गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 43 / योरप के नक़्शे में परिवर्तन

गनेश शंकर विद्यार्थी 
योरप में इस समय जो युद्ध हो रहा है, वह आज न सही, तो कल अवश्य होता. उसे सदा के लिए किसी प्रकार भी नहीं टाला जा सकता था. योरप के राष्ट्र केवल दिखाने को शांति-शांति रटा करते थे, भीतर ह्रदय में उनके खूब ही गुबार भरे हुए थे और एक दूसरे पर झपटने के लिए वे दिन ब दिन अपना फौजी खर्च बढ़ाते जाते थे. लोग समझ चुके थे कि शांति देवी के ये उपासक एक बार एक दूसरे का रक्त बहाकर अपने दिल का हौसला पूरा करेंगे.


इंगलैंड के सुप्रसिद्ध समाचार पत्र लेखक मिस्टर स्टेड सदा शांति का स्वप्न देखा करते थे. उन्होंने संसार से लड़ाई की भीषणता के दूर कर देने के लिए बहुत प्रयत्न भी किया था, पर वे भी समझते थे कि योरप की शांति का जन्म रक्त से भीगे हुए रण-क्षेत्र में होगा, सादे कागजों पर नहीं. लेकिन, सैनिक आडम्बर ही एक ऐसी चीज नहीं, जिससे हमें इस युद्ध का सन्देश मिला. और भी कितनी ही बातें हैं और उनमें से एक यह भी है कि योरप की अब तक की गति संसार को पीछे घसीट रही थी. सभ्यता और जनता की महिमा के गले में फांसी का फंदा पड़ चुका था और वे स्वेच्छाचारियों की ठोकरों का निशाना बन रही थी. जिन्होंने सूक्ष्म दृष्टि से इस बात को देखा है कि इस 20 वीं शताब्दी में भी योरप के कितने ही सुसभ्य भागों में स्वेच्छाचारियों की स्वेच्छाचारिता और सभ्य जातियों की पराधीनता, नियम-बद्धता और स्वाधीनता का जामा पहिने हुए संसार की आँखों में धुल डालने को मौजूद हैं. कैसर का लोहे का हाथ किसी के गले से स्वतंत्र आवाज नहीं निकलने देता. जार का पैर कितने ही देशों और जातियों की छाती पर है, और आस्ट्रिया का साम्राज्य भानमती के थैले से मनुष्यों की जीती जागती मूर्तियों को अपने इशारे पर नचाता है. वे लोग इस बात से कदापि इनकार नहीं कर सकते कि वे समझते थे कि अमृत और विष का यह गंगा-यमुनी मेल योरप में किसी दिन एक भयंकर तूफ़ान खड़ा कर देगा. इस समय वह तूफ़ान चल रहा है, मैदान भले ही किसी के हाथ रहे. दोनों अवस्थाओं में योरप का चेहरा बदल जाएगा.
यदि हम मान लें, कि जर्मनी जीतेगा, तो हमारे नेत्रों के सामने वह नक्शा घूम जाता है, जो 'रिव्यू ऑफ़ रिव्यूज' नाम की अंग्रेजी मासिक पत्रिका में हाल ही में निकला है. जर्मनी का झंडा लगभग सारे योरप पर फहराएगा. फ्रांस, बेल्जियम, हालैंड, स्विट्जरलैंड, इटली, रूस का बड़ा भाग, डेनमार्क, स्वीडन, नार्वे, इंगलैंड, टर्की आदि देश जर्मनी के पैरों पर सिर झुकाए हुए दीख पड़ेंगे, और कम से कम योरप में तो जर्मनी के इशारे के बिना पत्ता भी नहीं हिलेगा. परन्तु, हम जर्मनी की जीत को संभव नहीं समझते, और न हम उसकी जीत का होना किसी प्रकार भी अच्छा समझते हैं. दूसरी बात इसलिए नहीं, कि हम इंगलैंड की प्रजा हैं, और इसलिए हमें उसकी हार और उसके शत्रु की जीत न मानना चाहिए, परन्तु, यथार्थ में इसलिए, कि हम जर्मनी की जीत में एक बड़ा ही भयंकर दृश्य देखते हैं. हम देखते हैं कि संसार की उन्नति का पहिया पीछे घूम जाएगा. स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता मानव-उन्नति के विशाल मंदिर की जड़ खोदने लगेगी. और उन महान आत्माओं का सारा किया कराया मिट्टी में मिल जाएगा. जिन्होंने इस मंदिर पर पुष्प चढ़ाने के लिए अपना खून बहाया था.
परन्तु, यदि हम एक पक्ष में स्वेच्छाचारिता की वृद्धि नहीं चाहते, तो साथ ही, हम यह भी नहीं चाहते कि, दूसरा पक्ष पाहिले पक्ष की हार पर इतराकर पृथ्वी पर कदम रखना भूल जाए. क्या जर्मनी की हार पर ऐसा नहीं होगा? क्या इंगलैंड जर्मनी के उपनिवेशों पर हाथ साफ करना उचित नहीं समझेगा? क्या योरप का भालू रूस आस्ट्रिया के एक बड़े भाग को हड़प नहीं जाएगा? और क्या इटली अपनी ताक में अन्हीं है? और क्या इस छीना-झपटी का सभ्यता पर, जनता की महिमा पर, सैनिक आडम्बर के प्रश्न पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा? कभी नहीं. राष्ट्रीयता के इस युग में जीते-जागते राष्ट्रों को पैरों से कुचल डालना कोई सहज काम नहीं. जर्मनी का सिर भले ही इस समय कुचल दिया जाए, लेकिन उसका यह घाव उसके जीते-जागते ह्रदय को उस समय तक चैन न लेने देगा, जब तक वह अपना बदला न ले ले, जैसा कि हम इस समय फ्रांस के उदहारण से देख रहे हैं. इसलिए, युद्ध के बाद संसार की यह इच्छा है कि योरप की तलवार सदा के लिए म्यान में चली जाए और योरोपियन राष्ट्रों का ऐसा संघ बन जाए कि फिर एक राष्ट्र दूसरे की गर्दन न नापें. तो आवश्यकता है कि विजय होने पर मित्र-राष्ट्रों का व्यवहार अपने शत्रुओं के साथ बहुत अच्छा रहे. बुद्धिमान लोग इस बात को अच्छी तरह समझ गए हैं, और इंगलैंड के कितने ही आदमियों ने, जिनमें सुप्रसिद्ध मिस्टर रेमजे मेकडानल्ड भी शामिल हैं, एक घोषणा पत्र में इसी प्रकार के विचार प्रकट किये हैं.
हर तरह से योरप का वर्तमान नक्शा बदलेगा, परन्तु बुद्धिमत्ता और संसार का कल्याण इसी में है कि वह इस ढंग से बदला जाए, कि फिर उसका रूप शीघ्र ही न बदलना पड़े. कोई राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के अंग को न तोड़े. जो भाग टूटता सा जान पड़े, उसे स्वाधीनता देकर एक पृथक राष्ट्र बना दिया जाए. पोलैंड अलसास, लारेन, ट्रांसलवेनिया, बौसनिया, हर्जागोवना, हंगरी आदि के विषय में ऐसा होना बहुत ठीक होगा. यदि ऐसा न हुआ, तो जर्मनी को कुचल चुकने के बाद योरप के राष्ट्र दूसरे युद्ध के लिए तैयार रहें, और उसमें शायद रूस जर्मनी का खेल खेलेगा और जर्मनी फ्रांस का.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 18 अक्टूबर 1914 को 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था. (साभार)

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