गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 74 : राष्ट्रीयता

गणेश शंकर विद्यार्थी जी 
देश में कहीं कहीं राष्ट्रीयता के भाव के समझने में गहरी और भद्दी भूल की जा रही है. आये दिन हम इस भूल के अनेक प्रमाण पाते हैं. यदि इस भाव के अर्थ भलीभांति समझ लिए गए होते, तो इस विषय में बहुत सी अनर्गल और अस्पष्ट बातें सुनने में न आतीं.
राष्ट्रीयता, जातीयता नहीं है. राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं है. राष्ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है. राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरुप से होता है. उसकी सीमाएं, देश की सीमाएं हैं. प्राकृतिक विशेषता और भिन्नता देश को संसार से अलग स्पष्ट करती है. और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्य के बंधन से बांधती है.
राष्ट्र पराधीनता के पालने में नहीं पलता. स्वाधीन देश ही राष्ट्रों की भूमि है. क्योंकि कि पुच्छ विहीन पशु हो तो हो, परन्तु अपना शासन अपने हाथों में न रखने वाले राष्ट्र नहीं होते. राष्ट्रीयता का भाव मानव उन्नति की एक सीढ़ी है. उसका उदय नितांत स्वाभाविक रीति से हुआ. योरप के देशों में यह सबसे पहले जन्मा. मनुष्य का उसी समय तक कोई ऐसा ऊँचा आदर्श है, जिसके लिए वह अपने प्राण तक दे सके.
समय की गति के साथ आदर्शों में परिवर्तन हुए. धर्म के आदर्श के लिए लोगों ने जान दी और तन कटाया. परन्तु संसार के भिन्न-भिन्न धर्मों के संघर्षण एक-एक देश में अनेक धर्मों के होने तथा धार्मिक भावों की प्रधानता से देश के व्यापार कला-कौशल और सभ्यता की उन्नति में रूकावट पड़ने से अंत में धीरे-धीरे धर्म का पक्षपात कम हो चला और लोगों के सामने देश प्रेम का स्वाभाविक आदर्श सामने आ गया.
जो प्राचीन काल में धर्म के नाम पर कटते मरते थे, आज उनकी संतति देश के नाम पर मरती है. पुराने अच्छे थे या ये नए, इस पर बहस करना फिजूल ही है. पर, उनमें भी जीवन था और इनमें भी जीवन है. वे भी त्याग करना जानते थे और ये भी. और ये दोनों उन अभागों से लाख दर्जे अच्छे और सौभाग्यवान हैं जिनके सामने कोई आदर्श नहीं. और जो हर बात में मौत से डरते हैं.
ये पिछले आदमी अपने देश के बोझ और अपनी माता की कोख के कलंक हैं. देश प्रेम का भाव इंग्लैंड में उस समय उदय हो चूका था, जब स्पेन के कैथोलिक राजा फ्लिप ने इंग्लैंड पर अजेय जहाजी बेड़े आरमेडा द्वारा चढ़ाई की थी. क्योंकि इंग्लैंड के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों प्रकार के ईसाइयों ने देश के शत्रु का एक सा स्वागत किया.
फ़्रांस की राज्य क्रांति ने राष्ट्रीयता को पूरे वैभव से खिला दिया. इस प्रकाशमान रूप को देखकर गिर हुए देशों को आशा का मधुर सन्देश मिला. 19वीं शताब्दी राष्ट्रीयता की शताब्दी थी. वर्तमान जर्मनी का उदय इसी शताब्दी में हुआ. पराधीन इटली ने स्वेच्छाचारी आस्ट्रिया के बंधनों से मुक्ति पाई. यूनान को स्वाधीनता मिली और बाल्कन के अन्य राष्ट्र भी कब्रों से सिर निकाल कर उठ पड़े.
गिरे हुए पूर्व ने भी अपनी विभूति दिखाई. बाहर वाले उसे दोनों हाथों से लूट रहे थे. उसे चैतन्यता प्राप्त हुई. उसने अंगड़ाई ली और चोरों के कान खड़े हो गए. उसने संसार की गति की ओर दृष्टि फेरी. देखा संसार को एक नया प्रकाश मिल गया है. और जाना कि स्वार्थ परायणता के इस अन्धकार को बिना उस प्रकाश के पार करना असंभव है.
