यूपी का अगला खेवनहार कौन, तस्वीर अभी तक साफ नहीं, आप भी जानिए क्यों ?


अब जब उत्तर प्रदेश में चुनावी बिगुल बज चुका है तो यह जानना बेहद रोचक होगा कि कौन सा राजनीतिक दल कहाँ खड़ा है. किस दल की तैयारी बेहतरीन है तो किसकी कमजोर दिख रही है. मुकाबले में कौन रहेगा और कौन मुकाबले से बाहर दिख रहा. अगर पूरे सीन पर नजर डालें तो सत्तारूढ़ सपा अंदरूनी झगड़ों की वजह से तो कांग्रेस अकेले पड़ने की वजह से कमजोर हैं. बसपा ने प्रत्याशियों की सूची जारी करके बढ़त बना ली है तो कांग्रेस और भाजपा इस मसले में अभी पीछे हैं. सपा ने सूची जारी कर दी लेकिन अभी वह झगड़े में है, क्योंकि पिता-पुत्र ने अलग-अलग सूची जारी की है. और यह तय नहीं है कि असली सूची कौन है. कुल मिलाकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है.
समाजवादी पार्टी
सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी वैसे तो आगे चल रही थी लेकिन अब वह तैयारी के मामले में पिछड़ चुकी है. क्योंकि यह दल पिता-पुत्र के झगड़े में बंट गया है. दोनों ने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं. दोनों चुनाव आयोग की शरण में साइकिल चुनाव चिन्ह के लिए पहुँच चुके हैं. जब तक यह नहीं तय हो जाता कि चुनाव दोनों गुट लड़ेंगे या एक, तब तक सूची अंतिम नहीं मानी जाएगी. चुनाव चिन्ह का लफड़ा आयोग को सुलझाना है. यह सत्य है कि मुख्यमंत्री अखिलेश का कद बढ़ा है. वे विकास की बात करके, अपराधीकरण का विरोध करके आगे जा चुके हैं, लेकिन झगड़ा नहीं निपटा तो दिक्कत आएगी. जानकार तो यह भी कह रहे हैं कि अब सपा एक ही सूरत में बेहतर करेगी, जब उसका कांग्रेस, लोकदल से समझौता हो पाएगा. अखिलेश इसके पक्ष में हैं लेकिन पहले घर का झगड़ा निपटाना उनकी पहली चुनौती है.
बसपा 
बहुजन समाज पार्टी राज्य का मुख्य विपक्षी दल है. 2007 में मायावती ने अपने दम पर बीएसपी की सरकार बनाई और पांच साल तक सफलतापूर्वक चलाई भी. राज्य विधानसभा में इस समय पार्टी के पास भले ही 80 सीटें हों लेकिन 2007 के चुनाव में पार्टी ने 403 सीट वाली विधानसभा में 206 सीटें जीती थीं. मायावती के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने दलित और मुस्लिम वोटों को एकजुट रखना है. 
2012 के चुनाव में मायावती की हार की बड़ी वजह मुस्लिम वोटों का उनसे खिसककर मुलायम के पाले में चले जाना बताया गया था. लोकसभा चुनाव में भी दलित वोट तो माया के साथ रहा लेकिन मुस्लिम वोटों के बंटवारे से उन्हें एक भी सीट राज्य में नहीं मिली. मायावती लगातार मुस्लिमों को संकेत दे रही हैं कि सपा अंतर्कलह से जूझ रही है इसलिए वही सांप्रदायिक शक्तियों से मुकाबला करने मे सक्षम हैं. सवाल ये है कि क्या मुस्लिम उनकी बात मानेंगे?

कांग्रेस
किसी समय देश और प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस यूपी में दुर्दशा की शिकार है. पिछले कई विधानसभा चुनावों से वोटर उसे तवज्जो नहीं दे रहे हैं. 2007 में उसे 22 तो 2012 में महज 28 सीटें मिली थीं. इस बार कांग्रेस पहली पार्टी थी जिसने जोरशोर से इसकी तैयारियां शुरू कीं. रणनीतिकार प्रशांत किशोर को यूपी में जीत दिलाने का जिम्मा दिया गया. 15 साल तक दिल्ली पर राज करने वाली शीला दीक्षित को पूरे गाजे-बाजे के साथ सीएम कैंडीडेट घोषित किया गया. इससे पहले संगठन में फेरबदल कर निर्मल खत्री की छुट्टी की गई और राजबब्बर जैसे चर्चित चेहरे को प्रदेश में कांग्रेस का भविष्य सुधारने का जिम्मा दिया गया. राजाराम पाल, राजेश मिश्रा, भगवती प्रसाद और इमरान मसूद को उपाध्यक्ष बनाकर क्रमशः ओबीसी, ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम वोटरों को साधने की कोशिश की. लेकिन पार्टी को जल्द ही जमीनी हकीकत का अहसास हो गया और अब वो समाजवादी पार्टी से गठबंधन की राह देख रही है. पार्टी की कोशिश किसी तरह गठबंधन कर अपनी सीटें बढ़ाने और बिहार की तरह सत्ता में भागीदारी करने तक सिमट गई है.

भारतीय जनता पार्टी
भारतीय जनता पार्टी यूपी की तैयारियों में जोर-शोर से जुटी है और अब तक पार्टी से जो संकेत मिले हैं उसके मुताबिक इन चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही उसके स्टार प्रचारक होंगे. लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती है प्रत्याशियों की सूची. अब तक इस फ्रंट पर पार्टी ने भले ही अपना अंदरूनी काम पूरा कर लिया हो लेकिन जब भी वह पत्ते खोलेगी, उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार यह दल दूसरी पार्टियों से आने वाले लोगों को अपने साथ जोड़ता जा रहा है और सब इसी उम्मीद में जुड़ रहे हैं कि लोकसभा का परिणाम पार्टी विधान सभा चुनाव में भी दोहराएगी. कोई सीट ऐसी नहीं, जहाँ से कम से कम 10-25 उम्मीदवार न हों. कुछ सीटें ऐसी भी हैं, जहाँ दावेदारों की संख्या कहीं ज्यादा है. प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों से उसने अपने पक्ष में माहौल बनाना शुरू कर दिया है. पिछले दो विधानसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन बहुत खराब रहा था लेकिन लोकसभा चुनाव में 80 में से 73 सीटें जीतकर पार्टी ने इतिहास रच दिया था और उसका जोर अब उन्हीं नतीजों को विधानसभा चुनाव में दोहराने पर है लेकिन यह आसान नहीं दिखाई दे रहा है.

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