क्या देश वाकई तरक्की कर रहा
आबादी
बढती गई. खेत घटते गए. किसान भी घटे. शहरीकरण बढ़ा. और हम मुगालते में जी रहे हैं
कि देश तरक्की कर रहा. आज का सच यह है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में
खेती-किसानी की भूमिका कम हो गई. वर्ष 1950-51 में जीडीपी में कृषि का योगदान जहाँ
55 फ़ीसदी था, आज सिर्फ 15 फ़ीसदी ही रह गया है. तब कृषि पर निर्भर लोगों की आबादी
सिर्फ 24 करोड़ थी आज लगभग 70-75 करोड़ हो गई है. सरकारी दस्तावेजों में भले ही खेती
की तरक्की हुई हो लेकिन लगातार किसानों की आत्महत्याएं गवाह हैं कि खेती अब इनके
लिए फायदे का सौदा नहीं रहा. अगर होता तो वर्ष 1995-2011 के बीच 7.50 लाख किसान
ख़ुदकुशी नहीं करते. ये आंकड़े सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं. जानकारों का मानना
है कि असल तादाद इससे कहीं ज्यादा है.
खेती पर
निर्भर लोगों की आमदनी में लगातार कमी की वजह से शहरों की ओर पलायन तेज हो चला है.
वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि बीते एक दशक में 90 लाख किसान कम हुए
हैं. बड़ी संख्या में छोटे किसान अब मजदूर बन गए हैं. असल में राजनीतिक पार्टियों
ने किसानों को केवल वोट की मशीन समझा. इस वजह से ये भयावह हालत बने हैं. हमारे देश
में बिना खेती-किसानी जीवन चलाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. कृषि का पूरा
ताना-बाना ही गांवों के इर्द-गिर्द बुना गया है. अगर हम गांवों को नहीं बचा सके तो
खेती बचने का सवाल ही नहीं उठता. इसके लिए जरूरी है कि सरकारें गांवों तक सिंचाई,
पीने का पानी, सड़क, यातायात के साधन, बिजली, कृषि उत्पादों के लिए उचित बाजार,
स्कूल, अस्पताल आदि पहुंचा दे तो एक साथ कई फायदे होंगे. शहरों की ओर पलायन कम हो
जाएगा. किसान खुशियाँ अपने आसपास ही तलाशने में कामयाब हो जाएगा. गाँव और शहर में
भेद मिट जाएगा.
देश में ग्रामीण जीवन को कृषि से अलग नहीं किया जा सकता. कृषि
का भविष्य गांवों पर ही निर्भर है. यदि गांव नहीं रहे तो खेती समाप्त हो जाएगी. गांव
इसलिए जरूरी हैं क्योंकि पांच एकड़ से कम भूमि वाले किसानों की जनसंख्या लगभग 85 प्रतिशत हैं. हाल में आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि
दुनियाभर की आधी दौलत केवल 62 लोगों के पास है. और बाकी आधी में पूरी दुनिया शामिल
है. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि ये 62 लोग बाकी दुनिया से अलग हैं या फिर दुनिया
की बाकी आबादी की कोई भूमिका ही नहीं है. ठीक उसी तरह देश में बहुतेरे बड़े किसान,
उद्योगपति हैं, उन्हें होना भी चाहिए लेकिन लघु-सीमान्त किसानों को छोड़ा नहीं जा
सकता. उन्हें बचाने के लिए जो भी जरूरी कदम उठाये जा सकते हैं, सरकारों को उठाने
ही होंगे. मान लिया जाये कि वर्ष 2050 में
देश की जनसंख्या 160 करोड़ तो ग्रामीण
जनसंख्या इसकी आधी होगी. देश में लघु और सीमांत किसान परिवारों की संख्या 10
वर्ष पहले 9.80 करोड़ थी जो
अब 11.70 करोड़ हो गई है. कृषि जनसंख्या के
आंकड़ों के मुताबिक लघु और सीमांत किसान परिवारों की संख्या 1961 में 62 फीसदी, 1991 में 78 फीसदी, 2001 में 81 फीसदी और 2011 में 85 फीसदी हो गई
है. मतलब यह संख्या लगातार बढ़ रही है. रोचक तथ्य यह भी है कि लघु एवं सीमान्त
किसान कहीं ज्यादा उर्जावान हैं. ये किसान अपने खेतों में 52 फीसदी अनाज, 70 फीसदी
सब्जियां और 55 फीसदी फलों
की पैदावार के साथ 69 फीसदी दूध का
भी उत्पादन करते हैं. जबकि बड़े किसान अपेक्षाकृत कम उत्पादन करते हैं.
