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Showing posts from May, 2018

बच के रहना रे बाबा...बच के रहना रे, बड़े खतरे हैं इस राह में

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दिनेश पाठक सर, मैंने बीटेक के लिए 10 हजार देकर एक कॉलेज में रजिस्ट्रेशन करा लिया है. एजुकेशन लोन के लिए अप्लाई किया तो बैंक वाले कहते हैं कि एंट्रेंस टेस्ट के बिना लोन नहीं मिलेगा. मेरी कोई जान-पहचान भी नहीं है. मुझे बिना रिश्वत दिए लोन चाहिए, जिससे मैं बीटेक कर सकूँ. सर, मेरी क्वालिफिकेशन में भी कमी नहीं है...यह सवाल एक नौजवान ने पूछा है. इससे मिलते-जुलते सवाल इन दिनों कुछ ज्यादा ही आ रहे हैं. संभव है कि ऐसे सवालों से और युवा जूझ रहे हों, इसलिए इस गंभीर मुद्दे पर बात होनी चाहिए. इन सवालों पर संभव है कि मुंबई, दिल्ली जैसे शहरों के युवा जागरूक हों. इन पर सवाल उठाएँ. पर, ये सवाल मेरे सामने आए हैं. इसे मैं तीन हिस्सों में देखता हूँ. पहला कॉलेज में रजिस्ट्रेशन...यह तरीका ही गलत है. इंजीनियरिंग के लिए अब केन्द्र और राज्यों की अपनी अलग-अलग प्रवेश परीक्षाएँ होती हैं. आपको इनमें शामिल हुए बिना प्रवेश लेने से बचना चाहिए. रैंक कम होने पर भले ही बाद में आप मैनेजमेंट कोटे से अच्छे कॉलेज में प्रवेश ले लें लेकिन प्रवेश परीक्षा में हिस्सा लिए बिना किसी को एक भी रुपया न दें रजिस्ट्रेशन के ना

आईएएस बनने के सपने तो आपको भी आ रहे होंगे?

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दिनेश पाठक अभी सिविल सर्विसेज के रिजल्ट आये हैं. यह एक ऐसा इम्तहान है, जिसके परिणाम आने पर देश का करोड़ों नौजवान अचानक सपने देखना शुरू कर देता है. जैसे-जैसे अखबारों, चैनलों पर सफल युवाओं के साक्षात्कार आते हैं, युवाओं में जोश भर जाता है. कई तो मन ही मन तैयारी कर लेते हैं कि कल हमारी बारी है...पर बारी बहुत कम की आती है. इस इम्तहान में बैठते लाखों हैं लेकिन सफलता सिर्फ कुछ सौ के हाथ लगती है. इस बरस यानी 2018 इम्तहान के परिणाम 2019 में जब आएंगे तब तो यह संख्या बहुत कम होगी. हाल के वर्षों में शायद सबसे कम. मतलब इस साल आल इंडिया सिविल सर्विसेज के जरिए अफसर बनने वालों की संख्या आठ सौ नहीं होगी. जब ताजे परिणाम आये तो मेरे पास भी सवाल खूब आए. सपने देखने वाले युवा यह जानना चाते हैं कि वे कैसे बनें आईएएस? ऐसे सभी नौजवानों से मैं यह कहने में संकोच नहीं करना चाहता कि सपने देखना और उन्हें हकीकत में साकार करना, यह दो बातें हैं. सपने कोई भी देख सकता है लेकिन उन्हें हकीकत में बदलने वालों की संख्या बहुत कम होती है. क्योंकि यहाँ कोई शार्ट-कट नहीं है. मतलब तैयारी की नींव भी आपको भरनी है और इमार

