अब दिन-रात पीने-पिलाने के मौके ही मौके

अति पिछड़े राज्य में शुमार बिहार में 1 अप्रैल से शराब नहीं मिलेगी और ठीक इसी तारीख से उत्तर प्रदेश में सस्ती हो जाएगी. सरकार ने अंग्रेजी शराब 25 फ़ीसदी तो देशी दारू भी एक रुपये प्रति लीटर सस्ती करने का फैसला किया है. कुछ दुकानें भी बढ़ जाएँगी इसी अप्रैल से. अब सस्ती भी और घर के पास भी. खूब पियो. जी भर के पियो. कोई रोक-टोक नहीं. केवल घर वाली के बेलन से बचने की अगर जरूरत है, तो ही है. आप के घर में घुसते ही सन्नाटा छा जाता है तो यह भी करने की जरूरत नहीं है. इसका दूसरा मतलब यह भी है कि घर में आप की ही चलती है. तो मस्त होकर खूब पीजिये और सरकारी खजाने को भरिये. सरकार को पैसों की बहुत जरूरत है.
प्रतीकात्मक फोटो (साभार) 
खबरों के अनुसार अकेले लखनऊ में 1.5 करोड़ की शराब रोज यानी 45 करोड़ की हर महीने पी जाती है. 540 करोड़ साल. इतने पैसे में तो कई स्कूल, अस्पताल, अनाथालय बन जाएंगे. कई हजार बेटियों के हाथ पीले हो जाएंगे. हजारों बच्चे स्कूल पहुँच जाएंगे, बेघर लोगों के सिर पर अपनी छत होगी. कई गाँव एक साथ रोशन हो जाएंगे, कुछ गांवों तक सड़कें पहुँच जाएंगी आदि-आदि..अपने देश में हर साल लगभग छह करोड़ लोग भुखमरी के शिकार होते हैं, अगर अकेले लखनऊ के सुरा-प्रेमी चाह लें तो इनमें से ज्यादातर बच जाएंगे...माफ़ करिए ये मैं कहाँ पहुँच गया. मैं बात कर रहा था शराब सस्ती होने और उसके लाभ-हानि की. अगर शराब बिकेगी तो राज्य का खजाना भरेगा. विकास के काम में तेजी आएगी. कुछ न कुछ विकास अभियंताओं, ठेकेदारों और उनके संरक्षक राजनेताओं का भी होगा. आखिर हो भी क्यों न. सब लोग पैसे के पीछे भागते हैं. नेताओं को तो कुछ ज्यादा जरूरत है. चुनाव भी आने वाला है. इतने लाभ के लिए कुछ तो प्रचार बनता है. शराब सस्ती होगी तो लोग स्टॉक भी रख सकते हैं. ज्यादा पी सकते हैं.
यूं भी हमारे समाज में सुरा-प्रेमी दो तरह के होते हैं. एक, वे जो बोतल अपने बेडरूम में ही खोलते हैं. बच्चों से नजर चुराकर पीने का नाटक करते हैं. बच्चे तो अब होशियार ठहरे. उन्हें पता चल ही जाता है. फिर जैसे खास तरीके के सुरा प्रेमी खास तरीके से, मतलब छिप-छिपाकर घर में पीते हैं, अधिकतर मामलों में ठीक वैसे ही उनके बच्चे भी छिप-छिपाकर घर के बाहर करते दिखते हैं. ऐसा न होता तो किसी भी बियर बार में चले जाइए, वहाँ मौजूद 90 फ़ीसदी या उससे भी ज्यादा हमारा नौजवान ही है. दो, ठेके से लेकर घर के अन्दर, मोहल्ले में भी चीख-चीख कर पीते हैं. लोगों को गालियां बकते हैं. लेकिन खास बात यह है कि वे खुद की माँ-बहन को कभी याद नहीं करते. दूसरे की माँ-बहन ही उन्हें दिखती है. हाँ, जब घर वाली टोकेगी तो जरूर इन्हें उसके माँ-बाप-बहन, सब दिखते हैं. ख़राब कानून-व्यवस्था, बढ़ते अपराध से जूझ रहे इस प्रदेश को पैसे कमाने के लिए असल में अब अकेला यही जरिया बचा है. विकास जो करना है. तीन सीटों पर विधान सभा उपचुनाव थे. एक बमुश्किल जीती सत्ताधारी पार्टी. वह भी शायद इसलिए कि स्वर्गवासी विधायक मित्रसेन यादव के सुपुत्र ही मैदान में थे. हिन्दुस्तानी थोड़ा इमोशनल होता है न. दे दिया पिता के नाम पर वोट. फिर मजबूत बहुजन समाज पार्टी मैदान में नहीं थी. उसके वोटों का एक हिस्सा भी निश्चित तौर पर मिला सपा को. अन्यथा सूरत कुछ और होती. क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के अफसरों-नेताओं को लगता है कि देश-प्रदेश का विकास होगा तभी उनका भी होगा इसलिए दे दनादन-किये जा रहे हैं घोषणा. अब इन सब चीजों के लिए पैसा तो चाहिए ही. इसलिए शराब को ज्यादा से ज्यादा बेचने का फैसला ले लिया.
