गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-नौ / एंग्लो इण्डियन पत्रों में खलबली
गणेश शंकर विद्यार्थी जी |
यद्यपि उस समय सरकार का बल कुछ कम हो जाएगा, जब उसे हिन्दू और मुसलमान, दोनों के संयुक्त विरोध का सामना करना पड़ेगा, तो भी उसमें इतनी शक्ति रहेगी कि वह इस धक्के को सह ले. लेकिन, पीछे मुसलमानों को बड़ी हानि पहुंचेगी. मुसलमान हिन्दुओं के पिछलगुए-मात्र रह जाएंगे. हिन्दू राज्यों में मुसलमानों की जैसी हालत है, वैसी ही देश भर में हो जाएगी. सारे उच्च पदों से वे वंचित हो जाएंगे, और वही धार्मिक कार्य वे करने पावेंगे, जो हिन्दू उन्हें करने देंगे. कश्मीर में गोहत्या की सजा फांसी थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार के हस्तक्षेप से यह सजा बदल दी गई. नेपाल में अभी तक गाय को मारने वाले को फांसी मिलती है. स्वराज्य होने पर क़ुरबानी की रीति को बदल ही डालना पड़ेगा. यदि किसी का यह ख्याल हो, कि उस समय तक देश भर के मुसलमान तत्व वादी हो जाएंगे, तो क्या उनका यह भी ख्याल है कि भारतीय स्वराज्य का ब्राह्मण सभापति और ब्राह्मण महा-मंत्री मुस्लिम लीग को नेटाल (उसी देश में, जहाँ के गोरे निवासी अपनी सभ्यता से वहाँ के हिन्दुस्तानियों का बड़ा भारी सत्कार कर रहे हैं.) भाग जाना पड़ेगा, और जो यहाँ बचे रहेंगे, वे अपने कानों पर हाथ रखकर कहेंगे, कि बाबा! राजनीति से हमने कोई मतलब नहीं. अल्पसंख्यक जातियों का यहाँ कोई ठिकाना नहीं है, यह उसी कोलाहल से स्पष्ट है, जो हिन्दुओं ने मुसलमानों के पृथक निर्वाचन पर, देश भर में मचा रखा है. पुराने ज़माने में मुसलमानों को तलवार का आसरा था, सो स्वराज्य काल में उसे जंग नहीं, जंग का सामना करना पड़ेगा. स्वराज्य-काल में, तो मुसलमानों को ये दुःख होंगे, लेकिन ये तो दूर की बातें हैं. उन्हें अभी कष्ट हो रहा है. कष्ट इस बात से, कि लीग कांग्रेस के पीछे-पीछे लुढ़कती जाती है और वह मुसलमानों के बहुत से दुःख-दर्द नहीं कह सकती, क्योंकि हिन्दुओं की नाराजगी से डरती है. मि. अमीर अली के काम का ढंग यह न था. वे अपने भाइयों ही का काम पहिले देखते थे.
संसार में सच्चे हितैषियों का टोटा है और देश के मुसलमानों को अपने पास ऐसे बड़े हितैषी होने के ऊपर गर्व करना चाहिए. हम उन लोगों से सहमत नहीं, जो समझाते हैं, कि देश में हिन्दू राष्ट्रीयता की शक्ति-मयी मूर्ति की स्थापना के लिए हम में बड़े-बड़े षडयन्त्र रचे गए थे या रचे जा रहे हैं. हिन्दू राष्ट्रीयता का ख्याल बहुत दिन से लोगों के सिर के बाहर है. जो ख्याल था और जो अब भी है वह भारतीय राष्ट्रीयता का है, और एक सच्चे हिन्दू के लिए एक साथ एक हिन्दू और हिन्दुस्तानी होने में कोई कठिनता भी नहीं. संभव है कि कुछ लोग ऐसे हों, जिनको मुस्लमान बिल्कुल भी न भाते हों. यदि हिन्दुओं में ऐसे आदमी हैं तो मुसलमानों में भी इसी तरह के पागलों की कमी नहीं. दोनों जातियां एक-दूसरे करोड़ों प्राणियों को हजम नहीं कर सकती. दोनों को एक-एक साथ ही रहना पड़ेगा. कोई भले ही कहे, लेकिन न तो टर्की के दानों से न तो उसका ही पेट पलेगा, और न अरब ही की भूमि में उसकी हड्डियाँ दफ़न हिने जाएँगी. यही भूमि उसे अपने गोद में खिलावेगी, और यही भूमि अंत में उसे अपनी गोद में स्थान देगी. ऐसी अवस्था में, देश की कोई भी जाति दूसरी जाति के पथ का कांटा बनकर नहीं रह सकती. यदि आज वह भटक गई है, और बहकी-बहकी बातें करती है, तो कल कल-चक्र उसकी अक्ल को जरूर दुरुस्त कर देगा. 'इंग्लिश मेन' ऐसे हितैषी देश में मेल नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें डर है कि देश की जातियां मिलकर गवर्नमेंट का विरोध करेंगी.
