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Showing posts from October, 2018

अगर आप बहानेबाज हैं तो मिलिए हौंसलों वाले युवा राजेश से

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मुझे शहर से बाहर जाना था| टैक्सी बुलाई| राजेश यादव सारथी के रूप में मिले| जाते वक्त मैं 90 किलोमीटर की दूरी में बहुत बातचीत इसलिए नहीं कर पाया क्योंकि मेरे पास काम बहुत था लेकिन गाड़ी में बैठते ही मैंने आदतानुसार तीन सवाल पूछे| एक नाम, दूसरा टैक्सी कब से चला रहे हो और तीसरा रहने वाले कहाँ के हो? राजेश ने सभी सवालों का संक्षिप्त सा जवाब दिया और हम मंजिल की तरफ चल पड़े| दिनेश पाठक लौटते वक्त मेरी बातचीत शुरू हुई| इस नौजवान ने जो कुछ बताया, मुझे लगा कि यह बहानेबाजों के लिए प्रेरणास्रोत है| बात वर्ष 2000 की है| राजेश छठीं क्लास में था| घर में आर्थिक तंगी थी| राजेश ने बुक शॉप पर पार्ट टाइम नौकरी की| वेतन मिलते थे 400 रुपए महीना| तीन भाइयों में सबसे छोटा राजेश नौकरी इसलिए करने लगा क्योंकि पिता जी नादरगंज में एक कारखाने में काम करते हैं| घर की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती थीं| बकौल राजेश, मेरे दोनों बड़े भाई पढ़ने में ठीक थे और मैं फिसड्डी| इसलिए जब भी जरूरत होती मैं बुक शॉप से एडवांस लेकर भाइयों की मदद करता| चूँकि, शॉप के मालिक मुझे बहुत मानते थे, इसलिए वे आसानी से पैसे दे दिया करते थे| फ

आपकी कहानी इंजीनियर वानी से मिलती-जुलती तो नहीं!

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दिनेश पाठक  गुजरात से हैं वानी| पिछले साल बीटेक किया| कैम्पस से ही नौकरी मिल गई| पांच महीने जॉब किया लेकिन मन नहीं लगा तो छोड़ दिया| फिर एक नौकरी मिली, जिसे ज्वाइन ही नहीं किया| क्योंकि उस दफ्तर का माहौल वानी को ठीक नहीं लगा| अब वानी बेरोजगार हैं और करियर को लेकर कन्फ्यूज भी| पहले फेसबुक और फिर फोन पर वानी ने बताया कि समझ नहीं आ रहा है कि क्या करे, जबकि इच्छा यह है कि उसे अच्छे पैकेज वाली नौकरी मिले और तरक्की भी| जीवन में खुशहाली हो| उसके पास वह सब कुछ हो, जिसका सपना सामान्य युवा देखता है...मतलब, गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर आदि-आदि| वानी की मदद के इरादे से जो कुछ मैंने कहा, बताया, वह हूबहू साझा कर रहा हूँ, जिससे वानी की तरह के कन्फ्यूज युवा वर्ग की कुछ मदद हो सके| कोई भी अच्छी बात करने से पहले मैंने वानी को कड़वी बात कही| मसलन, अगर उसे पैकेज या दफ्तर पसंद नहीं था तो नौकरी में रहते हुए दूसरी तलाशती| फिर छोड़ती| चलो पहली नौकरी छोड़ दी, कोई नहीं| तुम्हारी ही मेहनत से दूसरी मिली तो वहाँ ज्वाइन करने से पहले ही फैसला कर लिया कि अमुक दफ्तर ख़राब है| और अब बेरोजगार हो| वानी ने कहा...सर गलती हो

मुझे बहुत डर लगता है, नाकामयाब हो गया तो...