आजादी के बाद शहरीकरण विकास की पूर्व शर्त बन गया. सरकारों
के साथ ही लोगों ने भी मान लिया कि बिना शहरीकरण गाँवों की तरक्की नहीं हो सकती. इससे
पलायन बढ़ा और गांव हाशिये पर चले गए. शहरों का विस्तार गांवों तक होता गया. उपजाऊ जमीनें
बिकने लगीं और देखते-देखते कंक्रीट के जंगल खड़े होने लगे और यह सिलसिला अभी बंद
नहीं हुआ है. महंगे बीज, उर्वरक और
कीटनाशक, सिंचाई
साधनों का अभाव, बढ़ती मजदूरी के कारण खेती की लागत बढ़ गई है. ऐसे में किसान कर्ज
लिए बिना खेती के बारे में सोच भी नहीं पा रहा है. केवल वाही किसान बिना कर्ज खेती
कर रहे हैं जिनके घर में शहरों से कुछ आमदनी का स्रोत है. गांवों में कच्चे मकान
गरीबी की पहचान हैं.
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट
कहती है कि यदि कृषि से अलग अन्य कोई स्थाई रोजगार मिले तो देश के 40 फीसदी किसान खेती छोड़ने को तैयार हैं. इन परिस्थितियों में
देश में खाद्य सुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा उत्पन्न हो जाएगा. असल में समय आ गया है
कि सभी राजनीतिक दल एक मंच पर आयें और किसानों देश के सामने खड़े इस संकट पर मंथन
कर खेती को बढ़ावा देने और पलायन को रोकने की नीति जल्दी से जल्दी तैयार करें. ऐसा
नहीं हुआ तो कहीं देर न हो जाये.
यूएनडीपी की 2009 की
रिपोर्ट के मुताबिक खाद्य पैदावार में लघु और सीमांत किसान की बड़ी भूमिका है.
यद्यपि वह खेती अपने लिए करता है फिर भी उसकी हिस्सेदारी 20 फ़ीसदी से जयादा है.
खाद्य एवं कृषि संगठन भी इस बात की तस्दीक करता है. यह देश के हित में है कि छोटी
जोत वाले किसानों की संख्या में बढ़ोतरी होती रहे. राष्ट्र को इन किसानों की उपज
की उत्पादकता बढ़ाने में सहयोग देना होगा. यदि सरकारें ऐसा कर पाती है तो बड़ी
सम्भावना इस बात की है कि देश में किसानों की ख़ुदकुशी के मामलों में कमी आ सकती
है. क्योंकि ख़ुदकुशी के मौजूदा आंकड़े तो डराने वाले हैं.
किसानों की ख़ुदकुशी के मामले में सरकारी मशीनरी का रवैया बेहद शर्मनाक है. अव्वल
तो कोई भी राज्य सरकार और उनके अधिकारी किसान की ख़ुदकुशी आसानी से नहीं मानते. मीडिया
में आई रिपोर्ट को भी झुठलाने में ये अधिकारी समय नहीं लगाते. बुंदेलखंड में
किसानों की ख़ुदकुशी के मामले में उत्तर प्रदेश के आला-अफसरों की एक रिपोर्ट और
जमीनी हकीकत से मैं खुद भी वाकिफ हूँ. सरकारी दस्तावेजों में किसान की ख़ुदकुशी तो
किसी अफसर ने स्वीकार नहीं की अलबत्ता उन मौतों के लिए भांति-भांति के कारण बताते
हुए रिपोर्ट तैयार कर दी. जबकि मौके पर ग्रामीण चीख-चीख कर ख़ुदकुशी को बयाँ कर रहे
थे.
वैसे अपने देश में किसानों की ख़ुदकुशी के मामले ढाई दशक पहले महाराष्ट्र से
सामने आने शुरू हुए. बाद में आन्ध्र प्रदेश से भी ऐसी सूचनाएँ आईं. ख़ुदकुशी करने
वालों में छोटे-बड़े सभी तरह के किसान थे. कई साल तक तो ये खुदकुशियां राज्य
सरकारों और मीडिया के बीच ही उलझी रहीं. बाद में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
ने महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के लिए एक बड़े पैकेज की घोषणा की. बाद में ख़ुदकुशी
का दायरा बढ़ता गया और देश के कई राज्यों तक फैलता गया. नेशनल क्राइम रिकार्ड
ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2009 में सबसे ज्यादा 17 हजार से जयादा किसानो
ने ख़ुदकुशी की. इनमें महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्णाटक और
छत्तीसगढ़ के किसान बड़ी संख्या में थे. एक साल पहले 16 हजार से ज्यादा किसानों की
ख़ुदकुशी के मामले सामने आये. आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि तमाम सरकारी गैर सरकारी प्रयासों के
बावजूद आज भी देश में हर महीने पांच-छह दर्जन किसान मौत को गले लगा रहे हैं.
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