उसके मन में हिलोरें उठीं और अब हम उन हिलोरों के रत्न देख रहे हैं. जापान एक रत्न है. ऐसा चमकता हुआ कि राष्ट्रीयता उसे कहीं भी पेश कर सकती है. लहरें रुकी नहीं, बढीं और खूब बढीं. अफीमची चीन को उसने जगाया और पराधीन भारत को उसने चेताया. फारस में उसने जागृति फैलाई और एशिया के जंगलों और खोहों तक में राष्ट्रीयता की प्रतिध्वनि इस समय किसी न किसी रूप में उसने पहुंचाई.
यह संसार की लहर है. इसे रोका नहीं जा सकता. वे स्वेच्छाचारी अपने हाथ तोड़ लेंगे और उसे रोकेंगे. और उन मुर्दों की खाक का भी पता नहीं लगेगा. जो इसके सन्देश को नहीं सुनेंगे, भारत में हम राष्ट्रीयता की पुकार सुन चुके हैं. हमें भारत के उच्च और उज्जवल भविष्य का विश्वास है कि हमारी बाढ़ किसी के रोके नहीं रुक सकती. रास्ते में रोकने वाली चट्टानें आ सकती हैं.
बिना चट्टानों के तो रास्ता बड़ा और महत्व का रास्ता नहीं हो सकता. पर, ये चट्टानें पानी की किसी बाढ़ को नहीं रोक सकती. परन्तु, एक बात है, हमें जान बूझ कर मुर्ख नहीं बनना चाहिए. ऊंट-पटांग रास्ते नहीं नापने चाहिए. कुछ लोग हिन्दू राष्ट्र चिल्लाते हैं. हमें क्षमा किया जाए. यदि हम कहें, नहीं, हम इस बात पर जोर दें कि वे एक बड़ी भारी भूल कर रहे हैं और उन्होंने अभी तक राष्ट्र शब्द के अर्थ ही नहीं समझे.
हम भविष्यवक्ता नहीं, पर अवस्था हमसे कहती है कि अब संसार में हिन्दू राष्ट्र नहीं हो सकता. क्योंकि राष्ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन देश वालों के हाथ में हो. और यदि मान लिया जाए कि आज भारत स्वाधीन हो जाए या इंग्लैंड उसे औपनिवेशिक स्वराज्य दे दे तो भी हिन्दू ही, भारतीय राष्ट्र के सब कुछ न होंगे.
और जो ऐसा समझते हैं, ह्रदय से या केवल लोगों के प्रसन्न करने के लिए वे भूल कर रहे हैं और देश को हानि पहुंचा रहे हैं. वे लोग इस प्रकार की भूल कर रहे हैं, जो टर्की या कादुल, मक्का या जेद्दा का स्वप्न देखते हैं. क्योंकि वे उनकी जन्मभूमि नहीं और इसमें कुछ भी कटुता न समझी जानी चाहिए.
यदि हम यह कहें कि उनकी कब्रें इस देश में बनेंगी और उनके मरसिये, यदि वे इस योग्य होंगे तो इसी देश में गए जाएंगे. परन्तु हमारा प्रतिपक्षी नहीं, राष्ट्रीयता का विपक्षी मुंह बिचका कर कह सकता है कि राष्ट्रीयता स्वार्थों की खान है.  देख लो इस महायुद्ध को और इनकार करने का साहस करो कि संसार के राष्ट्र पक्के स्वार्थी नहीं हैं.
हम विपक्षी का स्वागत करते हैं. परन्तु संसार की किसी वस्तु में बुराई और भलाई दोनों बातें नहीं हैं. लोहे से डाक्टर का घाव चीरने वाला चाकू और रेल की पटरियां बनती हैं. और इसी लोहे से हत्यारा का छूरा और लड़ाई की तोपें भी बनती हैं.
सूर्य का प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है. पर, वह बेचारा मुर्दा लाश का क्या करे, जो उसके लगते ही सड़कर बदबू देने लगती हैं. हम राष्ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वह हमारी सब कुछ नहीं. वह केवल हमारे देश की उन्नति का उपाय भर है.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 21 जून 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ था.

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