गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-10 / कायदे की तलवार

गणेश शंकर विद्यार्थी जी 
जो बात नहीं होने वाली थी, वह नहीं हुई. हमने उसके हो जाने की आशा ही न की थी, इसलिए हमें उसके न होने पर कोई निराशा नहीं है. देश के समाचार पत्रों और छापेखानों के संचालकों के सिरों पर आठ पहर चौंसठ घड़ी कायदे की पैनी तलवार एक कच्चे धागे के सहारे टंगी रहती है. इस तलवार को हटाने के लिए नहीं, किन्तु केवल उसे जरा मजबूत सूत से बांधने के लिये सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने बड़ी कौंसिल में प्रस्ताव पेश किया था. नतीजे में वही ढाक के तीन पात. स्पीचें हुईं, जबरदस्त दलीलें पेश की गईं, प्रेस की स्वतंत्रता के राग अलापे गए, वायदे याद दिलाये गए, लेकिन अंत में वोट लेने पर सुधार के विरोधियों का दल ही जबरदस्त बैठा. 17 के मुकाबले में विपक्षी 40 निकले.
समाचार-पत्रों की गरमा-गरमी को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए सरकार के पास प्रेस एक्ट के जन्म से पहिले भी अस्त्र थे, इसलिए हम नहीं कह सकते कि किसी समय भी उसे इसकी जरूरत थी. प्रेस एक्ट काफी से ज्यादा कड़ा है, और 'प्रताप' के किसी पिछले अंक में हम उसकी सख्ती दर्शा भी चुके हैं. उसकी धाराओं को आद्योपांत पढ़ जाइए और हमें विश्वास है कि आप को मानना पड़ेगा, कि उसके अनुसार हर दिन देश में न मालूम कितने अपराध होते होंगे? किसी भी समाचार पत्र को उठा लीजिये, यदि उसे जरा भी सच्चाई से प्रेम है, यदि उसे कर्तव्य की पवित्रता का जरा सा भी ख्याल है, और इन बातों के होते हुए यदि वह सामयिक बातों पर अपनी स्वतंत्र सम्मति प्रकट करने की चेष्टा करता है, तो इसमें शक नहीं, कि वह चाहे प्रेस एक्ट के जबरदस्त हाथों से मुक्त भले ही रहे, लेकिन उसके अनुसार वह दोषी अवश्य है. यह तो सरकार की दया, या उसका कसूर है, जो वह उसे प्रेस एक्ट के पंजे से आजाद रहने देती है. स्वतंत्र विचार वाले पत्र ही नहीं, कितने ही परतंत्र विचार वाले पत्र भी ऐसे मिलेंगे, जो हवा की ओर पीठ करके चलना बहुत अच्छी तरह जानते हैं. और इसी बहाव में गुप्त हिमायत के बल पर अपने से कमजोरों की पगड़ियाँ यहाँ तक उछालते हैं, कि वे इस कानून की पकड़ के अन्दर आ सकते हैं. पर, उसे हिमायत के बल से, जिसका उन्हें विश्वास है, उन्हें बे-नकेल के ऊंट की तरह फिरने में जरा सी भी रूकावट पैदा नहीं होती.
मि. बनर्जी के सीधे और बड़े छोटे से प्रस्ताव का विरोध मलिक उमर हियात खां तिरवाना भले ही यह कहकर करें, कि प्रेस एक्ट और कड़ा कर दिया जाय, और यह एक्ट सेडीशस मीटिंग और षडयंत्र बिल ही तो तीन चिरस्मरणीय और उपयोगी कानून वाइसराय की कौंसिल ने अभी तक बनाये हैं. लेकिन हम मि. बनर्जी के प्रस्ताव का जोर से विरोध करते हुए यह कहना उचित समझते हैं, कि प्रेस एक्ट को सुधारने की जरूरत नहीं, उसे तो एकदम रद्द कर देना चाहिए, और देश में विद्या और बुद्धि के विकास को दबाने वाले ऐसे ही कानून तो ब्रिटिश शासन के बड़े भारी कलंक हैं. मि. बनर्जी ने जो सुधार चाहा था उसे भी सुन लीजिये. जिन बातों को छापने से प्रेस और पत्र, और उनकी जमानतें जब्त हों, उन्हें साफ-साफ प्रकाशित कर दिया जाया करे. इसी प्रेस एक्ट के अनुसार उन सारी बातों से पत्र और प्रेस वालों को सूचित करना तो सरकार का कर्तव्य ही है. लेकिन प्रान्तिक सरकारें अभी तक इतना ही करती आई हैं, कि जब्त करने या जमानत मांगने के समय वे सारे शब्दों के स्थान पर पूरे लेख या पूरी पुस्तक का हवाला दे देती हैं, और इसका फल यह होता है, कि कानूनन जब्ती के फैसले के रद्द करने का अख्तियार होते हुए भी हाईकोर्ट ऐसे मामलों में कुछ भी नहीं कर सकता. होना तो यह चाहिए था, कि सरकार कारण बतावे कि वह किन बातों से पत्र और प्रेस को जब्ती के योग्य समझती है? लेकिन कानूनन तलब यह किया जाता है, कि जब्त पत्र या प्रेस का संचालक इस बात की सफाई दे कि उसके लेख या पुस्तक में ऐसी बातें नहीं, जिनसे पत्र या प्रेस, लेखक या पुस्तक जब्त होने के योग्य हो. मि. बनर्जी चाहते थे, कि यदि जब्त लेख या पुस्तक के वे शब्द मालूम हो जाया करें, जो प्रेस या पत्र की जब्ती के कारण हों, तो फिर हाईकोर्ट जब्ती के मामले में पूरा फैसला देने के योग्य हो जाएगा. लेकिन उनकी यह छोटी सी मांग भी पूरी न हुई. और जिस तरह से कौंसिलों में अभी तक प्रजा के पक्ष के प्रस्तावों की दुर्गति होती रही है, उसे देखते हुए हमें मि. बनर्जी के प्रस्ताव के सफलता की जरा-सी भी आशा नहीं थी.

नोट-प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख प्रताप के 18 जनवरी, 1914 के अंक में प्रकाशित हुआ. (साभार)       

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