गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 42 / युद्ध
गणेश शंकर विद्यार्थी |
जर्मन तोपें इस नगर पर आग उगल रही हैं. बेल्जियम वाले अपनी राजधानी ब्रुशेल्स से उठाकर इस नगर में लाये थे, यहाँ भी मुसीबत ने उन्हें आ घेरा. अब वे आस्टेन्ड नगर को अपनी राजधानी बना रहे हैं. जर्मनी में फौजी तैयारी इस दर्जे तक बढ़ गई है कि 15 वर्ष के लड़के तक सिपाहियों का बाना धारण कर रहे हैं. इस बात से जर्मनों में पुरुषत्व के गुण का अच्छा परिचय मिलता है. परन्तु दुःख की बात है कि पुरुषत्व के साथ-साथ उनमें स्वेच्छाचारिता की गाथा बहुत अधिक है. उनकी स्वेच्छाचारिता की पहली कथाएं तो पाठक सुन ही चुके हैं, नै बातें हैं फ्रांस के प्राचीन नगर रीम्स के अतिप्रसिद्ध गिरजे को नष्ट-भ्रष्ट करना. संसार भर के सभ्य देश इस योरोपीय ताजमहल के नाश पर जर्मनी की इस नादिरशाही पर बेतरह बिगड़े. रोम के पॉप ने भी जर्मन कैसर को फटकारा. जर्मनी ने इन बातों को सुना और उसने उस जनरल को पद से गिरा भी दिया, जिसका यह काम था, परन्तु साथ ही, वह अपने इस कुकृत्य पर तनिक भी लज्जित नहीं है. इस पर भी तुर्रा यह को जर्मनी में आवाज उठी है कि जापान तो 'काफ़िर' है. इंगलैंड को ईसाई राष्ट्रों से इस युद्ध में उस 'काफ़िर' को साथ नहीं लेना चाहिए था. ठीक! 20 वीं शताब्दी की ईसाइयत, जर्मन शब्दकोष के हिसाब से, इस समय अपना पूरा पक्का परिचय योरोपीय रणक्षेत्र में दे रही है. और संसार को महात्मा ईसा के नए प्रतिनिधियों-स्वेच्छाचारी कैसर और उसके स्वच्छंद सिपाहियों का स्वागत करना चाहिए.
भारत में भी युद्ध की छींटें पड़ी. जर्मन जहाज एमडन ने मद्रास पर गोले बरसा दिए. बस, देश भर में तहलका मच गया. मद्रास पर 25 गोलियां गिरी थीं, जिससे तेल के दो हौज जल गये. कोई साढ़े तीन लाख की हानि हुई और लगभग 20 आदमी मरे. मद्रास में तो भगदड़ मच गई, और यही काम इस समय कलकत्ता में मारवाड़ी लोग कर रहे हैं. मद्रास से चलकर एमडन ने पांडिचेरी में दर्शन दिए. फिर उसके पीछे तीन अंग्रेजी क्रूजर हो गए. इस समय तो वह लापता है, पर है छुपा हुआ. युद्ध की और भी छोटी-मोती बातें सुनिए. हालैंड से जर्मनी को खाद्य पदार्थों और व्यापर में अच्छी सहायता मिल रही है. और सांठ-गाँठ का भी संदेह है. इसलिए इंगलैंड ने हालैंड की चीनी की आमद अपने यहाँ बंद कर दी. कनाडा ने साढ़े 31 हजार सैनिक और 300 तोपों की सहायता इंगलैंड को दी है.भारतीय सेना फ्रांस में पहुँच गई. धूमधाम से उसका स्वागत हुआ. उसकी तारीफ में आकाश-पाताल एक किये जा रहे हैं. लार्ड कर्जन साहब ने भी 'दान', न्याय और सत्य, की बात कहकर भारतीय सिपाहियों की बड़ी बड़ाई की है. पर, इन हजरत की बातों का ठिकाना ही क्या, क्योंकि भारतीय जब तक अपने को भारतीय समझता है, लार्ड कर्जन के न भूलने योग्य उन शब्दों को कदापि नहीं भूल सकता, जो उन्होंने भारतीयों के चरित्र के विषय में कहने का उस समय कष्ट उठाया था, जब भारत उनके पैरों में सिर झुकाए हुए था.
आस्ट्रिया की समुद्री सुरंगों से इटली की कुछ हानि हुई, बस, इटली ने इसी पर आँखें नीली-पीली कर लीं. आस्ट्रिया का तो इस समय बुरा हाल है, लड़ाई उसकी जान की ग्राहक हो रही है, और उधर रूस उसका गला घोंटे जा डालता है. उसे अपने प्राणों की पड़ी है, वह नया दुश्मन नहीं खड़ा करना चाहता. खासकर ऐसा बगली दुश्मन, जैसा कि इटली हो सकता है या भीतरी ढंग से है, इसीलिए नम्रता से उसने इटली को मना लिया. उधर टर्की ने पर निकाले हैं. डारडेन लीज का मुहाना बंद कर दिया है. रूस से इंगलैंड को गेहूं न पहुँच सकेगा. मित्र राष्ट्र टर्की की इस चल से मन ही मन नाराज हैं. डर है कि कहीं यह छोटी सी बात आगे भयंकर रूप धारण न कर ले. जर्मनी की सुरंग नीति से इंगलैंड अधीर हो उठा है. अब वह भी सुरंगों की माया समुद्रों से ही फैलावेगा. एक दिन संसार यह सुनकर चकित हो गया कि जर्मन सेना रूस में 18 मील घुस गई. सुनते तो थे कि रूस जर्मनी में घुसा हुआ है, पर यहाँ तो उलटी ही बात निकली. पर अब जर्मनी की गति उस ओर रोक दी गई है, और रूस फिर अपने ही ढंग की ले रहा है. रूस के जार युद्ध क्षेत्र में पहुंचे हैं, और रूस में जर्मनों की हार की खबरें भी आने लगी हैं. सारांश, स्थिति यह है कि ऐन पर वैसा ही जमघट है, रूस में बढ़े हुए जर्मनी को हटाना पड़ रहा है, और यही हाल आस्ट्रिया का है-यद्यपि क्राको की लड़ाई से, जिसका श्रीगणेश हो गया है, आस्ट्रिया अपनी जीत की हांक मार रहा है. इटली सबको चुपचाप देख रहा है और टर्की भी किसी फेर में है. रोमानिया के राजा कैसर का पक्ष लेना चाहते हैं, पंरतु प्रजा मित्र राष्ट्रों का. सुदूर अमेरिका में युद्ध की गरमा-गरमी शांत होने के लिए गिरिजाघरों में शांति पाठ हो रहा है.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख प्रताप में 11 अक्टूबर 1914 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)
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