गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-सात / वीरों की दृढ़ता
गणेश शंकर विद्यार्थी जी |
पर, संतोष की बात है, कि नैतिक भीरुता का राज्य सारे संसार पर उतना ही अधिक नहीं, जितना कि इस समय इंगलैंड पर मालूम होता है. गांधी जेल से छूटते हैं, पोलाक कैलनबाच और उसके संगी साथियों को रिहाई मिलती है, और हम देखते हैं, कि अत्याचारियों के कोड़े, जेलखाने और ज्यादतियां उनके नैतिक साहस, और दृढ़ता को अणु मात्र मंद नहीं कर सकी. वे जेल से निकले और ह्रदय, ह्रदय का स्वागत करने आगे बढ़ा. आनंद की लहर बढ़ी लेकिन ऐसी नहीं कि चट्टानें बह जाएँ. संग्राम की भयंकरता और उसमें पूरी दृढ़ता के साथ खड़े रहने का ख्याल हृदयों से एक पल के लिए भी दूर न हुआ. सभाएं हुईं, और दरो-दीवार से दृढ़ता की सदाए आईं. प्रतिज्ञाएँ की गईं, कि जब तक तहकीकात कमीशन में दो मेम्बर और न बढ़ाये जाएँ-हिन्दुस्तानी नहीं, पक्षपात हीन दो यूरोपियन ही, जब तक हड़तालों के दोष, जेल में पड़े सड़ने वाले भाई नहीं छोड़े जाते, और जब तक नेताओं को खानों और खेतों में जाकर अत्याचारों के सबूत इकट्ठे करने की आजादी नहीं मिलती, तब तक कमीशन रुपी दिल जलने वाले इस ढोंग के सामने कोई हिन्दुस्तानी गवाही नहीं देगा. इतना ही नहीं, अपने कष्ट दूर कराने के लिए, अपने माथे से, स्वतंत्र मनुष्य होते हुए भी गुलामों का सा कलंक दूर करने के लिए, आत्मबल द्वारा पशुबल का मुकाबला किया जाएगा. अर्थात निष्क्रिय प्रतिरोध का अस्त्र हाथ में ग्रहण किया जाएगा.
12 हजार वीर पुरुष इस महायज्ञ में अपने शरीरों की आहुति देने के लिए तैयार हैं. और इन हृदयों में जीवन की अग्नि को सुलगाने वाली वही एक पवित्र ज्योति है, जिसका नाम हम गांधी शब्द से लेते हैं. संसार का कोई भी महान-कार्य तपस्या के बिना नहीं हो सकता, और मि. गांधी ने खुद नमूना बनकर अपने वीर साथियों को शारीरिक सुख और विलासिता से नमस्कार करके युद्ध-क्षेत्र में डटे रहने का उपदेश दिया है. जिस आत्मा की महत्ता और पवित्रता ने अभी तक हजारों आत्माओं को कर्म-क्षेत्र में अपमान और कष्ट, जोर और जबरदस्ती का मुकाबला करते रहने में समर्थ किया है उसी आत्मा के ये उपदेश वैसे ही बलवान हृदयों पर कदापि व्यर्थ नहीं आ सकते. देशवासी तैयार रहें, उन्हें अपने भाइयों का, अपने ही नाम और काम के लिए, अभी बहुत कुछ साथ देना है. हमारे भाइयों ने जो मतलब किये हैं, उन्हें कोई भी आत्म-सम्मान का भाव रखने वाला आदमी अनुचित नहीं कह सकता, और हमें अपने भाइयों की व्यथा और स्वार्थ-त्याग की कथा उनको नहीं सुनानी, जिनके ह्रदय में आत्म-सम्मान का भाव नहीं.
नोट-विद्यार्थी जी का यह सम्पादकीय लेख 28 दिसंबर 1913 को प्रताप में प्रकाशित. (साभार)
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