भुखमरी से मुक्ति कब?
चुनावी कवरेज के लिए चित्रकूट जिले में घूम रहा था| कई साल पुरानी बात होगी| समाजसेवी गोपाल भाई की मदद से मानिकपुर इलाके में सुचेता कृपलानी द्वारा बसाईं गई कालोनी तक जाना हुआ| जंगल किनारे बसी इस कालोनी में कोई दो दर्जन से ज्यादा घर थे| इस गाँव की आजीविका का साधन जंगल की लकड़ी ही थी| दिन भर की मेहनत के बाद एक आदमी या औरत एक गट्ठर लकड़ी ला पाते| जब हम गाँव में पहुंचे तो इक्का-दुक्का महिला और पुरुषों से मुलाकात हुई| बाकी जंगल गए थे| यहाँ दाल, चावल, रोटी, सब्जी या फिर पूरी-सब्जी एक साथ कभी नहीं बनती थी| त्योहारों पर भी नहीं| भुखमरी इस बस्ती में चीख रही थी| जिस एक महिला से मुलाकात हुई वो महज एक साड़ी में ही खुद को कसे हुए थीं| किसी भी घर में दो किलो अनाज नहीं था| मैंने अपने जीवन में इतनी गरीबी कभी नहीं देखी थी| आज फेसबुक पर एक वीडियो देखा तो आँखें भर आईं| यह विडियो गरीबी की नहीं बल्कि भोजन के प्रति हमारे असम्मान और सम्मान को दर्शाती है| (आप भी देखिए) विकासशील भारत और सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ये दोनों दृश्य दुखद है| यह सब तब है जब हम अन्न उत्पादन में लगातार तरक्की कर रहे हैं और भुखमरी हमारा पीछा छोड़ने को राजी नहीं है| तुर्रा यह कि हम विकासशील देश हैं| दुनिया में हमारी धाक लगातार बढ़ रही है| पर, गरीब और गरीब होता जा रहा, अमीर और अमीर| नेताओं की तो खैर बात ही अलग है| उन्होंने तो बस नेतानागरी स्कूल में दाखिला लिया नहीं कि अमीर हो गए|
भुखमरी पर आकड़े क्या कहते हैं?
देश की आबादी लगभग 125 करोड़ बताई जाती है| इनमें से लगभग 19.46 करोड़ लोग आज भी भुखमरी के शिकार है| संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एएफओ) की रिपोर्ट कहती है-दुनिया में सबसे अधिक 19.46 करोड़ लोग अकेले भारत में भुखमरी के शिकार हैं| यद्यपि, देश में बीते 25 वर्ष में भूखे रहने वाले लोगों की संख्या में गिरावट आई है पर यह नाकाफी है| 1990-92 में यह संख्या 21.01 करोड़ थी| ‘द स्टेट ऑफ फूड इनसिक्युरिटी इन द वर्ल्ड 2015’ के अनुसार वैश्विक स्तर पर यह संख्या 2014-15 में घटकर 79.5 करोड़ रह गई जो कि 1990-92 में एक अरब थी| मतलब यह संख्या पूरी दुनिया में कम हुई है|
इसी अवधि में चीन में भूखे सोने वाले लोगों की संख्या में अपेक्षाकृत तेजी से गिरावट आई है| आलोच्य अवधि में चीन में यह संख्या 28.9 करोड़ थी जो 2014-15 में घटकर 13.38 करोड़ रह गई| रिपोर्ट के अनुसार एफएओ की निगरानी दायरे में आने वाले 129 देशों में से 72 देशों ने गरीबी उन्मूलन में काफी सुधार किये हैं|
गहरा नाता है भारत और भुखमरी का!
