गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 33 / घोर जातीय अपमान
गणेश शंकर विद्यार्थी |
निःसंदेह जाति और जाति में फर्क है, किन्तु कुछ भी क्यों न हो, हम भी एक जाति हैं, और हम में भी आमने मान और अपमान के अनुभव का ज्ञान है. विश्व की अगम्य शक्तियों ने इंगलैंड के हाथों में हमें सौंप रखा है. ऐसी अवस्था में स्वभावतः, प्रश्नकर्ता की हैसियत से, हमारी दृष्टि इंगलैंड पर पड़ती है. निःसंदेह इंगलैंड अपने ही झगड़ों में बे-तरह फंसा है. आयरलैंड का स्वराज्य और वोट चाहने वाली स्त्रियों का उधम उसे चैन नहीं लेने देते, किन्तु हमें वे वाक्य अच्छी तरह याद हैं, जो राह में लुट जाने वाली एक बुढ़िया ने महमूद गजनवी से कहे थे कि यदि तू उस देश का चाहे वह बहुत दूर भले ही क्यों न हो, अच्छी तरह प्रबंध नहीं कर सकता, तो तू उसे त्याग ही क्यों नहीं देता? इंगलैंड के लिए भी बुढ़िया की यही बात काफी है. जले पर नमक छिड़कना तब होता है, जब, पक्ष लेना तो दूर रहा, एक कर्तव्य शून्य व्यक्ति की तरह समय की ओर पीठ देते हुए चुप न रहकर भी, इंगलैंड के कुछ पत्र हम दीन-हीन भारतीयों पर ये ताने मारते हैं कि अजी, घर ही में क्यों नहीं बैठते, जबकि तुम्हारे घर में दो लाख वर्गमील भूमि खाली पड़ी है, और उसमें तुम्हें आमदनी हो सकती है. बहुत अच्छा, परन्तु यही बात इन हितैषी महाशयों से भी कही जा सकती है, कि अजी, तुम भी अपने भाइयों को इंगलैंड में ही क्यों नहीं रखते, वहां तो बहुत से मिल हैं, उनकी रोजी उनके द्वारा मजे से चल सकती है. हम इंगलैंड का बुरा चाहने वालों में से नहीं. उससे संसार का बहुत भला हुआ है. कोई कारण नहीं, समय की घड़ियाँ कहती हैं कि इंगलैंड पर नैतिक मुर्दानी छा रही है, और जब से उसके राज्य के एक खण्ड वालों का स्वार्थ दूसरे खण्ड वालों के स्वार्थ के खिलाफ पड़ गया है, और जब से ऐसी अवस्था में उसने बलवान खण्ड के डर से न्याय-पथ नपुंसकता का बाना धारण किया है, तब से उसका वैभव क्षितिज की ओर खिसकता जाता है. उसके भविष्य की उज्जवलता का आधार अब केवल यही है कि या तो वह अपनी वर्तमान नपुंसकता को नमस्कार करे, या फिर अपने राज्य के कम मूल्यवान खण्ड को सलाम कर ले. "सांप छछूदर की गति" में रहने से लोगों में अशांति ही का दौरा बढ़ेगा. परन्तु ये बातें तो दूर की ही हैं, इस समय क्या हो? गुरुनानक के यात्रियों की जो दुर्गति हो रही है, वह जातीयता के नाम पर हमसे क्रिया-शीलता तालाब करती है. वह हमें सन्देश देती है कि संसार में मुर्दों ने, हमें इस तरह के मुर्दों को चलते-फिरते मुर्दे कहना चाहिए, आज तक कुछ भी नहीं किया है. देश के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक, कस्बे-कस्बे और गाँव-गाँव तक में, इस अपमान पर क्रोध और ग्लानि प्रकट करने की आवश्यकता है. हमें देश और जाति के नाम पर इस बार तय करा लेने की आवश्यकता है कि यदि कनाडा वाले हमें कुछ पेंच लगाकर अपने देश में नहीं आने देते, तो उन लगभग तीन हजार कनाडा निवासियों को भी, जो इस देश में आनंद से रहते हैं, उन्हीं की रीति के अनुसार इसलिए यहाँ से निकल दिया जाय, कि वे कनाडा से सीधे भारत नहीं आए और वे संस्कृत या फारसी नहीं जानते.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप' में 26 जुलाई 1914 को प्रकाशित हुआ. (साभार)
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