गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-आठ / राष्ट्रीय महा-सभा

श्री गणेश शंकर विद्यार्थी 
राष्ट्रीय महा-सभा कहलाने वाली कांग्रेस के जलसे करांची में सकुशल हो गए. कांग्रेस किसी समय यथार्थ में राष्ट्रीय महा-सभा थी. लेकिन हमें अब उसे इस नाम से पुकारते संकोच होता है. हम उसी को राष्ट्रीय महा-सभा कह सकते हैं, जिसमें राष्ट्र भर के प्रतिनिधियों को एक समान मत प्रकट करने का अधिकार हो. हम मानते हैं, कि वर्तमान कांग्रेस में हमारे देश के बहुत से ऐसे सज्जन शामिल हैं, जिनके देश के नेता और प्रतिनिधि होने में किसी भी समझदार आदमी को संदेह नहीं हो सकता, लेकिन साथ ही कोई विचारवान आदमी इस बात में भी संदेह नहीं कर सकता, कि देश का सारा प्रतिनिधित्व और नेतृत्व का भार केवल इन्हीं सज्जनों पर नहीं. देश में ऐसे सज्जन और भी हैं, जिन्हें जनता के सच्चे प्रतिनिधि होने का सच्चा गौरव प्राप्त है, और जो अपनी विद्वता, चरित्र की शुद्धता, और मातृभूमि के लिए त्याग में शायद ही किसी से कम निकलें. लेकिन इन सारे गुणों के होते हुए भी वे कांग्रेस के पास फटकने भी नहीं पाते, और इसी कारण कांग्रेस के एक दली होने पर, हम उसे राष्ट्रीय महा-सभा कहने में हिचकते हैं. कांग्रेस का आदर्श है-भारतवासियों के लिए स्वराज्य ब्रिटिश छत्र के नीचे और इस आदर्श को दोनों पक्ष के लोग मान चुके हैं.
सूरत में, रंग में भंग होने के बाद, 1909 में, कलकत्ते की अमृत बाजार पत्रिका के दफ्तर में राष्ट्रवादी दल और माडरेट पार्टी के मेल के लिए एक कांफ्रेंस हुई थी. ब्रिटिश छत्र के नीचे स्वराज्य की शर्त के सामने सबने सर झुकाया. लेकिन कांग्रेस के प्रतिनिधि बनने पर दस्तखत करना राष्ट्र-वादियों ने मंजूर नहीं किया. कांग्रेस का एक क्षत्र राज्य माडरेट दल के ही हाथ रहा. हमें इस बात पर बहस नहीं करना है, कि ऐसे हलफनामे पर हस्ताक्षर करना उचित और आवश्यक था या नहीं, लेकिन, प्रजा-सत्ता के उस सिद्धांत के अनुसार जिसका विकास अपने देश में हम चाहते हैं, जिसके अनुसार काम करने का हम मतालबा करते हैं, और जिसके बिना हम आधुनिक संसार के साथ चल नहीं सकते. जिस आदमी को सर्वसाधारण अपना प्रतिनिधि चुने, वह प्रतिनिधि स्वीकार किया जाय, फिर चाहे उसका मत कुछ भी क्यों न हो. यदि उसका मत आप के विरुद्ध है तो आप की कोशिश यह होनी चाहिए, कि आप बहुमत से उसके पक्ष को आगे न बढ़ने दें. लेकिन यदि उसके विरुद्ध आप उसे सर्व-साधारण का प्रतिनिधि मानने के लिए तैयार नहीं और यदि आप उसे राष्ट्रीय महासभा में, जो उसकी भी उतनी ही है, जितनी आप की, स्थान देने और मुंह खोलने देने तक के रवादार नहीं. तो इसमें संदेह है कि आप प्रजा की सत्ता का पूरा सम्मान करते हैं. आप राष्ट्रीय महासभा की पवित्रता का जरा भी ख्याल नहीं करते. आप उन कितने ही स्वत्वों से, जिनके लिए आप दूसरी शक्तियों से हाथ फैलाते हैं, अपने भाइयों को वंचित रखते हैं, और देश में सार्वजानिक स्फूर्ति के विकास को केवल रोकते ही नहीं, किन्तु उसको दाबकर जनता के स्वाभाविक प्रतिनिधियों के आगे बढ़ने के रास्तों को रोककर आप प्रजा की सत्ता के विकास के क्रम को पैरों से रौंदते हैं. हम किसी पक्ष-विशेष से सम्बन्ध नहीं रखते, लेकिन देश की हीन दशा, और उस पर भी जातीय पहिये के पथ में इन संघातिक रुकावटों को देखकर हमें अपने ह्रदय की ये बातें कहानी पड़ी. हम कांग्रेस की आवश्यकता के कायल हैं, लेकिन हम उसे सच्ची राष्टीय महा-सभा के रूप में देखना चाहते हैं. हम चाहते हैं कि वह एकांगी न हो, उसका कोई एक पत्र स्वत्व की पुकार से आकाश भले ही गुंजा दे, लेकिन दूसरे पक्ष के साधारण स्वत्व को तो पैरों तले न कुचले. उसमें जनता के सच्चे प्रतिनिधियों की पैठ हो और जनता के कानों में भी उसकी खबरें पहुंचें. और जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन हम उसे सच्ची कांग्रेस समझ सकेंगे.
नोट-प्रख्यात पत्रकार श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह सम्पादकीय लेख 4 जनवरी 1914 को प्रताप में प्रकाशित हुआ. (साभार)       

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