गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 28 / महात्मा तिलक का छुटकारा
गणेश शंकर विद्यार्थी |
तो भी मुझको मेरे मन ने निर्दोषी बतलाया है.
मानव शक्ति, जिसके आगे कोई भी है चीज नहीं,
ऐसी ऊँची शक्ति सदा संसार चक्र है चला रही.
ईश्वर का संकेत मनोगत दिखलाई यह मुझे पड़े,
मेरे दुःख सहने से ही इस हलचल का तेज बढे.
मिनट बीते, और घंटे बीते, दिन और मास बीते, और अंत में लम्बे छह साल भी बीत गए. पूरे छह वर्ष हुए. देश में एक सिरे से दूसरे सिरे तक आग लगी हुई थी. बुझाने वाले उस पर पानी नहीं छिड़कते थे. उन्होंने उस पर घी छोड़ना अपना कर्तव्य समझ रखा था. ह्रदय के वेगों का प्रेम से आलिंगन नहीं किया जाता था. लोहे के हाथों से उनका गला घोंटा जाता था. उसे सख्ती का जमाना कहें, चाहे परीक्षा का समय, उसमें कितने ही अच्छे अच्छे रत्न भेंट हुए, और उन सब रत्नों में शायद ही कोई इतना उज्जवल, मूल्यवान और प्रभापूर्ण हो, जितना वह नर-रत्न जिसके छुटकारे का समाचार आज देश के हर व्यक्ति की जिह्वा की नोक पर है. आज से छह साल पहले भयंकर कड़ी नीति का आश्रय लेने वाली सरकार की शनि-दृष्टि देश के देशी समाचार पत्रों पर पड़ी थी. एक के बाद दूसरा इस दृष्टि का शिकार हुआ. एक दिन देश को पता चला कि महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध पत्र 'केसरी' के संपादक श्रीमान पंडित गंगाधर तिलक पर भी यही दृष्टि पड़ी है. मुकदमा चला. नौ ज्युरियों में सात यूरोपियन ज्यूरी ऐसे थे जो मराठी का एक अक्षर भी नहीं जानते थे. 24 घंटे 10 मिनट तक अपनी सफाई पर भाषण करने के बाद तिलक ज्यूरियों और जज की नजर में निर्दोष न ठहर सके, और इस कारण से कि देश की शांति को तिलक से बहत ज्यादा धक्का पहुँच रहा है. न्यायमूर्ति ठावर साहब को जरूरत पड़ी कि वे रातों-रात 10 बजे तक अदालत में बैठे रहकर अपना फैसला सुना डालें. आगे जो हुआ, उसके दोहराने की आवश्यकता नहीं.
ऊपर पद्यों में वे प्रसिद्ध शब्द दिए हुए हैं, जो तिलक की जिह्वा से उस समय निकले थे, जब जज ने अपना फैसला सुनाया था. संसार के उपरी पतन और उत्थान पर अगंभीर रूप से विचार करने वाला निर्बल मनुष्य इन शब्दों की हंसी उड़ा सकता है. जैसे स्वप्न में भी उस बल और आशा का ख्याल नहीं हो सकता, जो एक सच्चा दृढ़ पुरुष अपनी दृढ़ता के लिए तलवार की धार पर चलते हुए भी अपने ह्रदय में अनुभव करता है. परन्तु, ये शब्द हैं, जो भारतीय आन्दोलन के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाएंगे, और जिनकी सत्यता के सामने आगे आने वाली संतान केवल सम्मान के साथ ही नहीं, किन्तु प्रेम के साथ भी सिर झुकाना अपना कर्तव्य समझेगी. हम मोती दृष्टि से ही क्यों न देखें, तो भी इन शब्दों की सत्यता से हम तनिक भी निराश नहीं. कौन कह सकता है कि हमारी सरकार आज भी वैसी ही स्वेच्छाचारिणी और देश के प्रतिनिधियों से शून्य है, जैसी वह उस समय थी, जिस समय तिलक ने इन शब्दों को कहा था? कौन कह सकता है कि सरकार वैसी ही सहानुभूति शून्य और भारतीय के स्वत्वों का पद दलन करने वाली आज भी है, जैसी वह उस समय थी? इसमें संदेह नहीं, कि हम अपनी सरकार को जातीय गवर्नमेंट के नाम से इस समय भी नहीं पुकार सकते और हम उस समय तक संतुष्ट नहीं हो सकते, जब तक हमारी गवेर्न्मेंट का बिलकुल भारतीय न हो जाए. तो भी समय का प्रवाह जिस तरह और जिस ओर है उसे देखते हुए हमें विश्वास है कि यदि हमारे ह्रदय साहस और काम करने की इच्छा बनी रही, तो निराश होने की आवश्यकता नहीं. एक दिन आवेगा कि हमें संसार के राष्ट्रों की पंक्ति में स्थान मिलेगा.
कठिन परीक्षा की लम्बी अवधि बीत चुकी. तिलक कैदखाने से घर आ रहे हैं. देश में उनके हजारों और लाखों अनन्य उपासक हैं जो उनकी पूजा देवता की तरह करते हैं. देश में ऐसे आदमी भी हैं, जो उन्हें जातीय उन्नति का घोर शत्रु तक समझते हैं. परन्तु, देश में क्या, विदेश और विदेशियों तक में भी, शायद ही कोई ऐसा सहृदय प्राणी मिले, जो विश्वास के साथ इस बात के कहने का दावा करे कि तलक सच्चा देश भक्त नहीं, पूरा विद्वान् नहीं, और पक्का त्यागी नहीं. फिर इसी देश भक्ति, विद्वता और त्याग के नाम पर क्यों न हम सब अपने भेदभाव छोड़कर हर्ष से नहीं, किन्तु करुणा, प्रेम और आदर से उस महान पुरुष का स्वागत करें, जो अपनी और हमारी सच्ची माता के लिए स्वर्ण की तरह इतना तपा, और जिसने अपने दृढ़ता के लिए अन्य सारे कष्ट भोग चुकने पर भी उस असहाय कष्ट को भोगने के लिए तैयार होना पड़ेगा, जो घर पहुँचने पर अपनी जीवन संगिनी के वर्तमान विछोह, और उसके स्नेहपूर्ण स्वागत से वंचित होने पर उसे होगा.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख प्रताप में 21 जून 1914 को प्रकशित हुआ था. (साभार)
Comments
Post a Comment