गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 46 / टर्की के भाग्य का निपटारा
गणेश शंकर विद्यार्थी |
हम उनकी इस इच्छा को भी बुरी नहीं कह सकते कि वे निर्माण के इस काम के साथ उसके महल को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए जर्मनी की उद्दंडता का उखाड़-पछाड़ भी चाहते हैं. महामंत्री ने अपने भाषण में टर्की की म्रत्यु का सन्देश संसार को सुनाया है. टर्की ने ऐसी गलती की है, जिसका दंड उसे भोगना ही पड़ेगा. परन्तु, ऐसी भी बातें संसार के सामने हैं जिनसे उसका दोष उतना भारी नहीं रह जाता. हमें समाचार मिले हैं, जो कहते हैं कि टर्की में इस समय डंडे के बल का राज्य है, सुल्तान की एक नहीं चलती, युवराज की एक बात काम नहीं करती. कितने ही राज्य मंत्रियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है, प्रधानमंत्री के सिर पर पिस्तौल का मुंह रहता है और एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक उद्दंड और अदूरदर्शिता-पूर्ण साहस से भरे हुए अनवर और उसके साथियों की तूती बोल रही है. हम स्वीकार करते हैं कि कमजोरी के कारण ही टर्की पर इस समय डाकुओं का शासन है, और किसी राष्ट्र का सबसे बड़ा पाप उसका कमजोर होना ही है. परन्तु, इंगलैंड उदारता और स्वाधीनता के पक्ष में है, और उसने न्याय और सदाचार की रक्षा के लिए ही अपने हाथ में तलवार पकड़ी है. वह बेल्जियम की रक्षा करेगा, छोटे-छोटे राष्ट्रों की रक्षा करने के लिए लड़ रहा है, जबर्दस्तों के जबरदस्त हाथों को सदा के लिए तोड़ने की फिक्र कर रहा है, तो फिर यह कैसे कहा जाय कि उस टर्की को , जिसकी वह सदा रक्षा करता आया, जो इस समय अपनी इच्छा, अपने बल, अपने राष्ट्रीय जोश से नहीं लड़ रहा, और जो कुचक्र से जर्मनी के हाथ का खिलौना बन रहा है, अपने महामंत्री के शब्दों में योरप ही में नहीं, एशिया में भी नष्ट हो जाने देगा. तुर्कों ने नहीं, तुर्कों की गवर्नमेंट ने तलवार हाथ में ली है, और मैं निःसंकोच हो भविष्यवाणी करता हूँ कि तुर्की सरकार तलवार के घाट उतार दी जाएगी.
हमने नहीं, उसी गवर्नमेंट ने केवल योरप ही में नहीं, एशिया में टर्की की मृत्यु का आह्वान किया है. मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि टर्की के नेस्तनाबूद होने पर वह आफत भी जो पीढ़ियों से अतिसुन्दर प्रदेशों को नष्ट कर रही थी, नेस्तनाबूद हो जाएगी. हम अपने सम्राट की मुस्लिम प्रजा की हर तरह रक्षा करने के लिए तैयार हैं, परन्तु इस विषय में टर्की ने आत्म-हत्या कर डाली है, और अपने हाथों ही से, अपनी कब्र खोदी है. यह है टर्की की मृत्यु घोषणा. टर्की को अपनी करनी का जो दंड मिलता, उसका अनुमान विचारशील लोग पहिले ही कर चुके थे. यदि यह भी मान लिया जाय, जिसकी सम्भावना नहीं, कि जर्मनी की जीत होगी, तो भी टर्की को कठपुतली बनने का यह फल मिलता कि उसे अपने जर्मन नट के पैरों में सिर झुकाना पड़ता, और उसकी उर्वरा भूमि का धन जर्मन जेबों में जाता. मित्र राष्ट्रों की जीत पर उसका अंग-भंग तो होता ही. नतीजे पर पहुंचना एक बात है और उसकी घोषणा करना दूसरी, और खास ऐसी अवस्था में, जबकि टर्की के करोड़ों सहधर्मी सम्राट की राजभक्त प्रजा है, जो टर्की की गति पर दुखी है और जिन्हें टर्की के भविष्य का अंधकार पहिले ही से डरा रहा था. इस बात के मान लेने पर भी, कि टर्की ने जो किया वह जान बूझकर किया, और अपनी सारी शक्ति से किया, उसे विजय का विश्वास था, उसे विश्वास था कि उसके सुंदर नगरों की, पवित्र मक्का और मदीना की, एक दिन वही गति न होगी जो बेल्जियम के लीवेन और रीम्स की हो चुकी, उसे विश्वास था कि इस्लाम को गाली देने वाला कैसर पेरिस में नमाज अवश्य पढ़ेगा-तो भी सब ओर दृष्टि डालते, अंग्रेजी साम्राज्य के हित को सामने रखते और सामयिक घटनाओं पर विचार करते हुए, हम इस बात के कहने में असमर्थ हैं कि राजनीतिक दृष्टि से महामंत्री का भाषण अच्छा और उपयुक्त था. महामंत्री एक साधारण आदमी नहीं, सर्वसाधारण आदमी नहीं, सर्वसाधारण से कही गई. उसकी एक-एक बात का बड़ा प्रभाव पड़ता है. टर्की इस्लाम के लिए नहीं लड़ रहा, पर अंत में वह है तो मुस्लिम ही. सम्राट की मुसलमान प्रजा टर्की ने कामों को अच्छा न समझे, पर वह टर्की को इस्लाम के दायरे से अलग नहीं समझ सकती. तुर्की प्रजा ने नहीं, तुर्की सरकार ने कसूर किया है, इसलिए वह तलवार के घाट उतर दी जाएगी, यहाँ भी महामंत्री ने गलती की. तुर्की सरकार भले ही इस समय अनवर के हाथ कठपुतली हो रही हो, परन्तु विपत्ति के समय इसलिए कि तुर्क अभी तक स्वाधीन हैं, प्रजा और सरकार एक हो जाएगी. टर्की के नाश में तुर्की का भला कैसे हो सकता है? महामंत्री का भाषण उचित से अधिक सख्त, अनावश्यक, और राजनीतिज्ञता से हीन था और उसमें एक-दूसरे को रद्द करने वाली बातें थीं. अंग्रेजी साम्राज्य की हित की दृष्टि से हम उसे हानिकारक तक समझते हैं.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप' में 15 नवम्बर, 1914 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)
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