गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 53 / टेढ़ी चालें
गणेश शंकर विद्यार्थी |
स्वेच्छाचारिता मनुष्य के ह्रदय को सख्त बना देती है. उसका अंधकार ह्रदय की उज्जवलता और उच्चता के प्रकाश को हर लेता है. नमक की खान हर चीज को नमक बना छोड़ती है, और स्वेच्छाचारिता की मसनद उन्हें भी अनुदार बना डालती है, जो उदारता के स्तम्भ रह चुके हों. यदि इतना पतन नहीं हुआ है, तो हम उन लोगों को, जो बड़ी-बड़ी बातें मारते हैं, और जो संयुक्त भारत और संयुक्त भारत की शक्ति की पुकार मचाते फिरते हैं, देश की शक्तियों के संयोग पर भांजी मारते क्यों देखते? मद्रास की कांग्रेस की सब्जेक्ट कमेटी में दोनों दलों के संयोग पर खूब बहस हुई, बातें तय-सी हो चुकी थीं, परन्तु जिन्हें उनका तय होना नहीं भाता था, उन्होंने बीच में तंग अड़ा दी, कांग्रेस के कानून का एक नियम उठा लाये कि जब तक देश के दो तिहाई प्रान्तों के पूरे प्रतिनिधि किसी संसोधन के पक्ष में राय न दें, तब तक वह संसोधन न होने पाए. बात एक कमेटी के हाथ में रख दी गई, आगामी साल देखा जाएगा, और कौन जनता है, कि आगामी साल इस बात के लिए अपना आगामी साल न रखे. यह है भाव जो कुछ भले आदमियों के हृदयों के भीतर काम कर रहा है, और हम इसे हठधर्मी और स्वेच्छाचारिता के नाम से न पुकारें तो किस नाम से पुकारें? यदि देश के दो तिहाई प्रान्तों के पूरे प्रतिनिधि कांग्रेस में नहीं थे, तो बीच में टांग अड़ाने वालों के लिए, यदि उसमें न्याय बुद्धि होती तो, यही बात काफी थी कि वे समझ लेते कि अब कांग्रेस की शक्ति कायम रखने के लिए वे दरवाजे खोल देने पड़ेंगे, जो अभी तक किसी कारण से बंद रखे गए हैं.
पंजाब का एक भी प्रतिनिधि नहीं था, युक्त प्रान्त की केवल नौ मूर्तियाँ थीं, मुर्दनी की यह घटा ठेकेदारों से पूछती है कि कांग्रेस के प्राणों पर बाजी कब तक खेलोगे? सर बिट्ठल दास ठेकरसी ने बम्बई के नाम पर कांग्रेस को निमंत्रण दिया. निमंत्रण पर पंडाल से 'संयुक्त भारत' की ध्वनि उठ पड़ी. लोगों का मतलब था कि कांग्रेस के एकदलीपन को अब नमस्कार करो. यह थी ध्वनि संयुक्त भारत की और संयुक्त भारत के नाम पर, और जो पूछती थी कि अब कब तक राष्ट्र के नाम राष्ट्रीय महासभा गला घोंटोगे? बेचारे ठेकरसी ने इस पुकार का उत्तर जिस भद्देपन से दिया वह उसी का हिस्सा था. उसने कहा, 'बम्बई नगरी आप का स्वागत करेगी, और आप को पूरा आराम देगी'. पर, हम जानते हैं कि आराम की रिश्वत कोई बड़ी वस्तु नहीं है. लालसा की जागृति हो गई है. देश के एक बड़े भाग में, उसी भाग में नहीं, जो इस स्वेच्छाचारिता के कारण अछूत जाति का व्यक्ति बन रहा है, परन्तु देश के सभी न्याय प्रिय लोगों के ह्रदय में, भाव उदय हो गए हैं कि उन्नति की राह में पहाड़ियां खड़ी हैं, जो मनाने से नहीं मानेंगी, जो पूजने से नहीं संतुष्ट होंगी, और जो यह तालाब करती हैं कि पैरों में इतना बल हो कि चढ़कर उन्हें पार किया जाए. यदि अवस्था ऐसी ही रही, तो हमें इस वर्ष की कांग्रेस के सभापति के इन शब्दों पर विश्वास है-'पुराना जमाना गया, संसार समय की ऊँची उठाने वाली रस्सियों के सहारे आगे ही को पैंग मार रहा है...अब यह संभव नहीं कि अधिक प्रशस्त जीवन-लहर के प्रबल वेग को पीछे फेर दिया जाए'.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप' में 11 जनवरी 1915 को प्रकाशित हुआ था. (साभार )
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