डॉ शंखधर से मुलाकात वर्षों से है, पर कवि डॉक्टर से तो अभी मिला
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बाएं से दायें पिता-पुत्र डॉ. एलके शंखधर, डॉ क्षितिज शंखधर |
पर, मैं इन पिता-पुत्र की काव्य रचना कला से रविवार वाकिफ हुआ. मुझे अफ़सोस है कि मैं अब तक उनकी इस रचनाधर्मिता से क्यों नहीं परिचित हो पाया. खैर, दो चिकित्सकों की रचनाधर्मिता पर बात करना चाहूँगा. झंझावात- भावों का, के जरिए दोनों ही चिकित्सकों ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा. वहां मौजूद लोग भी भौचक थे, उनमें मैं भी था. जब डॉ शंखधर ने मुझे आमंत्रित किया तो मुझे लगा कि मधुमेह की कोई नई रचना का विमोचन कार्यक्रम होगा. पर, यह क्या, यहाँ तो काव्य धारा बह चली.
दोनों पिता-पुत्र ने एक ही किताब में अपनी रचना को पिरोया है. पर, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है. सोच, विचार, भाषा, सब कुछ. एक ने माँ को याद करके खुद रोया तो दूसरे ने उसी मंच से मौजूद लोगों को हंसाया भी. दोनों कवियों की दो-दो लाइनें...पहले पिता डॉ एलके शंखधर की माँ को याद करती कविता..आप महसूस करेंगे तो पता चलेगा कि डॉ शंखधर का बचपन कैसा था..और कैसे उन्होंने अब तक की यात्रा तय की..
कितनी मुश्किल से पाला माँ, कितनी डगमग नाव बढ़ी
कई बार तो भीग गए हम, कई बार थी मौत खड़ी
होली और दीवाली पर जब, तंगी हमें सताती थी
डिब्बे-रद्दी बेच हमें माँ! तू कैसे बहलाती थी
बिखरता कुनबा, कन्या रत्न, बाबू जी का देहावसान, हमारा भारत कैसा हो, जैसे शीर्षकों से लिखी कविताओं में वे देश, समाज, अपने पूज्य माता-पिता, सभी को न केवल याद करते हैं, बल्कि एक सपना भी संजोते हैं.
इसके ठीक विपरीत डॉ क्षितिज की लेखनी देखिए, कैसे मौजूदा व्यवस्था पर करारा व्यंग करती है...
देसी बाबू
पान चबावत फिरैं, चाय को तरसैं ऐसो
मंदिर के बाहर बैठे, कंकालन जैसो
जस कंकालन फिरैं, देर से ऑफिस पहुंचे
अफसर से न डरायं, रपट कर भौंवे एचें
बड़े-बड़े नाच जायं पड़ें जब उसके काबू
एक 'नोट' में काम बिगारै, देश को बाबू
क्षितिज ने व्यंग के जरिए ही समाज के विभिन्न हिस्सों पर अपनी नजर डाली है...
इनके शीर्षक हैं..पुलिस वाला, नेता, नेता का चमचा, शंकर जी का धुम्रपान और मधुमेह में मिष्ठान आदि..
मेरी दुआ कि ये डॉक्टर पिता-पुत्र यूँ ही मरीजों का इलाज करते हुए अपनी रचनाधर्मिता को बढ़ाते रहें. माँ सरस्वती इनकी मदद करें. आमीन
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