दुनिया से विदा लेने वाले पर्यावरणविद अनुपम मिश्र अब केवल यादों में बसेंगे

अनुपम मिश्र : फ़ाइल फोटो साभार
सुबह अख़बारों के पन्ने पलटते हुए यह खबर आई. यह तो नहीं कह सकता कि मैं उन्हें ठीक से जानता था, पर हाँ, एक बार मिलने का अवसर जरुर मिला. उस समय पर्यावरण के प्रति उनका लगाव, जलसंरक्षण के प्रति उनका अनुराग मुझे भा गया. पहली ही मुलाकात में उनसे मिला प्यार भी मैं कभी नहीं भूल सकता. फिर मिलने के वायदे के साथ मैं विदा लेकर वहां से निकला, फिर दोबारा मिल नहीं सका और सुबह उनके निधन की खबर ने हमें झकझोर दिया. 
जी हाँ, मैं जाने-माने गांधीवादी, पत्रकार, पर्यावरणविद् और जल संरक्षण के लिए अपना पूरा जीवन लगाने वाले अनुपम मिश्र की ही बात कर रहा हूँ, जो सोमवार हमेशा-हमेशा के लिए हमें छोड़ चले गए. दिल्ली के एम्स में उन्होंने अंतिम साँस ली. वे 68 बरस के थे. उनके निधन की खबर फैलते ही उनके तमाम प्रशंसक दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में जुटना शुरू हो गए.
कापी लिखे जाने तक श्री मिश्र के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी. दिल्ली के निगम बोध घाट पर यह कार्यक्रम तय है. हिंदी के प्रख्यात कवि, लेखक भवानी प्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम बीते एक बरस से प्रोस्टेट कैंसर से जूझ रहे थे.
विकास की तरफ़ बेहताशा दौड़ते समाज को कुदरत की क़ीमत समझाने वाले अनुपम ने देश भर के गांवों का दौरा कर रेन वाटर हारवेस्टिंग के गुर सिखाए. 'आज भी खरे हैं तालाब', 'राजस्थान की रजत बूंदें' जैसी उनकी लिखी किताबें जल संरक्षण की दुनिया में मील के पत्थर की तरह हैं. उन्हें साल 1996 में मिश्र को इंदिरा गांघी पर्यावरण पुरस्कार से भी नवाज़ा गया. अनुपम मिश्र की विदाई से लोग शोक-संतप्त हैं और सोशल मीडिया के ज़रिए संवेदनाएं जता रहे हैं. स्वानंद किरकिरे ने लिखा, "देश प्रेम के इस उन्मादी दौर में जब विकास के नाम पर सिर्फ विनाश की मूर्खतापूर्ण होड़ लगी है, आपका जाना हमें सही अर्थों में अनाथ कर गया."

अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में श्रीमती सरला मिश्र और प्रसिद्ध हिंदी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के यहां सन 1948 में हुआ था. पर्यावरण-संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने और सरकारों का ध्यान आकर्षित करने की दिशा में वह तब से काम कर रहे थे, जब देश में पर्यावरण रक्षा का कोई विभाग भी नहीं खुला था. उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त राजस्थान के अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ, जिसे दुनिया ने देखा और सराहा. सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन में उनकी कोशिश काबिले तारीफ रही है. इसी तरह उत्तराखंड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में उन्होंने अहम काम किया.

उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से 1968 में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन किया. दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष की स्थापना की. वह इस प्रतिष्ठान की पत्रिका 'गांधी मार्ग' के संस्थापक और संपादक भी रहे. उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्त्वपूर्ण काम किया. वे साल 2001 में दिल्ली में स्थापित सेंटर फॉर एनवायरमेंट ऐंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं. 
चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिए सहयोग किया था. वह जल-संरक्षक राजेन्द्र सिंह की संस्था तरुण भारत संघ के भी लंबे समय तक अध्यक्ष रहे. पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' के लिए साल 2011 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया. साल 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार 'इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार' से भी सम्मानित किया जा चुका है.

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