घराट बचाने के उपाय क्यों नहीं

घराट. नाम कुछ लोगों ने सुना जरूर होगा. कई के लिए नया हो सकता है. मेरे लिए भी नया था चार साल पहले तक. फिर मैं इस नाम और इसकी कला से परिचित हो गया. घराट उत्तराखंड में बहुतायत पाए जाते हैं. पर इनकी संख्या अब कम होती जा रही है. एक अनुमान के मुताबिक 14-15 हजार घराट ही इस समय बचे हैं. लेकिन एक समय था कि इस राज्य में इनकी संख्या 70 हजार के आसपास थी. तब इसका इस्तेमाल केवल पिसाई के लिए किया जाता था. बाद में इनसे बिजली भी बनने लगी.
मैंने पहली दफा घराट पर्यावरणविद पद्मश्री अनिल जोशी के आश्रम में देखा. यह देहरादून से सटे हेस्को गाँव में है. इस घराट को पानी आश्रम के बगल से बहने वाली एक छोटी सी नदी से मिलता है. यह पानी आश्रम में आकर बिजली बनाता है फिर वापस नदी में चला जाता है. यहाँ प्रतिदिन ढाई किलोवाट बिजली का उत्पादन होता है. इस आश्रम में पर्यावरण की रक्षा के लिए बहुत कुछ है लेकिन आज केवल घराट की बात. जोशी जी ने देहरादून शहर में जीएमएस रोड पर भी दो छोटी परियोजनाएं लगा रखी हैं. दोनों मिलाकर 3.5 किलोवाट बिजली उत्पादन करती हैं. यहाँ घराट का असली काम अनाज पिसाई का भी होता है. यहाँ पानी की आपूर्ति सड़क किनारे बनी नाली से होती है. पहले नाली का पानी एक घराट में फिर वहां से निकल कर दूसरे घराट में जाता है. फिर यह पानी आगे निकल जाता है. जोशी जी बताते हैं कि अगर पानी की उपलब्धता है तो एक किलोवाट बिजली उत्पादन करने के लिए 50-60 हजार रुपये का खर्च आता है. दोनों परियोजनाओं को देखने के बाद मैं बेहद खुश था. असल में यह ख़ुशी इसलिए दोगुनी हो गई थी कि यहाँ जाने से पहले हिंदुस्तान अखबार ने उत्तराखंड के ऐसे कई कर्मयोगियों को सम्मानित किया था, जिन्होंने अपने-अपने काम से पूरे राज्य का ध्यान अपनी ओर खींचा था.
इसी कार्यक्रम में सम्मान पाने वाला एक नौजवान समय से आयोजन स्थल नहीं पहुँच पाया. तो वह सीधे हमारे कार्यालय आया. उस समय मैं देहरादून में हिंदुस्तान अखबार के स्थानीय संपादक की भूमिका में था. उस नौजवान ने टूटी-फूटी हिंदी में जो कुछ बयाँ किया, उसका सार यह था कि वह अपने गाँव से एक दिन पहले निकलने के बावजूद अगले दिन शाम तक देहरादून नहीं पहुँच पाया. टिहरी जिले के सुदूर इलाके में यह नौजवान इसी घराट के सहारे आसपास के कई गांवों को बिजली पहुँचाने का काम करता था. उस नौजवान को सम्मानित करने का कारण भी यही घराट था. जब यह नौजवान बिजली बनाने की प्रक्रिया बयाँ कर रहा था तो सुनते हुए मुझे लगा कि यह काम मुश्किल नहीं. तब ऐसी किसी परियोजना को देखने की मंशा से ही मैं जोशी जी के आश्रम पहुंचा. जोशी जी पहाड़, वहाँ के गाँव, पानी, जंगल के लिए सतत प्रयत्नशील हैं. जोशी जी बताते हैं कि सौ साल पहले हमारे पहाड़ों में घराटों की संख्या 70-75 हजार के आसपास थी. तब इससे आटा पिसाई का काम होता था. बाद में डीजल इंजन ने तबाही मचाई तो घराट धीरे-धीरे ख़त्म होने लगे.

कल जल पुरुष के नाम से विख्यात राजेंद्र जी से मुलाकात हुई तो उन्होंने भी छोटे बांधों की वकालत की. उन्होंने बाद में मंच से कहा कि बुंदेलखंड जैसे इलाके में छोटे बांध की जरूरत है. बड़े बांध उतने लाभकारी नहीं जितने छोटे. जब जल पुरुष या बात कर रहे थे तो मेरा मन उत्तराखंड चला गया. कारण कि इस छोटे से राज्य में अनेक बड़े बांध बने हैं. कुछ रोक दिए गए हैं. कुछ ने बिजली उत्पादन शुरू कर दिया है. पर, उत्तराखंड के पर्यावरणविद हमेशा से छोटे बांधों की वकालत करते आ रहे हैं. यह और बात है कि उन्हें सुनने की फुर्सत किसी पर नहीं है. विकास के नाम पर जल, जंगल, जमीन के सौदे वहाँ आम हैं. यह काम बड़े पैमाने पर तो सरकार ही कर रही है. मुख्यमंत्री कोई हो, सरकार किसी भी दल की हो, इस मसले पर सब कठघरे में रहे और आज भी हैं. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि एक ओर उत्तराखंड के पर्यावरणविद छोटी परियोजनाओं की वकालत कर रहे हैं तो दूसरी ओर जल पुरुष राजेंद्र जी भी उनकी बात का समर्थन कर रहे हैं. यह बात और है कि जल पुरुष बुंदेलखंड के सन्दर्भ में ये बात कर रहे थे और उत्तराखंड के विज्ञानी अपने राज्य को बचाने के लिए. ऐसे में एक बात तो तय है कि सभी विद्वान् गलत बात नहीं कर रहे. असल में छोटी परियोजनाओं में सरकारी अफसरों-इंजीनियरों को ज्यादा लाभ होता है. छोटी परियोजनाओं में कोई लाभ ही नहीं मिल सकता. लेकिन एक बात तय है कि अगर हम जड़ों से जुड़े रहें तो बहुतेरी दिक्कतों से बच सकते हैं. समय आ गया है कि किसानों, अपने खेतों और गांवों को हर हाल में बचाना होगा. अगर हम यह नहीं कर पाए तो हमें यह भौतिकवाद, शहरीकरण ले डूबेगा. अब मैदानों में घराट तो सफल नहीं हो सकते. पर, इलाका कोई भी हो हमें अपने बुजुर्गों की परम्पराओं को हर हाल में बचाना होगा. तभी हमारी पीढियां बचेंगी. अन्यथा, वह दिन दूर नहीं जब बच्चे पूछेंगे कि दाल, चावल किस कारखाने में होते हैं.

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