जिंदगी की आपाधापी और खोते रिश्तों को आप संजोना नहीं चाहेंगे

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दिनेश पाठक जिंदगी की आपाधापी में हम इतने व्यस्त हो गए हैं कि अपनी जड़ों की ओर झांकने की फुर्सत भी नहीं है. अगर शहरों में रहते हैं तो किसी बच्चे को अपने पिता के कंधे पर बैठे आप ने शर्तिया नहीं देखा होगा. हाल फ़िलहाल, आप खुद अपने ड्राइंग रूम में घोड़ा न तो बने होंगे और न ही किसी यार दोस्त को देखा होगा. यह कुछ ऐसे उपाय थे जिससे बच्चों की बड़ी से बड़ी जिद पूरी हो जाती थी. पर, आज हम मोबाइल, लैपटॉप देकर उन्हें चुप कराने की कामयाब कोशिश करते हैं. टेबलेट देकर खुश कर देते हैं. लेकिन जो सुख माता-पिता को पेट पर, पीठ पर लेट-बैठकर बच्चे को मिलता है, उसकी कल्पना करना मुमकिन नहीं है, उसे जीना ही पड़ेगा. अगर आप 70-80 के दशक में पैदा हुए होंगे और गाँव से तनिक भी रिश्ता रहा होगा तो आपके पिता जी या दादा जी ने कंधे पर बैठाकर जरुर मेला दिखाया होगा. वहाँ लगा खेल तमाशा दिखाया होगा. गर्मी की छुट्टियाँ आ गई हैं. अब बच्चे गाँव जाने से कतराते हैं. वहाँ निश्चित साधन की कुछ कमी है. है भी तो गाँव, गाँव ही रहेंगे और दिल्ली, मुंबई महानगर. इनकी तुलना नहीं की जा सकती. लेकिन समय की माँग है कि अपने छोटे-छोटे बच्च

कोर्स और कालेज तय करने में जल्दबाजी उचित नहीं

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दिनेश पाठक/ करियर, चाइल्ड, पैरेंटिंग काउंसलर दो दिन पहले एक ग्रेजुएट इंजीनियर का फोन आया. इस नौजवान ने दो वर्ष पहले अपनी इंजीनियरिंग पूरी की और अब तक बेरोजगार है. उसने जो सवाल पूछा, उसे सुनकर मैं हैरान रह गया. क्योंकि इस नौजवान को उसके अपनों ने बीएड करने की सलाह दी है. इस युवा को भरोसा है कि बीएड के बाद वह टीईटी कर लेगा और नौकरी पक्की हो जाएगी. मेरी नजर में यह सच नहीं है. मिल भी सकती है और नहीं भी मिल सकती है. बीएड, टीईटी अब नौकरी की गारंटी नहीं हो सकते. मैंने अपनी राय से इस युवा को अवगत भी कराया और कुछ सुझाव भी दिए. मैंने पूछा कि तुम्हारा कैम्पस सेलेक्शन क्यों नहीं हुआ तो उसने बताया कि पूरे चार साल में हमारे यहाँ कोई कम्पनी ही नहीं आई. यह राज्य सरकार के विश्वविद्यालय कैम्पस में चलने वाले इंजीनियरिंग कालेज का हाल है. कुरेदने पर उसने बहुत सारी ऐसी जानकारियां दी, जिसे सुनकर लगा कि आखिर इस विश्वविद्यालय को इंजीनियरिंग कालेज चलाने की अनुमति क्यों दी गई होगी? क्या सरकार का कोई तंत्र ऐसा नहीं है जो इस तरह की चीजों को देखे, सुने और समझकर युवाओं के अनुकूल बना सके. जवाब है शायद नहीं.

मेहनत उसने भी कम नहीं की थी, पर परिणाम पक्ष में नहीं आया

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दिनेश पाठक यूपी बोर्ड के इण्टर, हाईस्कूल के परीक्षा परिणाम आ गए हैं. अन्य राज्यों के बोर्ड और केन्द्रीय बोर्ड के परिणाम आने वाले हैं. जो बच्चे पास हो जाएँगे, उनका और परिवारीजनों का खुश होना लाजिमी है. जिन्हें कम नंबर मिलते हैं या जो बच्चे किन्हीं कारणों से फेल होते हैं, वहाँ का सीन अच्छा नहीं होता. आज का मेरा कॉलम इसी मुद्दे पर केन्द्रित है. सरेदस्त, मैं यही कहूँगा कि आपके कम नंबर लाने वाले या फेल हुए बच्चे ने भी मेहनत कम नहीं की थी. वह भी उसी क्लास में था, जहाँ के टॉपर को देखकर आप परेशान है. इसका मतलब तय है कि समस्या स्कूल में नहीं थी, कहीं कुछ और थी, जिस पर आपका ध्यान आज तब गया है, जब परिणाम आपके अनुकूल नहीं आया. मेरा अनुरोध है कि कृपया अपने एक बच्चे की तुलना अपने ही दूसरे बच्चे से भी नहीं करिए, पड़ोसी से तो बिल्कुल नहीं. मैं तजुर्बे के आधार पर कह पा रहा हूँ कि हर बच्चा ख़ास है. जरूरत है उसकी प्रतिभा पहचानने की. जिस दिन उसकी पहचान हो गई, समस्या ख़त्म. ऊपर वाले ने हर बच्चे को ख़ास ही बनाकर भेजा है. समय से उसमें छिपी प्रतिभा की   पहचान करना, उसी के अनुरूप सुविधाएँ जुटाना और बच्च