केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के बयान पर हंगामा क्यों ?
केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने नोटबंदी के बाद देश में नसबंदी की जरुरत बताई तो वे बहुतों के निशाने पर आ गए. सोशल मीडिया पर उनके बयान की भर्त्सना की जा रही है.
उनकी बात को अगर हम राजनीतिक चश्मे से न देखें तो ऐसी कोई बहुत ख़राब बात नहीं की है गिरिराज जी ने, जिस पर हाय-तौबा मची है.
मैं व्यक्तिगत तौर पर न तो गिरिराज सिंह को कभी मिला हूँ, न ही उन्हें ठीक से जानता हूँ.
मैं उन्हें एक कट्टर हिंदूवादी नेता के रूप में देखता, सुनता और पढ़ता आ रहा हूँ. मैं भारतीय जनता पार्टी का सदस्य भी नहीं हूँ. फिर भी मुझे लगता है कि इस बार उन्होंने कोई गलत बात नहीं की है.
हमारे देश की आबादी निश्चित ही बहुत तेजी से बढ़ रही है. अभी जिस भारत को हम नौजवानों का देश बता रहे हैं, बाद में यही भारत बुजुर्गों का देश भी कहा जाएगा. संभव है किसी के लिए आबादी बढ़ने के बहुत फायदे हों, पर बढ़ती जनसँख्या देश के हित में तो नहीं है.
हमें यह भी याद रखना होगा कि आज के 41 साल पहले इंदिरा गाँधी ने नसबंदी का फैसला यूँ ही तो नहीं लिया था. उन्होंने उस समय आज और 10-20 साल आगे के भारत और उसकी भयावहता देख ली थी.
यद्यपि, यह मामला, नियम-कानून से ज्यादा जागरूकता का है. पर, जो लोग किन्हीं कारणों से जागरूक होने को तैयार नहीं है, उनके लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा.
इंदिरा गाँधी की 1977 के चुनाव में हुई दुर्दशा देखने के बाद ऐसी हिमाकत शायद ही कोई राजनीतिक दल या सरकार कर पाए. पर, सच को सच की तरह स्वीकार तो करना ही पड़ेगा.
देर-सबेर, किसी न किसी को तो बिल्ली के गले में घंटी बांधनी ही होगी.
यह समझना जरुरी हो चला है कि हमारे पास न तो पढ़ने के लिए पर्याप्त स्कूल हैं, न ही कालेज. न ही इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कालेज. अस्पताल और डॉक्टरों की भी भारी कमी है.
और ये कमी केवल इसलिए है क्योंकि हमारे पास न तो पर्याप्त धन है और न ही इच्छा-शक्ति.
अब अगर आबादी पर भी काबू नहीं पाया गया तो ये सारी समस्याएं और तेजी से बढ़ेंगी. मैं आंकड़ों में नहीं जाना चाहता लेकिन जो मोटा-मोटा दिखाई दे रहा है, उसमें किसी भी देश की तरक्की पानी, बिजली, सड़क, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, पर्यावरण, उद्योगों आदि के आसपास ही सिमटी हुई है.
गाँव के गाँव उजड़ते जा रहे हैं. जानते हैं क्यों ? क्योंकि वहां न तो बच्चों के लिए स्कूल-कालेज हैं और न ही सूई लगाने के लिए अस्पताल और डाक्टर. इसीलिए शहरी आबादी भी तेजी से बढ़ रही है.
दिल्ली हो मुंबई या फिर छोटे शहर, कस्बे. सब बेतरतीबी से बढ़ते जा रहे हैं. कहीं कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है.
देश का हर पढ़ा-लिखा आदमी, चाहे वह हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिख हो या फिर ईसाई. सब इस समस्या से वाकिफ हैं. इसका इलाज हो भी जाता लेकिन देश वैचारिक तौर पर खण्ड-खण्ड दिखता है. सभी चीजें, फैसले राजनीतिक चश्मे से ही देखे जा रहे हैं.
राजनीतिक दलों ने जातियों के हिसाब से समाज को अपने-अपने हिसाब से अपने-अपने हिस्से में रख लिया है. स्वाभाविक है जो जिसके हिस्से में है, वह उसी चश्मे से हर फैसले को देखता है. नसबंदी का फैसला भी वैसे ही अलग-अलग चश्में से देखा-सुना-समझा जा रहा है.
इसीलिए दिक्कतें हैं. अन्यथा उन्होंने बिल्कुल सही कहा है कि भारत में हर साल एक आस्ट्रेलिया बसता है. हमारे पास संसाधन कम हैं. आबादी को काबू में करने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. अब वह चाहे हम खुद करें या फिर कानूनी तरीके से हो.
ढेरों असहमतियों के बीच मैं आबादी को काबू करने के मामले में चीन की सराहना करना चाहता हूँ. जब उसने इतने सख्त कदम उठाये तब तो आबादी का यह हाल है तो अपने भारत को खुद के बारे में जरुर सोचना होगा.
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