तीन साल पहले योजना आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत अकाल वाली स्थिति में तो नहीं है, लेकिन निश्चित तौर पर भयंकर भुखमरी की चपेट में है| देश में अतिरिक्त अनाज होता है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2014 के मुताबिक 76 देशों में भारत का स्थान 55वां है| पश्चिम बंगाल के चाय बागान वाले उत्तरी क्षेत्र, मध्य प्रदेश, ओडीशा और झारखंड भुखमरी की समस्या से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं| भुखमरी के चलते एक हजार से ज्यादा चाय बागान मजदूरों की मौत हो चुकी है तो इस मामले में ओडीशा का कालाहांडी दशकों से देश-विदेश में सुर्खियां बटोरता रहा है| वर्ष 1943 में बंगाल के भीषण अकाल के दौरान 30 से 40 लाख लोग भुखमरी के शिकार हो गए थे| देश में तब भी अनाज की कमी नहीं थी| यह इसी तथ्य से साफ है कि भारत ने उसी साल इंग्लैंड को 70 हजार टन चावल का निर्यात किया था| अब भी खाद्यान्नों की कोई कमी नहीं है| कृषि उत्पादन हर साल तेजी से बढ़ रहा है| बावजूद इसके देश में 35.6 फीसदी महिलाओं और 34.2 फीसदी पुरुषों का बीएमआई 18.5 से कम है|
भुखमरी की असली वजह सरकारी नीतियों को लागू करने में खामी बड़े कारण के रूप में सामने है| इसकी वजह से आम आदमी तक भोजन पहुंचाने वाली योजनाएं निचले स्तर तक होने वाले अनाज का 52 फीसदी वितरण प्रणाली में दोष, परिवहन और भंडारण व्यवस्था की खामियों के चलते नष्ट हो जाता है या फिर खुले बाजार में ऊंची दर पर बेच दिया जाता है| इसके अलावा पोषण से भरपूर और बेहतर क्वालिटी के खाद्यान्न खरीदने के मामले में आम लोगों की खरीदने की क्षमता भी भुखमरी पर काबू पाने की राह में प्रमुख बाधा है| नतीजा यह है कि वे धीरे-धीरे कुपोषण के शिकार होकर भुखमरी की ओर बढ़ते रहते हैं|
भुखमरी पर अंकुश लगाना सरकार के लिए एक कड़ी चुनौती है| लेकिन इसके लिए पहले उसकी जड़ यानी कुपोषण को दूर करना जरूरी है| सबको बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं और पोषण से भरपूर भोजन मुहैया कराने के लिए सरकारी नीतियों में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है| लेकिन जहां सरकारें भुखमरी को मानने के लिए ही तैयार नहीं हों, वहां वे उससे निपटने की दिशा में कोई ठोस पहल भला कैसे करेंगी? यानी निकट भविष्य में भारत को इस गंभीर समस्या से जूझते रहना होगा|
भारत में फाइट हंगर फाउंडेशन और एसीएफ इंडिया ने मिल कर “जनरेशनल न्यूट्रिशन प्रोग्राम” की शुरुआत की है| एसीएफ की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुपोषण जितनी बड़ी समस्या है, वैसी पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं देखने को नहीं मिलती| रिपोर्ट कहती है – भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचित जाति (21%), पिछड़ी जाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) पर कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है|
ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2015 के आंकड़े बताते हैं कि इस मामले में भारत 68वें स्थान पर है। जबकि रूस 43वें, चीन 42वें, ब्राजील 36वें, और दक्षिण अफ्रीका 41वें स्थान पर है। वैश्विक खाद्य सुरक्षा सूचकांक में भारत की यह रैंकिंग सरकार के उन सारे दावों को नकारती है, जो विकास का दावा करते है।
दुनिया भर में प्रतिदिन 24 हजार लोग भूख से मरते हैं। इनमें से छह हजार भारत से होते हैं| इन कुल मौतों में 18 हजार अकेले बच्चे हैं| चीन और ब्राजील जैसे देशों ने गरीबी से लड़ने और नागरिकों को भोजन मुहैया कराने में काफी हद कामयाबी हासिल की है। यह हालत तब है जब देश में अन्न उत्पादन लगातार बढ़ा है| 1951-52 में देश में खाद्यान्न का कुल उत्पादन 5.09 करोड़ टन था। जो बढ़ते हुए 2013 में 25.9 करोड़ टन पहुँच गया। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार भारत में 20 करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं, जो पूरे विश्व के आंकड़ों से सबसे ज्यादा है।
