ईमान गिरता गया, सड़क, पुल ढहते गए
कोलकाता में गुरुवार को निर्माणाधीन फ्लाई ओवर अचानक गिरने से 24 लोगों की मौत हो गई. सौ के आसपास घायल हो गए. अपने देश में ऐसी ख़बरें आम हैं, क्योंकि अब सीमेंट, बालू, मौरंग, गिट्टी, कम और भ्रष्टाचार का मटीरियल ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने की होड़ इंजीनियरों, ठेकेदारों और इन महकमे से जुड़े अफसरों में मची हुई है. यह एक ऐसा सच है जिससे, हर आम व खास वाकिफ है लेकिन कोई बोलना नहीं चाहता. और जो बोलता है, उसकी कोई सुनवाई नहीं होती. अलबत्ता, जान पर जरूर बन आती है. ऐसे ढेरों किस्से आम हो चुके हैं. जिसने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई, वह कम हो गया. शोर जितना भी हुआ हो, मृतक के परिवारीजनों को पैसे कितने भी मिले हों, लेकिन अंतिम खबर यही है कि आवाज उठाने वालों को ही दबाने की परम्परा सी चल पड़ी है अपने देश में.
कोलकाता का यह पुल 2009 में बनना शुरू हुआ था. 2012 में इसे पूरा हो जाना था, पर ऐसा हुआ नहीं. अभी 2016 के तीन महीने गुजरने के बाद भी काम 70 फ़ीसदी ही पूरा हुआ था. इसमें से भी एक बड़ा हिस्सा गिर गया. अब इस पर जाँच का ड्रामा होगा. कुछ लोगों का निलंबन होगा. मुकदमे दर्ज होंगे. कुछ लोग गिरफ्तार भी होंगे. उसके बाद क्या होगा, यह कोई नहीं जान पाएगा. क्योंकि सब कुछ 'मैनेज'हो जाएगा. कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस पुल का निर्माण कम्युनिस्ट सरकार ने शुरू कराया, वह अब ममता दीदी के कार्यकाल में ख़त्म होने को है, पूरा नहीं हुआ. क्या बात इस पर नहीं होनी चाहिए? पर, फुर्सत किसके पास है? गुरुवार को जब यह खबर आम हुई तो मैं दो सरकारी अफसरों के साथ बैठा था. मैंने सवाल दागा-अरे आज 31 मार्च है और आप लोगों के चेहरे पर तनाव बिलकुल नहीं दिख रहा. दोनों ने कहा अब वह पुराना सिस्टम नहीं है. चीजें पहले से ही ठीक कर ली जाती हैं. सिंचाई विभाग के एक इंजीनियर बताते हैं कि अब मौजूदा सिस्टम में जो शामिल नहीं होगा, उसे दिक्कतें ज्यादा, सुविधाएँ कम मिलेंगी. उत्तर प्रदेश में सरयू नहर परियोजना है. बहराइच से निकलकर उसे गोरखपुर जिले तक के खेतों की सिंचाई करनी थी. सन 78 में शुरू हुई यह परियोजना अभी तक पूरी नहीं हुई. कब पूरी होगी, कोई नहीं जानता. एक इंजीनियर बता रहे थे कि अब तो इस परियोजना में पैसा भी नहीं है. दिक्कत यह है कि बीच-बीच में ढेरों किसान ऐसे हैं जो बढ़ी हुई मुआवजा दर लेने को भी तैयार नहीं हैं. साफ है कि नहर शुरू होने से पहले ही पट भी जाएगी. और अगर कभी पानी आया भी तो एक बार फिर से इस नहर की खुदाई करनी होगी. मतलब 38 साल गुजर गए. करोड़ों रुपये लग गए लेकिन परियोजना पूरा होने को तैयार नहीं. अभी लगभग 30 साल में भिंड से इटावा के बीच एक रेल लाइन बनकर तैयार हुई है. दूरी है महज 30 किलो मीटर.