सरकार ने कितनी कृपा की सुरा प्रेमियों पर. बहुत दिन बाद ऐसा हुआ है, जब किसी चीज के सस्ते होने की घोषणा सरकार की ओर से की गई है. अन्यथा, जनता तो महंगाई से परेशान है. उसकी कोई नहीं सुनने वाला. न ही केंद्र और न ही राज्य सरकार. बाकी देशों का तो पता नहीं, लेकिन अपने देश-प्रदेश में किसी भी चीज के दाम पर रोक लगाने का कोई कानून मेरी जानकारी में नहीं है. है तो मैं वाकिफ नहीं. ऐसे में व्यापारी जो चाहे, दाम तय करने के लिए स्वतंत्र है. महंगाई इसलिए भी बेतहाशा बढ़ रही है. कच्चे तेल की कीमतों में ठीक-ठाक गिरावट दर्ज की गई है, उसका सीधा लाभ जनता को उस अनुपात में कम ही मिल पाया. क्योंकि केंद्र ने अपना हिस्सा ज्यादा घोषित कर दिया. मुझे अगर सही याद है तो तीन बार आयात शुल्क बढ़ा चुकी है. क्योंकि उसे भी देश में विकास की नदियाँ बहानी है. मुझे तो लगता है कि सरकारों और आम-खास आदमी में कोई फर्क नहीं. जिसके पास जितना है, उससे ज्यादा चाहिए. अरे भाई, कमाओ. कोई रोकेगा नहीं लेकिन सरकार तो जनता की भलाई के लिए है. उसका ध्यान रखना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. 125 करोड़ की आबादी वाले देश में मुश्किल से 3.5 फ़ीसदी लोग ही आयकर देते हैं. सिर्फ नौ करोड़ लोगों के पास पैन है. अरबों रूपया दबाये बैठे लोग मामूली टैक्स दे रहे हैं, जबकि मामूली वेतन पाने वाले टैक्स देते हुए दबे जा रहे हैं. व्यापारी जितना कमाता है, उसी से पहले अपने सभी खर्च निकाल देता है. गाड़ी, ड्राइवर, फ़ोन बिल, बिजली बिल, इन्टरनेट बिल, होटल बिल सब माफ़. जबकि वेतनभोगी ये सारे खर्चे अपनी जेब से भरता भी है और उसे कोई छूट भी नहीं मिलती. उसे छूट मिलती है बीमा, हाऊसिंग लोन, फिक्स डिपाजिट आदि पर. बाकी पर उसे टैक्स देना ही है.
रहम करो सरकार. जनता पर रहम करो. महिलाओं-बच्चों पर रहम करो. कितना बेहतरीन होता कि सुरा पर टैक्स बढ़ाकर महंगा कर देते और दवाई, डीजल, पेट्रोल, आटा, चावल, दाल, हल्दी, मिर्ची जैसी जरूरी चीजें सस्ती कर देते. बच्चों के लिए दूध सस्ता करते. जनता आप की बल्ले-बल्ले करती. पर कौन समझाए आप को? आप तो खुद ही समझदार हैं.

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