गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 54 / नए टैक्स

गणेश शंकर विद्यार्थी 
युद्ध के कारण सभी कामों की गति रुकी हुई है. अधिकांश कामों में घाटा हो रहा है, इसीलिए सरकार की आमदनी में भी घाटा होगा. अभी से कहा जा रहा है कि केवल रेलों की आमदनी ही में सरकार को लगभग दो करोड़ का घाटा हो चुका है, और मार्च तक जितना हो जाए. व्यापार भी मंदा है. अच्छे व्यापार से सरकार को अच्छा लाभ होता था, मंदे व्यापार से घाटा होने की सम्भावना है. इसी सम्भावना के कारण इधर-उधर कहा-सुनी होने लगी है कि घाटे की पूर्ति के लिए सरकार नए टैक्सों की रचना करेगी. सबसे पहिले गोरे पत्रों के दिल्ली-संवाददाताओं ने अपने पत्रों में इस बात को छेड़ा है.
सरकार को अपना घाटा पूरा करना ही पड़ेगा, इसलिए यह बहुत संभव है कि नए टैक्सों की रचना का प्रश्न अधिकारियों के सामने घूमता हो. कहा जा सकता है कि सरकार अपना खर्च कम करे. परन्तु ऐसा होता नहीं देख पड़ता. बढ़े हुए पैरों को छोटी चादर के भीतर सिकोड़ना कठिन है. फौजी खर्च तो जो सबसे बड़ा है, और जो भारत के लिए सबसे बड़ा बोझा है, ऐसा है कि इस समय अधिक न बढ़ जाए, तो सौभाग्य की बात समझिए. परन्तु इस समय किन टैक्सों की रचना होगी? जिन्होंने बात उठाई है, वे शंका करते हैं कि नमक का महसूल, या इनकम टैक्स, दो में से कोई एक बढ़ा दिया जाएगा. नमक पर टैक्स बढ़ाये जाने की बात बहुत फ़ैल गई है. लोग अभी से उसका सौदा करने लगे हैं. एक दिन कानपुर में भी इसकी बहुत चर्चा थी. इस बात पर बहस करना व्यर्थ ही है कि दरिद्रता और दुष्काल के कारण देश के अधिकांश आदमी इस योग्य नहीं हैं कि उन पर नया टैक्स लगाया जाए, परन्तु तो भी इस बात पर जोर देने की बड़ी आवश्यकता है कि यदि नए टैक्स लगाने या किसी पुराने टैक्स के बढ़ाने की आवश्यकता ही है, तो वह ऐसा कदापि न हो, जिसका बोझ देश के गरीब आदमियों पर अधिक पड़े. इसी बात के आधार पर हम नमक पर टैक्स बढ़ाया जाना अनुचित समझते हैं. या टैक्स गरीब आदमियों को अधिक अखरेगा. कहा जा सकता है कि नमक बहुत सस्ता है, उस पर टैक्स बढ़ जाये तो गरीब आदमी का मुश्किल से एक मास में एक पैसा का खर्च और बढ़ जाएगा.
यद्यपि गरीब आदमी के एक पैसे का मूल्य बाजार में अमीर आदमी के एक पैसे के ही मूल्य के बराबर है, परन्तु तो भी उसके जीवन क्षेत्र के बाजार में उसका पैसा अमीर के रुपये से अधिक मूल्यवान और प्रभावशाली है. फिर नमक एक ऐसी चीज है, जिसे गरीब-अमीर सभी अपने व्यवहार में लाते हैं. वह जीवन की आवश्यक वस्तु है. कोई किसी से अधिक नमक नहीं खाता. जितने नमक का खर्च गरीब परिवार में है, लगभग उतने ही का खर्च अमीर परिवार में भी है. शक्कर तो है नहीं, कि जिनके  पास पैसा हो, वे उसकी मिठाई उड़ावें, और जिनके पास पैसा न हो, वे बेचारे उसकी प्राप्ति से वंचित रहें. पैसे वाले के यहाँ भी नमक के लड्डू नहीं खाए जाते. ऐसी अवस्था में नमक पर टैक्स लगाना गरीब आदमी के साथ अन्याय करना है. टैक्स भी एक सौदा है, सरकार का हक नहीं. टैक्स के देने या न देने, अपनी इच्छा से देने और अपनी ही इच्छा के अनुसार उनसे अपना काम लेने के लिए योरप में बड़े-बड़े संग्राम हो चुके हैं. इसी के लिए अंग्रेज जाति ने कई बार रक्त स्नान किया, जिसका फल उसे यह मिला कि उसके प्रतिनिधियों के मत के विरुद्ध उस पर कोई टैक्स नहीं लग सकता. दुर्भाग्य से, हमारा सार्वजानिक जीवन इतना शिथिल है, कि अनुचित टैक्सों के विरुद्ध जनता अपनी आवाज जोर से उठाना जानती नहीं. तो भी उसकी इस अवस्था से टैक्स लगाने के मूल उद्देश्य को नहीं भुलाया जा सकता. गवर्नमेंट को प्रजा की रक्षा के लिए धन की आवश्यकता होती है. प्रजा टैक्सों के रूप में सरकार को धन देती है. टैक्स सभी पर एक से नहीं लगते. हैसियत के अनुसार लगते हैं. हैसियत का प्रश्न एक विशेष कारण से उठता है. जो गरीब है, जिसके पास कुछ बचा रखने के लिए नहीं है, उसे उस आदमी से कहीं कम रक्षा की आवश्यकता है, जो अमीर है, जिसके पास कुछ जमा-पूँजी है, फिर गरीब आदमी उतना ही टैक्स क्यों दे, जितना कि अमीर आदमी? गरीब आदमी से उतना टैक्स लिया भी नहीं जाता.
यदि सरकार ने  नमक पर टैक्स लगाया, तो गरीब आदमी के ऊपर, जो अपनी झोपड़ी में बैठा आज के दानों को देखता हुआ कल के दानों की चिंता कर रहा होगा, उतना ही टैक्स पड़ जाएगा जितना उस अमीर आदमी पर, जो पैर पसारे गद्दी तकिये पर लेटा रहता है, जो हजारों का धन अकेले ही समेटे बैठा है, और जिसे खाने-पीने की चिंता स्वप्न में भी नहीं सताती. और क्या यह न्यायोचित होगा? यदि टैक्स लगाने की जरूरत किसी तरह से नहीं टाली जा सकती, तो उन पर टैक्स लगाया जाए-और वह भी आवश्यकता पूरी करना तथा थोड़े ही समय के लिए-जो अपने अधिक धन के कारण उसके देने के पत्र हो सकते हैं. किसानों और जमींदारों की आमदनी पर लम्बे टैक्स हैं, उतने लम्बे टैक्स और तरह से अधिक आमदनी पैदा करने वाले आदमियों पर नहीं है. कुछ आदमियों का कहना है कि इस समय हर आदमी को सरकार की मदद करना चाहिए और इसलिए ऐसा टैक्स लगे, जो सब पर पड़े. सब पर टैक्स लगना अन्याय होगा, ऐसे समय में अशांति पैदा करना होगा, और किसानों पर अधिक बोझ रखना होगा, जो टैक्स से दबे हुए हैं.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का या लेख 'प्रताप'  में 18 जनवरी 1915 को प्रकाशित हुआ था. (साभार) 

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