कानपुर में जाजमऊ से लेकर रामादेवी चौराहे का फ्लाई ओवर और उन्नाव-लखनऊ मार्ग का रेल फ्लाई ओवर. ये दोनों लगभग 10 बरस में पूरे हो पाए है. कितने ठेकेदार भागे, बदले, केवल दस्तावेज पढ़ कर ही कोई बता सकता है. इस चक्कर में लागत कई गुना बढ़ गई. इसके बावजूद, उन्नाव पुल पर तो अगर थोड़ी सी भी सावधानी हटी तो दुर्घटना तय है. लखनऊ-गोरखपुर मार्ग पर किसी भी कर चालक को लगभग 350 रूपये एक तरफ से केवल टोल के देने होते हैं. लेकिन रास्ते में पड़ने वाले कई पुलों की हालत ऐसी है कि कभी भी हादसे को दावत देते ही रहते हैं. चाहे भेलसर का पुल हो या फिर सहजनवा का. बस्ती का हो या फिर फ़ैजाबाद-अयोध्या का, हाल सबका बुरा है. विकास कार्यक्रमों में देरी हमारे यहाँ का फैशन बन गया है. काम में गुणवत्ता की तो बात भी अब नहीं होती. क्योंकि यह सबको शूट करता है. कोई भी सरकार अधिकतम पांच साल के लिए आती है. ढेरों प्रोजेक्ट ऐसे दिखते हैं, जो मौजूदा सरकार में शुरू होते हैं. बीच में एक सरकार के जाने के बाद ही उनका काम पूरा हो पाता है. हमीरपुर के पास यमुना पर बना पुल अक्सर ही घायल हो जाता है. गोरखपुर में राप्ती नदी पर एक पुल बन तो गया है लेकिन उसे दोनों छोरों से जोड़ा नहीं गया है, नतीजा, जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा डूबा ही मानिये. क्योंकि इस पुल का कोई फायदा जनता को नहीं मिल पा रहा है. भ्रष्टाचार के एक नहीं, अनेक किस्से सुनने को मिलते हैं. अब सरकारी भवन, पुल बनते बाद में हैं, गिरते पहले हैं. इस हालत के लिए कमजोर, भ्रष्ट तंत्र दोषी है. सब जानते हैं लेकिन कोई कुछ इसलिए नहीं बोलता, करता क्योंकि सबको बड़ी वाली गाड़ी, राजमहल जैसी कोठियां, एक नहीं, कई-कई चाहिए. अब यह सब भला एक नंबर की रकम से तो होने से रहा. कमजोर और घटिया निर्माण करने वाले ठेकेदार और इंजीनियर यह भूल जाते हैं कि इनके घर के लोग भी उस सड़क, पुल से गुजरते हैं. हादसा उनके साथ भी हो सकता है लेकिन हाय पैसा-है पैसा, के आगे सब बेमतलब, बेमकसद दिखता है.
अंग्रेजी ज़माने की कई बिल्डिंगे आज भी यह दावा करती दिखाती हैं कि वे दुश्मन ही सही, आजकल के दोस्तों/अपनों से तो अच्छे ही थे. कम से कम उनके बनाये भवन, पुल, सड़क आज भी बेहतर हालत में हैं. उम्र के हिसाब से हमारे इंजीनियरों ने उन्हें भले ही बेमकसद घोषित कर दिया हो लेकिन उनका उपभोग अभी भी हम कर पा रहे हैं. वह भी पूरे भरोसे से. मैं तो अपने प्रधानमंत्री जी से गुजारिश करना चाहूँगा कि वे इस दिशा में कोई ठोस पहल करें. केवल भाषण के जरिये भ्रष्टाचार नहीं मिटने वाला. इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे. अफसर-ठेकेदार-इंजीनियर-नेता गठजोड़ तोड़े बिना बेहतर और मजबूत निर्माण की कल्पना भी बेमानी है. और इसे तोड़ना इतना आसन भी नहीं. अगर यह भ्रष्ट तंत्र नहीं टूटा तो तय मन लीजिये, यह गठजोड़ ऐसे ही लोगों की जानें लेता रहेगा. जांचे होती रहेंगी और यह तंत्र अपनी कोठियों-गाड़ियों की संख्या बढाता रहेगा. बस.