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दिनेश पाठक एक सप्ताह पहले का वाकया है| मेरे फोन की घंटी बजती और कट जाती| फिर बजती, कट जाती| ऐसा कई बार हुआ तो मैंने उस नंबर पर फोन किया| तत्काल फोन उठ गया और आवाज सुनकर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि यह कोई नौजवान है, जो कुछ कहना चाहता है| भर्राई हुई आवाज में उसने अपना नाम विजय बताया| बोला-मुझे ढेर सारी बातें करनी हैं| सवाल पूछने हैं| मैंने कहा-बोलो| विजय ने कहा-मैं अर्थशास्त्र, सांख्यिकी विषय के साथ बीए की पढ़ाई कर रहा हूँ| पापा चाहते हैं कि मैं एमबीए कर लूँ| मैं कन्फ्यूज्ड हूँ| मैंने प्रतिप्रश्न किया-तुम्हारा मन क्या कह रहा है और कन्फ्यूज्ड क्यों हो? बोला-मैं एसएससी की तैयारी करना चाहता हूँ| कभी मन करता है कि फिल्मों में चला जाऊं| एनएसडी से जाकर कोर्स कर लूँ| लेकिन डर लगता है कि कहीं नाकामयाब हो गया तो...बात करते करते थोड़ा सहज हुआ| फिर बोला-सर, अपनी अंग्रेजी भी बहुत कमजोर है| इसके लिए क्या करूँ? मैंने कहा-यह तो बहुत आसान है| सीबीएसई बोर्ड की कक्षा छह से इंटर तक की ग्रामर की किताबें लेकर तैयारी शुरू करो| छह महीने में अंग्रेजी ठीक हो जाएगी| मेरा दूसरा सुझाव था कि एक अंग्रेजी का अख़बार ब

जरा ठहरें! कहीं आप प्रियांक के रास्ते पर तो नहीं चल रहे

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दिनेश पाठक दो दिन पहले मेरी मुलाकात प्रियांक से हुई| वह खुद को पत्रकारिता में ग्रेजुएट बता रहा था| उसका कहना था कि जब डिग्री मिल गई तो मैं नौकरी की तलाश में निकला| मिली भी एक वेबसाइट में, पर मन नहीं लगता था| मुझे एविएशन सेक्टर में जाना था| उस दिशा में कोशिश शुरू की तो एक संस्था में प्रवेश लिया| उस समय तो संस्था वाले एविएशन सेक्टर में नौकरी की पक्की गारंटी दे रहे थे| प्रवेश लिया| यहाँ भी पढ़ाई शुरू कर दी| कोर्स पूरा करने के बाद से भटक रहा हूँ, कहीं नौकरी नहीं मिल रही| 15 से ज्यादा कोशिश कर चुका हूँ, लेकिन कहीं भी नौकरी तो दूर, फ़ाइनल राउंड तक भी नहीं पहुँच पाया| अब मैं निराश हूँ| डिप्रेशन की दवाएँ शुरू हो चुकी हैं| परेशान हूँ, क्या करूँ, कैसे निकलूँ, इस जाल से? घर से पैसे लेने का मन अब नहीं करता और दूसरा विकल्प है नहीं| समझ में नहीं आ रहा| मैंने प्रियांक से पूछा-एविएशन में जाना था तो पत्रकारिता की पढ़ाई क्यों की? इस नौजवान का बहुत रोचक जवाब था, उसने कहा-चूँकि पत्रकारिता में मैथ आदि कठिन सब्जेक्ट नहीं थे, इसलिए इस कोर्स को कर लिया| इस बच्चे ने पत्रकारिता निजी संस्थान से की है| मतल

अपने लाल को प्यार के पाश में बाँधिए, सुविधाओं के नहीं

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दिनेश पाठक पता नहीं क्या हो गया है आज के मम्मी-पापा को, बाजारवाद के चक्कर में गली-मोहल्लों में खुले प्री स्कूलों में दो-दो, ढाई-ढाई साल के मासूमों को भेजकर न जाने कौन सी शिक्षा दे और दिला रहे हैं? ये स्कूल कौन सी ऐसी शिक्षा हमारे मासूमों को दे रहे हैं, जो हम अपने घर में नहीं दे पा रहे हैं| इन स्कूलों में किसी गरीब का बच्चा नहीं पढ़ता / पढ़ती| यहाँ धनाड्य परिवारों से ही बच्चे जाते हैं| मुझे कोई यह कहे कि मैं इन स्कूलों का विरोधी हूँ तो मैं हूँ लेकिन मेरा असली आक्रोश इन मासूमों के माता-पिता के प्रति है| क्योंकि अगर ये नहीं भेजेंगे तो ये स्कूल खुद-ब-खुद बंद हो जाएँगे| देखिए जरा इन बच्चों की जिंदगी कैसे गड़बड़ की जा रही है| इन स्कूलों तक मासूमों को भेजने वाले ज्यादातर मम्मी-पापा इन बच्चों के लिए अपने घरों में कमरा सजाया हुआ है, इस कमरे में भौतिकवाद के हिसाब से वह सब कुछ है, जो उसे चाहिए| रात का खाना खिलाने के बाद बच्चे को उसके इसी कमरे में सुलाने की परम्परा बनती जा रही है| यह फिल्मों का असर है शायद| अब ध्यान दीजिए, यहाँ बच्चे को सुलाने के बाद मम्मी-पापा अलग कमरे में पहुँच गए| बच्चा स