एक पहलू और…
कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय (यूएएस), एक सर्वे के अनुसार बेंगलुरु में समारोह के दौरान 943 टन पौष्टिक भोजन फेंक दिया जाता है। जो 2.6 करोड़ लोगों को एक समय का खाना खिलाने के लिए काफी है। अब एक शहर का यह हाल है तो देश भर के आंकड़े कहाँ पहुंचेंगे, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है| विश्व खाद्य संगठन के अनुसार देश में हर साल 50 हजार करोड़ रूपये का खाना बर्बाद होता है, यूएनडीपी के अनुसार – संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम, 40% भोजन भारत में बर्बाद किया है। उधर, देश में छोटे किसानों और मजदूर तबकों का जीवन जीना मुश्किल है। किसानों को अच्छे बीज, खाद, सिंचाई और कृषि यंत्रों की व्यवस्था नहीं हो पा रही है| यूनाइटेड नेशंस फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट कहती है कि किसी अन्य क्षेत्र में निवेश की बजाय कृषि में निवेश जरूरी है।
नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) की रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों के लोग जहां 2004-05 में दलहन पर 18% खर्च करते थे, 2011-12 में 12% ही खर्च कर पाए। शहरी इलाकों में तो यह दर इसी अवधि में 10.1% से घटकर 7.3% रह गयी। फिर भी सरकार का दावा है कि लोगों में कुपोषण घटा है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की 66वीं रिपोर्ट कहती है कि दो तिहाई लोग पोषण के मानक से कम खुराक लेते हैं। योजना आयोग का मानना है कि हर ग्रामीण को कम से कम 2,400 किलो कैलोरी व हर शहरी को न्यूनतम 2,100 किलो कैलोरी का आहार मिलना चाहिए| पर रिपोर्ट ठीक इसके विपरीत है|
1972-73 में एक ग्रामीण को रोज औसतन 2,266 किलो कैलोरी आहार मिल रहा था, जो 1993-94 में घट कर 2,153 और 2009-2010 में और कम होकर 2,020 किलो कैलोरी रह गया। जबकि शहरी इलाकों में आलोच्य अवधि में ही प्रति व्यक्ति रोज का यह औसत 2,107, 2,071 और अब 1,946 किलो कैलोरी रहा। विशेषज्ञों का मानना है कि यह सीधे-सीधे तेजी से बढ़ रही गरीबी की वजह से भुखमरी और कुपोषण का संकेत है। ढेरों रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती हैं कि केवल कुप्रबंध की वजह से अनाज की भारी बर्बादी हो रही है| दुनियाभर में अन्न का जितना उत्पादन हो रहा है उसका लगभग एक-तिहाई बर्बाद हो जाता है। आंगनबाड़ी केन्द्रों के आंकड़े देखने में बेहद खूबसूरत है लेकिन हकीकत कोसों दूर है| इनका कोई खास असर बच्चों पर नहीं है| यह केवल खाने-कमाने का जरिया भर हैं|
इस सूरत में भारत सरकार एवं राज्य सरकारों को भुखमरी रोकने के लिए ठोस कदम उठाना होगा| सबसे पहले इस पहलू को स्वीकार करना होगा| मौजूद अन्न भण्डारण को संभालना भी होगा|सार्वजानिक वितरण प्रणाली में लगे घुन को मारना होगा| गरीब को गरीब मानना होगा| तभी देश से भुखमरी जाएगी| अन्यथा कोई मतलब नहीं कि हम विकासशील भारत है| हमारी पूरी दुनिया में धाक है| किसी भी देश की तरक्की में, खुशहाली में उस देश के नागरिकों की बड़ी भूमिका होती है| देश तभी खुशहाल कहलाएगा जब देशवासी कम से कम भूखे पेट नहीं सोयेंगे…
बहुत प्रभावित किया इस blog ने। Social media पर प्रसारित करने योग्य। इसके लिए इजाजत बख्शें। शुक्रिया।
ReplyDeleteआभार देवेन्द्र जी..गंभीर विषय है. इस पर जितनी चर्चा होगी, बेहतर रहेगा.
Delete