचास हजार की नगदी तक बैंक में जमा करवा दी और बैंक से पैसे निकालने पर किसी हद तक पाबन्दी लगा दी. यह तो तय है कि आदमी अपना काम तो करेगा. ऐसे लोग जिनके पास सुविधा है वे क्रेडिट, डेबिट कार्ड से काम चला रहे हैं. बैंकों में अब भीड़ कम हो चली है. एटीएम में या तो पैसे नहीं है या फिर लाइन लगी हुई है.
 यह लाइन जल्दी ख़त्म हो रही है, क्योंकि पैसे ख़त्म हो रहे हैं.कल्पना कीजिए कि शहरी आम आदमी तो सरकार से अब कुछ छिपा नहीं सकता. वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर जब आप का लेखा-जोखा बनेगा, तो पता चलेगा कि 100-50 रुपए का जो हिसाब आप रखते ही नहीं थे, वह इलेक्ट्रानिक पेमेंट की वजह से बैंक रखने लगेंगे. छिपाना किसी के बूते में नहीं रहेगा. तय मान लीजिए कि अरुण जेटली जी सही बोल रहे हैं, कि टैक्स बढ़ेगा.
जीडीपी जो भी, देश की आर्थिक रफ़्तार की बात भी मैं नहीं कर रहा, पर, शहरी आदमी सरकार के रडार पर आ गया. अगले एक साल तक कालाधन के संचालक भागते-फिरेंगे, चाहे वे कितने भी बड़े हों. जब मोदी जी 50 दिन और जेटली जी तीन महीने की तंगी की बात करते हैं, तो उसमें गलत कुछ भी नहीं. यह तंगी रहने वाली है. चिदंबरम साहब ने सात-आठ महीने तंगी की बात की है, यह सारी बातें सच हैं. इनसे इनकार करना बेमानी होगी.
नोटबंदी के 10-15 दिन बाद तक तो मैं भी यही सोचता था कि प्रधानमंत्री को उनके लोगों ने गुमराह किया. पूरी बात नहीं बताई. नोट छापने लगने वाले समय को छिपा लिया..आदि..आदि. पर, अब मैं मानकर चल रहा हूँ और मुतमईन हूँ, कि सब कुछ तय कार्यक्रम के हिसाब से ही चल रहा है. दिक्कतें अभी बनी रहेंगी, लेकिन काम नहीं रुकेगा. आप विवश होकर इलेक्ट्रानिक पेमेंट सिस्टम को अपना लेंगे. और जैसे ही यह आप शुरू करते हैं, सरकार का काम आसान हो जाएगा. सरकारी कार्यक्रमों से आधार कार्ड को जोड़ने का काम पहले से ही चल रहा है.

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