इंजीनियर-ठेकेदार-अफसरों के गठजोड़ का नतीजा है कोलकाता में निर्माणाधीन पुल का गिरना |
कानपुर में जाजमऊ से लेकर रामादेवी चौराहे का फ्लाई ओवर और उन्नाव-लखनऊ मार्ग का रेल फ्लाई ओवर. ये दोनों लगभग 10 बरस में पूरे हो पाए है. कितने ठेकेदार भागे, बदले, केवल दस्तावेज पढ़ कर ही कोई बता सकता है. इस चक्कर में लागत कई गुना बढ़ गई. इसके बावजूद, उन्नाव पुल पर तो अगर थोड़ी सी भी सावधानी हटी तो दुर्घटना तय है. लखनऊ-गोरखपुर मार्ग पर किसी भी कर चालक को लगभग 350 रूपये एक तरफ से केवल टोल के देने होते हैं. लेकिन रास्ते में पड़ने वाले कई पुलों की हालत ऐसी है कि कभी भी हादसे को दावत देते ही रहते हैं. चाहे भेलसर का पुल हो या फिर सहजनवा का. बस्ती का हो या फिर फ़ैजाबाद-अयोध्या का, हाल सबका बुरा है. विकास कार्यक्रमों में देरी हमारे यहाँ का फैशन बन गया है. काम में गुणवत्ता की तो बात भी अब नहीं होती. क्योंकि यह सबको शूट करता है. कोई भी सरकार अधिकतम पांच साल के लिए आती है. ढेरों प्रोजेक्ट ऐसे दिखते हैं, जो मौजूदा सरकार में शुरू होते हैं. बीच में एक सरकार के जाने के बाद ही उनका काम पूरा हो पाता है. हमीरपुर के पास यमुना पर बना पुल अक्सर ही घायल हो जाता है. गोरखपुर में राप्ती नदी पर एक पुल बन तो गया है लेकिन उसे दोनों छोरों से जोड़ा नहीं गया है, नतीजा, जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा डूबा ही मानिये. क्योंकि इस पुल का कोई फायदा जनता को नहीं मिल पा रहा है. भ्रष्टाचार के एक नहीं, अनेक किस्से सुनने को मिलते हैं. अब सरकारी भवन, पुल बनते बाद में हैं, गिरते पहले हैं. इस हालत के लिए कमजोर, भ्रष्ट तंत्र दोषी है. सब जानते हैं लेकिन कोई कुछ इसलिए नहीं बोलता, करता क्योंकि सबको बड़ी वाली गाड़ी, राजमहल जैसी कोठियां, एक नहीं, कई-कई चाहिए. अब यह सब भला एक नंबर की रकम से तो होने से रहा. कमजोर और घटिया निर्माण करने वाले ठेकेदार और इंजीनियर यह भूल जाते हैं कि इनके घर के लोग भी उस सड़क, पुल से गुजरते हैं. हादसा उनके साथ भी हो सकता है लेकिन हाय पैसा-है पैसा, के आगे सब बेमतलब, बेमकसद दिखता है.
अंग्रेजी ज़माने की कई बिल्डिंगे आज भी यह दावा करती दिखाती हैं कि वे दुश्मन ही सही, आजकल के दोस्तों/अपनों से तो अच्छे ही थे. कम से कम उनके बनाये भवन, पुल, सड़क आज भी बेहतर हालत में हैं. उम्र के हिसाब से हमारे इंजीनियरों ने उन्हें भले ही बेमकसद घोषित कर दिया हो लेकिन उनका उपभोग अभी भी हम कर पा रहे हैं. वह भी पूरे भरोसे से. मैं तो अपने प्रधानमंत्री जी से गुजारिश करना चाहूँगा कि वे इस दिशा में कोई ठोस पहल करें. केवल भाषण के जरिये भ्रष्टाचार नहीं मिटने वाला. इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे. अफसर-ठेकेदार-इंजीनियर-नेता गठजोड़ तोड़े बिना बेहतर और मजबूत निर्माण की कल्पना भी बेमानी है. और इसे तोड़ना इतना आसन भी नहीं. अगर यह भ्रष्ट तंत्र नहीं टूटा तो तय मन लीजिये, यह गठजोड़ ऐसे ही लोगों की जानें लेता रहेगा. जांचे होती रहेंगी और यह तंत्र अपनी कोठियों-गाड़ियों की संख्या बढाता रहेगा. बस.
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