विरोध जीवन का एक चिन्ह है और उसका न होना हम किसी भी हालत में नहीं चाहते. लेकिन संसार की किसी भी न्याय परायण गवर्नमेंट को पैर उखाड़ देने वाले विरोध की कभी आशंका भी न करनी चाहिए. और साथ ही संसार की कोई भी न्याय-परायण गवर्नमेंट अपनी प्रजा में जाग्रति उत्पन्न होने के डर से इस बात की कभी इच्छा भी नहीं कर सकती कि उसकी प्रजा मिटटी की मूर्ति बनी रहे, या प्रजा के लोगों की आँखें खुलें भी, तो एक दूसरे की गर्दन के लिए.
हिन्दू राज्यों में मुसलमानों की दुर्गति का चित्र खींचा जाता है और देश के स्वराज्य को हिन्दू-स्वराज्य का भयंकर रूप दिया जाता है. नेपाल में गो-हत्यारे को मौत की सजा मिलती है, हम इस सजा को जरूर सख्त कहेंगे. लेकिन, नेपाल अपनी सभ्यता और उन्नति में वैसा ही है, जैसा कि काबुल. अन्य हिन्दू राज्यों में गो-हत्या पर कैद की सजा है, और उस जीव की उपयोगिता और क़ुरबानी की रस्म की बर्बरता पर विचार करते हुए हम उस सजा को अनुचित नहीं कह सकते. हिन्दू राज्यों में हिन्दू-मुसलमानों में विशेष अंतर ही नहीं. ईद पर वहां मनुष्यों की कुर्बानियां होती नहीं सुनी गई. मुसलमानों को उच्च पद मिलते हैं और उनसे बराबरी का व्यवहार किया जाता है. ग्वालियर, जयपुर और पटियाला आदि हिन्दू राज्य उदहारण के लिए पेश किये जा सकते हैं. देश का शासन देश वालों के हाथों में होने पर किसी समझदार आदमी के ह्रदय में भूलकर भी यह बात पैदा नहीं हो सकती कि ब्राह्मण सभापति के डर से देश के मुसलमानों को आतिथ्य सत्कार में प्रसिद्ध नेटालर भूमि की शरण लेनी पड़ेगी, क्योंकि यदि यदि उस समय तक मुसलमानों में समझ आ जाएगी और वे 'तत्ववादी' बन जाएंगे, तो हिन्दू भी निरा घोंघे न बने रहेंगे. और उनकी बुद्धि के विकास और उनके बल की स्थिरता के लिए यह बात जरूरी होगी, कि देश के किसी पद या किसी काम पर किसी जाति विशेष की मुहर न लगी रहे. जब तक देश के सारे निवासियों के लिए सारे दरवाजे नहीं खुल सकेंगे और जब तक देश की कोई भी जाति निर्बलता, अज्ञान और घृणा का लक्ष्य बनाई जाती रहेगी, तब तक देश का राष्ट्रों की श्रेणी में स्थान पाना दुष्कर ही नहीं, असंभव तक है. पैरिया और ब्राह्मण, मोपला और सैयद, ईसाई, जैन, पारसी आदि सभी जब तक मातृभूमि की सेवा के लिए एक समान अधिकार और रस्ते न पाएंगे, तब तक देशोंद्धार का ख्याल स्वप्नमात्र है.
हमें विश्वास है कि अविश्वास की अग्नि ज्यों-ज्यों बुझती जाएगी, और ज्यों-ज्यों एक-दूसरे की कमजोरी का अनुभव देश की और अपनी कमजोरी की तरह होता जाएगा, त्यों-त्यों पृथक निर्वाचन आदि के झगड़े समाप्त हो जाएंगे. हाँ, तलवार जंग नहीं खाएगी, ऐसे 'हितैषी' बने रहें, उसकी जंग खाना-जंगी से छुटती रहेगी.
नोट-प्रख्यात पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह सम्पादकीय लेख प्रताप के 11 जनवरी 1914 के अंक में प्रकाशित हुआ. (साभार)
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