गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 51 / देश का व्यवसाय

गणेश शंकर विद्यार्थी 
आज फिर हम देश के व्यवसाय विषय पर पलटते हैं. हम सुन रहे हैं कि देशी व्यवसाय की जागृति के लिए मद्रास सरकार ने मद्रास प्रान्त के पेंसिल के एक कारखाने को अपने हाथ में ले लिया है. हमने सुना कि उसने इसी प्रकार दियासलाई के एक कारखाने को सहायता देने का विचार किया है. कलकत्ते में देशी चीजों की प्रदर्शिनी का समाचार अब पुराना पड़ चुका है. अब शायद उसका समाचार हमें बम्बई से मिले. हम यह भी सुन चुके हैं कि बंगाल में मि. स्वेन देशी व्यवसाय की उन्नति के प्रश्न पर विचार करने के लिए नियत किये गए. क्या इस बात के कहने की आवश्यकता है कि सरकार की यह गति देखने और सुनने में भली और बहुत भली है.
परन्तु इन सारी बातों पर पूरी तरह विचार करने के पश्चात देश के व्यवसाय की अधोगति और देश की आवश्यकता और उपज पर नजर डालते हुए हम इस बात को समझने में असमर्थ हैं कि बस, जो कुछ होना चाहिए सो होने लगा, और सरकार को जितना ध्यान देना चाहिए था उतना ध्यान वह देती है. सरकार की यह गति तो चींटी की चल है, और भविष्यवक्ता की हैसियत से नहीं, किन्तु उस साधारण आदमी की तरह, जो साधारण दृष्टि से ही साधारण प्रश्नों को देख सकता है, हम कह सकते हैं कि इस गति का केवल एक नतीजा होगा और वह यही जो असफलता के रूप में हमारे चारों ओर नाच रहा है. पहिला प्रश्न है पूँजी का. देश में धन ही नहीं. जिनके पास कुछ है भी, वे विलासिता के शिकार हो रहे हैं. जिनका ध्यान व्यापर की ओर गया भी है, वे निरा दलाल हैं-और कुछ नहीं. देश में पूँजी नहीं और साथ ही सच्चे व्यापारी भी नहीं. मि. बाचा के हिसाब से देश के केवल कपास और सूत के व्यापार को हाथ में रखने के लिए 30 करोड़ रुपये किसी काम में लगाने वाले योग्य आदमी हैं ही नहीं, परन्तु बात यह है कि राजनैतिक पराधीनता के साथ-साथ भारतीय आत्माएं सभी प्रकार की अधीनताओं की शिकार हो चुकीं. उनमें अब दम बाकी नहीं है. विदेशी व्यापारी यहाँ आते हैं. यहाँ के व्यवसाय में वे रुपया लगाते हैं, और खासा नफा उठाते हैं. हमारे व्यापारी हैं कि निरा बुद्धू बने हुए हैं. आगे पैर देना दूर रहा, घर ही में चक्कर काटते हैं और अधिक से अधिक विदेशियों की दलाली में अपना अहोभाग्य समझते हैं.
मि. गोखले ने अपने कशी कांग्रेस के भाषण में कहा था कि देशी व्यवसाय की जागृति के लिए हमें सभी ओर से सहायता लेनी चाहिए, और सरकारी सहायता को भी नहीं छोड़ना चाहिए. बहुत ठीक, परन्तु सरकारी सहायता मिले भी तो. स्वदेशी के वह गरमा-गरमी के दिन गए, जब प्रजा देशी व्यवसायों के विषय में आम कहती थी, तो सरकारी अधिकारियों को इमली ही की सुझती थी. अब तो हेलमेल के दिन हैं. सरकार भी स्वदेशी व्यवसाय की पीठ ठोंकने की बात प्रकट करती है. परन्तु, केवल बातों ही के जमा खर्च से काम न चलेगा. यदि इंगलैंड स्वतंत्र वयापार का अड्डा है, अंग्रेजी व्यापारियों को रंग, खिलौने, आर अन्य चीजों के कारखानों के खोलने में रुपये और रियायत की पूरी-पूरी सहायता देना उचित समझती है, तो क्या भारत सरकार का यह कर्तव्य नहीं कि कि देश के व्यापारियों को देशी व्यवसाय को जगाने के लिए इसी प्रकार की सहायता दे? भारत सरकार की इस उदासीनता से देश के व्यवसाय की बुरी दशा हो चुकी है, और यदि वह कहने सुनने के लिए कुछ कर धर लेना ही अपना कर्तव्य समझेगी, तो उसके इस बात के हजार प्रकट करते रहने पर भी कि देश का व्यापर बढ़े, कुछ भी न होगा.
एक बात और है. पेड़ पहिले पौधे हुआ करते हैं, और इसलिए कि उन्हें जबर्दस्त हवा उखाड़ कर फेंक न दे या उन्हें कोई कुचल न दे, उनकी रक्षा पूरे यत्न से की जाती है. देशी व्यवसाय भी कैसे फल-फूल सकता है, जब तक उसकी रक्षा उसके विदेशी प्रतिद्वंदियों से नहीं की जाएगी. इंगलैंड में भी उसकी रक्षा की आवश्यकता पड़ी थी, और जर्मनी में तो आज तक उसकी रक्षा की जाती है. यदि भारत सरकार बाहरी माल पर कर लगाकर देशी माल की उन्नति का पथ साफ नहीं कर सकती, और साथ ही वह देश के व्यापारियों को यथेष्ट मात्र में सहायता और सुविधाएँ नहीं दे सकती, तो उसका देशी व्यापार की उन्नति चाहना व्यर्थ है और लोगों का इस रेत की दीवार पर आशाओं के महल खड़े करना भी अच्छा नहीं.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 27 दिसंबर 1914 को 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था. (साभार)

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