गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 52 / कांग्रेस-लीला
गणेश शंकर विद्यार्थी |
कल्पना की जाती थी कि देश में जो दो राजनीतिक दल अलग-अलग रास्तों पर खड़े अपनी शक्तियों को बिखेरे हुए हैं, वे कम से कम अपनी उद्देश्य सिद्धि के लिए एक दूसरे का हाथ थाम आगे बढ़ेंगे. आज इस कल्पना का मूल्य शेखचिल्ली के किसी भी विचार से कम नहीं है. कांग्रेस के बड़े-बड़े महारथियों ने जोर लगाया, और जोर लगाया उन्होंने भी, जो देश की हित चिन्तना के विचार से या सुनसान मैदान में अपने अकेले निष्क्रिय पड़े रहने से बचने के लिए अपने मान और गौरव को मेल के इस दांव पर अड़ने को तैयार हो गए थे. न्याय की लगती पूछिए, तो इसमें संदेह नहीं कि उस दल के कुछ लोग, जो 'नरम' के नाम से मशहूर हैं, जी जान से मेल चाहते थे और उन्होंने इसके लिए कोशिश भी की. यदि कुछ नहीं हो सका या किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की जिद के सामने इनकी नहीं चली, तो यह इनकी, (यदि इनके साथी अधिक थे, जैसा कि मालूम पड़ता है कि थे) कमजोरी थी, परन्तु साथ ही यह कमजोरी क्षम्य है-क्षम्य कई कारणों से, जिनके कहने की आवश्यकता नहीं, और उस कमजोरी, उस भीरुता, उस पतन से कहीं थोड़ी और कुछ भी तुलना न रखने वाली, जो 'गरम' कहलाने वाले दूसरे दल ने इस विषय में पग-पग प्रकट की. कहाँ तो वह गरमागरमी, कि बस 'नरमों' की इस कांग्रेस का हम साथ ही नहीं दे सकते, इसका तो फिर से जन्म संस्कार होना चाहिए, यह 'कन्वेनशनियां' कांग्रेस है. सरे देश की सलाह बिना बना हुआ इसका कोड आत्महत्या का वारंट सा है, यह जीवित नहीं, मुर्दा चीज है, यह यथार्थ वस्तु नहीं, ढांचा है, नकल है, इत्यादि-इत्यादि, और कहाँ फिर यह फीकापन, कि यह कांग्रेस, और पूरी कांग्रेस, हम इसमें शामिल होने को तैयार हैं, हमें मिला लो, किसी बड़े संस्कार की आवश्यकता नहीं, बस, प्रतिनिधियों के चुनने के विषय को तनिक-सा बदल दो. साधारण सभाओं के प्रतिनिधियों के चुनने की बात नहीं मान सकते, तो लो-घुटनों के बल हम अर्ज करते हैं-उन संस्थाओं द्वारा की गई सभाओं के चुनाव को ठीक मान लो जो तुम्हारे कन्वेंसन के पहले नियम को मानती हों. ओह, कैसा गहरा पतन! और उसके लिए, जिसकी नीति का मुख्य शब्द 'स्वावलंबन' रहा हो. जिसने अपने पैरों पर खड़े होने का सन्देश लोगों को सुनाया हो. हम मानते हैं, नहीं, संसार जानता है-यह कोई भेद नहीं-कि हाथ पसारने वाले की कम से कम कोई कदर नहीं. 'बिन मांगे मोती मिले, और मांगे मिले न भीख' का मसला गलत हो या सही, परन्तु हाथ फ़ैलाने वाले की कदर की बात कभी गलत नहीं.
यहाँ भी यह सच निकली-और अक्षर-अक्षर सच निकली. जीने सामने हाथ पसरा गया, उन्होंने मुंह फेर लिया, और यदि 'दूसरा दरवाजा देखो' नहीं कहा गया, तो कौन कह सकता है उससे कुछ ही कम रूखा 'फिर फेरा लगाना' नहीं कहा गया. क्या हमें फेरी लगाने वालों की असफलता पर दुःख है? बिलकुल नहीं, उनके पतन पर दुखित होना कमजोरी के जनाजे पर मातम करना है. हम उनके इतिहास के पन्ने से शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं. अधिक से अधिक हमें उन पर तरस आ सकता है. हमें दुःख भी है-और वह देश की दुर्दशा पर, जिसकी उस महासभा में, जिसमें विदेशी सरकार से अधिकार मांगे जाते हैं, कुछ व्यक्तियों की स्वेच्छाचारिता इतनी बढ़ी-चढ़ी हो, कि उसके कारण एक ही उद्देश्य रखने वाले देश के एक बड़े भारी भाग को उसमें योग देने का अधिकार न हो. कबीर के उल्टे पद्यों को समझने के लिए कबीरपंथी होने की आवश्यकता नहीं. परन्तु देश की महासभा की भूल भुलैयों के भेद को समझने के लिए केवल इसी देश में पैदा होने की आवश्यकता नहीं, कांग्रेस के उद्देश्य का मानने वाला होना भी जरूरी नहीं, उसके लिए आवश्यक है खास ढंग के, खास सम्प्रदाय के, खास गद्दी के चेले होने की, और याद रखिये, कि देश की अधोगति के समय में-सिद्धांतों के बजाय व्यक्तियों के राज्य-काल में-इन्हीं खास महात्माओं के हाथों में देश सेवा और देश की बात जान सकने का ठीका है.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप' में 4 जनवरी 1915 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)
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