गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 50 / संयुक्त कांग्रेस
गणेश शंकर विद्यार्थी |
गरम कहलाने वाले दल ने नरम कहलाने वाले दल की बात मान ली है, और अब उस पक्ष के लोग उस नियम पर हस्ताक्षर करने को भी तैयार हैं. मत-भेद की दूसरी बात है प्रतिनिधियों के चुनने की प्रणाली. नरम दल कहता है कि बस, वहीं संस्थाएं कांग्रेस के प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकें, जो कांग्रेस से सम्बन्ध रखती हैं, और गरम दल चाहता है कि सार्वजनिक सभाओं को भी प्रतिनिधि चुनने का अधिकार हो, जैसा कि पहिले था. नरम दल कहता है कि गरम दल वाले इस वर्ष तो कांग्रेस का वर्तमान नियमों के अनुसार ही कांग्रेस में आवें और उसमें भाग लेकर अपनी इच्छा के अनुकूल आगे के लिए नियम निश्चित कराने का प्रयत्न करें. गरम दल की दलील यह है कि नरम दल ने कांग्रेस के वर्तमान नियमों को बिना सभी कांग्रेस प्रेमियों की सलाह के बनाया है, उन नियमों का संयुक्त कांग्रेस दल द्वारा पास होना आवश्यक है. और कांग्रेस के दो पक्ष हैं, यदयपि दोनों के उद्देश्य एक हैं, तथापि उनके रास्ते अलग-अलग हैं, यह कैसे संभव है कि कांग्रेस में भाग लेने के लिए गरम दल के लोग नरम दल के लोगों से प्रतिनिधि चुने जाने की भिक्षा मांगते फिरें. इस दलील के जोर को नरम दल वाले मानते हैं, परन्तु वे कहते हैं कि, कांग्रेस के वर्तमान नियमों को कैसे तोड़ा जाय? सोचा जा रहा है कि गरम दल वाले कांग्रेस की स्वागतकारिणी सभा की ओर से अतिथि के रूप में बुलाये जाएँ. पहिले दिन वे अतिथि बनकर कांग्रेस में जाएँ और उसी दिन कांग्रेस के वर्तमान नियमों ने कुछ सुधार हो जाए, जिससे दूसरे दिन गरम दल वाले कांग्रेस के प्रतिनिधि बन सकें, और फिर दोनों दल के आदमियों की एक कमेटी बने, जो आगामी वर्ष के लिए कांग्रेस के नियमों का संसोधन करे. कुछ भी हो, हम यही चाहते हैं, कि घर की इस फूट का नाश हो जाए, और दोनों दल मिलकर काम करें.
नियम संस्थाओं के लिए बनाये जाते हैं, संस्थाएं नियमों के लिए नहीं, इसलिए बने हुए सड़े-गले हानिकारक नियमों पर बहुत अधिक जोर देना मानसिक दासता का चिन्ह है. मिसेज एनी बीसेंट इस मेल-मिलाप के लिए बहुत काम कर रही हैं. वे चिंतित हैं कि नियमों के परिवर्तन से कांग्रेस के पुराने पहलवान रूठकर अखाड़े से अलग हो जाएंगे, और या अच्छा न होगा. पर, यथार्थ में उन पहलवानों में शारीरिक बल से बुद्धि-बल की कमी है. 1907 के पहिले वे सार्वजानिक सभाओं से प्रतिनिधियों के चुनाव को स्वीकार करते थे. पर, आज जिस प्रकार जमाना आगे बढ़ रहा है, वे अपना कदम पीछे रख रहे हैं, और यहाँ तक कि उतना आगे भी नहीं बढ़ना चाहते जितना वे पहिले बढ़े हुए थे. मिट्टी की सुन्दर मूर्तियाँ किसी प्रदर्शिनी की शोभा बढ़ा सकती हैं, परन्तु याद रखिये, व्यावहारिक संसार में जगह घेरने वाले निठल्ले दिग्गजों की आवश्यकता नहीं.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 20 दिसंबर 1914 को 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था. (साभार)
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