लाखों की नौकरी छोड़ गरीब बच्चों को पढ़ाने वाली इस बेटी पर कौन न गर्व करे !
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गरिमा विशाल और उनके स्कूल के बच्चे: फोटो साभार |
'प्रभात खबर' के मुताबिक स्कूल के बारे में पूछते ही गरिमा के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ जाती है. कहती हैं, कहां से बताना शुरू करूं, चलिये मैं अपनी पढ़ाई से शुरुआत करती हूं. मेरे पिता रजिस्टार हैं, उनके ट्रांसफर के हिसाब से मेरी पढ़ाई के शहर बदलते गये. हजारीबाग के इंदिरा गांधी बालिका विद्यालय से मैंने पढ़ाई की, उसके सीतामढ़ी के स्कूल में पढ़ी. हाइस्कूल मैंने पटना के बीडी पब्लिक स्कूल से किया. इसके बाद केंद्रीय विद्यालय, पटना से 12वीं की पढ़ाई की. इसके बाद मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से बी. टेक किया. वहीं से कैंपस सेलेक्शन इंफोसिस में हुआ था. नौकरी के दौरान ही हमने एमबीए करने की सोची और तैयारी शुरू की. मेरा सेलेक्शन आईआईएम लखनऊ में हो गया. वहां मैंने फिर से पढ़ाई शुरू की. आईआईएम से भी मेरा कैंपस सेलेक्शन गुड़गांव में जेडएस नाम के मल्टीनेशनल कंपनी में हुआ.
गरिमा बताती है कि मैंने गुड़गांव में काम करना शुरू किया. बहुत अच्छी नौकरी चल रही थी, लेकिन इस बीच मेरे पति विशाल, जो उस समय तक मेरे दोस्त थे, उन्होंने मुझे प्रेरित किया कि मैं वही करूं, जो मुझे अच्छा लगे.
इसके बाद हमने अपने दोस्तों से बात शुरू की. काफी रिसर्च किया, क्योंकि ये क्षेत्र मेरे लिये बिल्कुल नया था, लेकिन पढ़ाई तो मेरे दिल के करीब थी. मैं जब इंफोसिस में काम कर रही थी. उस समय मेरी पोस्टिंग भुवनेश्वर में थी. हम एक दिन ऑटो से जा रहे थे. उसमें एक गुजराती परिवार बैठा, जिसके बच्चे हिंदी में अच्छी बात कर रहे थे. मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछ लिया कि ये बच्चे किस स्कूल में पढ़ते हैं, तो उन लोगों ने बताया कि ये पढ़ते नहीं है, क्योंकि यहां के सरकारी स्कूलों में उड़िया पढ़ाई जाती है, जबकि निजी स्कूल में पढ़ाने के लिए ज्यादा पैसा चाहिए, जो खर्च हम लोग वहन नहीं कर सकते हैं.
गरिमा बताती हैं कि मैंने इसके बाद मैंने उन बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. वो फेरी लगाकर सामान बेचनेवाले परिवार से थे. उससे पहले वो अपने मां-पिता के साथ ही रहते थे. हमने उन्हें पढ़ाना शुरू किया, तो उनकी स्थिति बदलने लगी. समय के लिए मैंने ऑफिस में बात की, तो उन्होंने मुझे ड्यूटी का समय बदलने की छूट दे दी. मैं सुबह सात बजे से बच्चों को पढ़ाती थी और उसके बाद दस बजे ऑफिस जाती थी. वहां मेरी क्लास में 30 बच्चे हो गये थे, जब मुझे आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ जाना पड़ा, तो हमने काफी मेहनत करने के बाद उन बच्चों का विभिन्न स्कूलों में दाखिला करवाया. इसमें जो खर्च आया, उसको मैंने उठाया. महीने की फीस का जिम्मा उनके माता-पिता को दिया. गरिमा कहती हैं कि पढ़ाई का जो काम मैं भुवनेश्वर में कर रही थी. वही यहां भी कर रही हूं. बस अब जिम्मेवारी बदल गयी है, लेकिन इसमें काफी मजा आ रहा है, क्योंकि ये मेरी पसंद है.
गरिमा के स्कूल में इस समय एक सौ बच्चों को पढ़ाने के लिए सात शिक्षकाएं हैं, जो बच्चों की उनकी रुचि के मुताबिक पढ़ाई करवाती हैं. गरिमा बताती हैं कि मैंने अपने स्कूल में ज्यादातर उन महिलाओं को रखा है, जो शादीशुदा हैं और पढ़ी-लिखी हैं. इसके पीछे वजह यह है कि शादी के बाद खुद के घर के कामों में लगा देनेवाली महिलाओं को टैलेंट को मरने नहीं देना है. दूसरी बात ये है कि जिन महिलाओं के अपने बच्चे होते हैं, वो बच्चों को अच्छी तरह से समझती हैं. बच्चे को किस चीज की जरूरत है. वह उनके हाव-भाव से जान जाती हैं. गरिमा बताती हैं कि शिक्षाकाओं की हम लोगों ने पहले ट्रेनिंग की. उन्हें बताया कि किस तरह से पढ़ाना है. उसके बाद उन्हें पढ़ाई में लगाया.
