बच्चे कोरे कागज तो कौन लिख रहा इन पर गन्दी बातें

दिनेश पाठक

आचार्य विनोवा भावे जी ने कहा है-बच्चे मन के सच्चे, बाकी सब कच्चे| अन्य विद्वतजन भी कहते हैं-बच्चे कोरे कागज की तरह होते हैं| जो चाहो लिख दो, वह अमिट होता है| कोई कहता है कि बच्चे गीली मिट्टी हैं, आप इन्हें जो आकृति देना चाहें, दे सकते हैं| इसका मतलब साफ़ है कि हमारे बच्चे जब इस दुनिया में आते हैं, बिल्कुल ठीक स्थिति में होते हैं| उनके दिमाग में कचरा हम यहीं भरते हैं| इस तरह हमारी भावी पीढ़ी का कुछ बच्चा रास्ते से भटक जाता है और उसके कदम गलत दिशा में चल देते हैं| कुछ बहुत अच्छा करते हैं और देश-दुनिया को तरक्की पर ले जाते हुए नाम रोशन करते हैं|
स्वाभाविक है कि किसी भी बच्चे की पहली पाठशाला मम्मी-पापा की गोद ही है| फिर घर का आँगन, घर के अन्य सदस्य, पड़ोसी, मोहल्ले के लोग, नाते-रिश्तेदार आदि के बाद नंबर आता है स्कूल और टीचर्स का| तय है कि अगर यह कड़ियाँ आपस में बेहतरीन तरीके से जुड़ जाएँ या फिर जोड़ दी जाएँ तो हम एक बहुत बड़ी सामाजिक समस्या से निजात पा लेंगे| इस दिशा में सबको पहल करनी होगी| लगातार कोशिशों के बेहतर परिणाम हमेशा आते हैं, यहाँ भी आएंगे| पर, हमें इसे अपनी सोच में डालना होगा| यह भी समझना होगा कि इससे देश का तो बहुत फायदा है ही, घर-परिवार, मोहल्ले, शहर और राज्य में भी खुशियाँ होंगी| चारों ओर खुशहाली होगी| किसी को लग सकता है कि यह बहुत हाइपोथेटिकल बात है| मैं भी कहता हूँ कि है लेकिन मेरा अपना विश्वास है कि जब बच्चों को हम जाने-अनजाने बिगाड़ सकते हैं तो जान-बूझकर बना भी सकते हैं|
हम सबके जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब हमारा बच्चा तुलतुलाते हुए कुछ भी बोलता है तो हमें ख़ुशी होती है| फिर बच्चे की आवाज समय के साथ साफ़ होती है और कई बार अनजाने में हम उसे झूठ बोलने की ट्रेनिंग देते हैं| असल में कोई भी अभिभावक दिल से यह नहीं चाहता कि उसका बच्चा कोई गड़बड़ करे| किसी गलत संगत में पड़े| सब लोग चाहते हैं कि उनका बेटा-बेटी आसमान छू लें| पर, पहली से लेकर आगे की पाठशाला में कई बार निहित स्वार्थों में हम अपनी संतानों के साथ कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो आगे चलकर उसे गलत रास्ते पर ले जाता है| जब घर में शांति के लिए हम बच्चे को ढिशुम-ढिशुम वाले गेम मोबाइल में लगा कर दे देते हैं और बच्चा चुप होकर खेलने लगता है तो हम हिंसक बनाने की पहली सीढ़ी चढ़ा रहे होते हैं| धीरे-धीरे उसकी आदत बन जाती है| फिर जब वह अपने पैरों पर चलते हुए मोहल्ले के पार्क में जाता है तो उसी तरह का कुछ अपनाने की कोशिश करता है| कई बार उसे चोट लगती है| कई बार वह किसी को चोट पहुँचाता और खुश भी होता है| कई बार इसी चक्कर में दो परिवार आमने-सामने होते हैं और फिर तो थाना-पुलिस, कोर्ट-कचहरी सब कुछ शुरू होता है जो फिर कई बार अंतहीन सिलसिले की ओर बढ़ जाता है तो कई बार समझदारी से कुछ दिन में ख़त्म भी हो जाता है|
आज समाज में बाल अपराध बढ़ रहे हैं| आये दिन नाबालिग बच्चे संगीन अपराधों में भागीदारी करते पाए जा रहे हैं| उस समय लोग, मम्मी-पापा सब परेशान होते हैं| खुद से सवाल भी करते हैं कि आखिर उनसे कहाँ चूक हो गई, जो हमें पता ही नहीं चला और मेरा बच्चा जेल की सलाखों के पीछे पहुँच गया| मेरा मानना है कि आधुनिकता की दौड़ में शामिल रहते हुए हमें अपने मूल्यों की रक्षा करनी होगी| भारतीय संस्कृति को वापस लाना होगा| बच्चों पर सकारात्मक सोच के साथ ध्यान देना होगा| शार्टकट से बचना होगा| दादा-दादी, नाना-नानी के रिश्तों को जीना होगा| आपको ध्यान होगा कि जब ये रिश्ते थे तो बच्चे पल जाते थे और पता भी नहीं चलता था| किसी गड़बड़ी पर मोहल्ले के चाचा हमारे बच्चे के साथ सख्ती करते हुए डरते नहीं थे| पर, आज वह डरते हैं| क्योंकि मामूली नासमझी की वजह से ऐसे चाचा को जेल जाने में भी देर नहीं लग रही| मेरा अनुरोध सिर्फ इतना है कि बेहद करीब आ चुकी दुनिया में बस थोड़ा सा सावधानी ही हमारे बच्चों को बचा सकती है| अगर हम अब भी नहीं संभले तो हालत और बिगड़ेंगे| और इसकी जिम्मेदारी किसी नेता, अफसर की नहीं होगी| क्योंकि इनकी भूमिका बहुत देर से आती है| अगर संस्कार रुपी बीज अच्छा है तो फसल भी अच्छी ही होगी और परिणाम भी|   

लेखक अपने अभियान 'बस थोड़ा सा' के जरिए भावी पीढ़ी, पैरेंट्स, टीचर्स और समाज के अन्य हिस्सों से संवाद बनते आ रहे हैं| अगर आपके मन में कोई सवाल है तो सीधे संपर्क कर सकते हैं-
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