वह कहती हैं कि मेरे स्कूल में शिक्षिकाओं की ट्रेनिंग चलती रहती है. साथ ही बच्चों की रूचि को देख कर ही हम उसे प्रेरित करते हैं. बच्चों के दिमाग का विकास तीन से पांच साल के बीच ज्यादातर होता है. ये उनके लिए काफी महत्वपूर्ण समय होता है. इसलिए हम लोग बच्चों की स्किल का विशेष ख्याल रखते हैं. साथ ही हम किस तरह से पढ़ाते हैं, इसके बारे में हम बच्चों के माता-पिता को भी बताते हैं, ताकि उन्हें इस बात की जानकारी रहे कि उनका बच्च क्या कर रहा है. वह कहती हैं कि दो साल में ऐसी स्थिति हो गयी है कि जिन बच्चों के माता-पिता अनपढ़ हैं. वो अंग्रेजी में बोलते हैं.
गरिमा बताती हैं कि हम बच्चों के साथ उनके माता-पिता को भी सिखाते हैं. टेक्निकल ट्रेनिंग देते हैं. अगर किसी के पास स्मार्ट फोन है और वो चलाना नहीं जानता है, तो हम लोग उसके बारे में बताते हैं. इ-मेल व फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर कैसे अपना आइडी क्रियेट करना है. इसकी जानकारी अभिभावकों को देते हैं, ताकि वो दुनिया से खुद को कनेक्ट कर सकें.
गरिमा बताती हैं कि मैंने इसके बाद मैंने उन बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. वो फेरी लगाकर सामान बेचनेवाले परिवार से थे. उससे पहले वो अपने मां-पिता के साथ ही रहते थे. हमने उन्हें पढ़ाना शुरू किया, तो उनकी स्थिति बदलने लगी. समय के लिए मैंने ऑफिस में बात की, तो उन्होंने मुझे ड्यूटी का समय बदलने की छूट दे दी. मैं सुबह सात बजे से बच्चों को पढ़ाती थी और उसके बाद दस बजे ऑफिस जाती थी. वहां मेरी क्लास में 30 बच्चे हो गये थे, जब मुझे आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ जाना पड़ा, तो हमने काफी मेहनत करने के बाद उन बच्चों का विभिन्न स्कूलों में दाखिला करवाया. इसमें जो खर्च आया, उसको मैंने उठाया. महीने की फीस का जिम्मा उनके माता-पिता को दिया. गरिमा कहती हैं कि पढ़ाई का जो काम मैं भुवनेश्वर में कर रही थी. वही यहां भी कर रही हूं. बस अब जिम्मेवारी बदल गयी है, लेकिन इसमें काफी मजा आ रहा है, क्योंकि ये मेरी पसंद है.
गरिमा के स्कूल में इस समय एक सौ बच्चों को पढ़ाने के लिए सात शिक्षकाएं हैं, जो बच्चों की उनकी रुचि के मुताबिक पढ़ाई करवाती हैं. गरिमा बताती हैं कि मैंने अपने स्कूल में ज्यादातर उन महिलाओं को रखा है, जो शादीशुदा हैं और पढ़ी-लिखी हैं. इसके पीछे वजह यह है कि शादी के बाद खुद के घर के कामों में लगा देनेवाली महिलाओं को टैलेंट को मरने नहीं देना है. दूसरी बात ये है कि जिन महिलाओं के अपने बच्चे होते हैं, वो बच्चों को अच्छी तरह से समझती हैं. बच्चे को किस चीज की जरूरत है. वह उनके हाव-भाव से जान जाती हैं. गरिमा बताती हैं कि शिक्षाकाओं की हम लोगों ने पहले ट्रेनिंग की. उन्हें बताया कि किस तरह से पढ़ाना है. उसके बाद उन्हें पढ़ाई में लगाया.
वह कहती हैं कि मेरे स्कूल में शिक्षिकाओं की ट्रेनिंग चलती रहती है. साथ ही बच्चों की रूचि को देख कर ही हम उसे प्रेरित करते हैं. बच्चों के दिमाग का विकास तीन से पांच साल के बीच ज्यादातर होता है. ये उनके लिए काफी महत्वपूर्ण समय होता है. इसलिए हम लोग बच्चों की स्किल का विशेष ख्याल रखते हैं. साथ ही हम किस तरह से पढ़ाते हैं, इसके बारे में हम बच्चों के माता-पिता को भी बताते हैं, ताकि उन्हें इस बात की जानकारी रहे कि उनका बच्च क्या कर रहा है. वह कहती हैं कि दो साल में ऐसी स्थिति हो गयी है कि जिन बच्चों के माता-पिता अनपढ़ हैं. वो अंग्रेजी में बोलते हैं.
गरिमा बताती हैं कि हम बच्चों के साथ उनके माता-पिता को भी सिखाते हैं. टेक्निकल ट्रेनिंग देते हैं. अगर किसी के पास स्मार्ट फोन है और वो चलाना नहीं जानता है, तो हम लोग उसके बारे में बताते हैं. इ-मेल व फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर कैसे अपना आइडी क्रियेट करना है. इसकी जानकारी अभिभावकों को देते हैं, ताकि वो दुनिया से खुद को कनेक्ट कर सकें.
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