गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 48 / स्वदेशी आन्दोलन का पुनर्विकास

गणेश शंकर विद्यार्थी 
कुछ वर्ष हुए, देश की दृष्टि अपने व्यवसायियों पर पड़ी थी. विचारशील लोगों ने अपनी दशा की जाँच-पड़ताल की. उन्हें पता लगा कि ढोल के भीतर पोल है और यदि कुछ दिन और हालत ऐसी ही रही, तो ढोल की भी खैर नहीं. चेतावनी का स्वर ऊँचा किया गया. जिनके हृदयों में देश का दर्द था, और जिन्होनें अपनी भयंकर अवस्था को तनिक भी समझा, वे चुपचाप बैठे न रह सके. तूफ़ान का सा आन्दोलन उठा, देश में, एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक धूम मच गई. विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार हुआ, और स्वदेशी का ग्रहण. आशा की लहरें हिलोरें मरने लगीं. समझा गया कि अब दिन फिरेंगे. पर, तूफ़ान में जोर होता है, और जोर में प्रतिक्रिया. झूले की पेंग उलट पड़ी. रोकने पर भी न रुकी. बीच में भी न ठहरी. जितना बढ़ी थी, उतना ही पीछे भी हटी. लोग स्वदेशी आन्दोलन को भूल गए. भूलना ही नहीं, बहुतों ने उसका नाम तक लेना पाप समझा. किसी प्रकार देश में एक सर्वव्यापी उपयोगी आन्दोलन उठा, परन्तु जिस प्रकार वह उठा उसी प्रकार वह उठ भी गया और देश के दुर्भाग्य से, उसकी समाप्ति पर बहुत ही थोड़े नेत्रों ने आंसू गिराए.
यह असफलता क्यों? या सारा बना बनाया खेल क्यों बिगड़ गया? क्या भारत को धन प्यारा नहीं? क्या औरों की तरह खाने-पीने और कपड़े पहिनने, तथा औरों ही की तरह सुख की आकांक्षा रखने वाले भारतवासी आर्थिक प्रश्नों की कठोर गति की उपेक्षा करने ही में अपना भला समझते हैं? क्या वे समझते हैं कि तन पर कपड़ा न रख और पेट में रोटियां न पहुंचाकर वे उस राम भजन के योग्य भी रह सकते हैं, जो उनको इतना प्यारा है? हम इन प्रश्नों का उत्तर 'नहीं' में पाते हैं, पर तो भी इस बात से किसी को इनकार नहीं हो सकता कि इस बड़ी भारी असफलता के कुछ न कुछ कारण अवश्य ही रहे होंगे. प्रताप के इस अंक में श्रीमान लाला लाजपत राय के एक लेख का अनुवाद प्रकाशित किया जाता है. इस लेख से हमें पता चलता है कि स्वदेशी आन्दोलन की असफलता का एक कारण तो यही था कि लोगों ने स्वदेशी आन्दोलन को समझा नहीं, उनके हौसले ढीले पड़ चले थे, और बंग भंग के रद्द होने पर तो रही-सही बातें भी लोप हो गईं. हम मानते हैं कि स्वदेशी आन्दोलन के सच्चे मतलब को बहुत ही कम आदमी समझे थे, और एक बड़े अंश में उसका प्रयोग राजनैतिक अस्त्र की भांति किया गया, और दूसरे बड़े अंश में उसके नाम पर स्वार्थी लोगों ने अपना मतलब साधा. बंद-भंग रद हो गया था, पर देश की दरिद्रता के काले अक्षर ज्यों के त्यों बने थे. उनकी भयंकरता में तिल भर भी कमी न थी. पर, इस घटना के पहिले ही हर पत्ते मुरझा चले थे. स्वदेशी आन्दोलन भावों का तूफ़ान था. देश के ह्रदय ही को प्रेरित किया गया था. भावों का राज्य स्थायी नहीं हो सकता, और फिर उन लोगों के भावों का, जो आज सैकड़ों वर्ष से पराधीन होने के कारण बड़ी भारी मानसिक निर्बलता के शिकार हो रहे हैं. जब रस्ते में व्यावहारिक कठिनाईयों का सामना पड़ा, तो लोग हट चले, और, अंत में पथ बिलकुल सूना हो गया.
परन्तु, ह्रदय से नहीं, बुद्धि से काम लेने पर भी, हमारे ख्याल से स्वदेशी आन्दोलन के भाग्य का निपटारा बहुत कुछ ऐसा ही होता. हम यह भी मान लें, कि श्रीमान लाला लाजपत राय के कथनानुसार लोग स्वदेशी आन्दोलन की हर बात को अच्छी तरह समझ लेते, तो भी, अंत में उनको उसी ठिकाने पर पहुँच जाना पड़ता जिस पर वे आज पहुँच गए हैं. हाथ में किसी प्रकार का अधिकार तो है ही नहीं, फिर बात के लाख समझ लेने पर भी क्या होता?  इंगलैंड में इस समय स्वदेशी आन्दोलन जोरों पर है और लाला जी के कथनानुसार वह वहाँ ऐसा कब न था? इंगलैंड में स्वतंत्र व्यापर की नींव उसी समय पड़ी है, जब उसने बाहर के माल पर कर लगाकर अपने घर के व्यापर को पूरी तरह से पुष्ट कर लिया था. और आज इस स्वतंत्र व्यापर के ज़माने में उसी भूमि में, जो स्वतंत्र व्यापार की देवी है, हम क्या देख रहे हैं? जो अभी तक स्वतंत्र व्यापार के पक्ष में  अपनी सारी शक्तियां खर्च कर रहे थे, आज वही अपनी शक्तियां इंगलैंड से जर्मनी के व्यापार को निकाल बाहर करने में लगा रहे हैं. शीघ्र ही इंगलैंड से जर्मनी का व्यापर उठ जाएगा. पर, यह बात केवल इंगलैंड निवासियों के-स्वाधीन इंगलैंड-निवासियों के-ही प्रयत्न से न होगी. इस प्रयत्न में उनकी गवर्नमेंट भी उनके साथ है. यदि इंगलैंड भारत की तरह पराधीन होता, उसके निवासियों के हाथों में अपनी आर्थिक अवस्था तक के सुधारने का कोई अधिकार न होता, तो इसमें तो संदेह नहीं कि उनके सामने जर्मनी के माल के बायकाट का प्रश्न उठता. परन्तु यदि कभी उसमें भारत्वस्ढ़ से स्वदेशी आन्दोलन का जन्म होता, तो उस आन्दोलन को खूब समझ लेने पर भी अंग्रेजों को उसमें सफलता प्राप्त न होती. स्वदेशी आन्दोलन भारत में जन्मा, और वह मर भी गया. आज देश में उसके पुनर्जीवित करने का फिर प्रयत्न हो रहा है. युद्ध के कारण देश के व्यवसायों की ओर लोगों की दृष्टि गई है, और वह नई बात है कि सरकार भी कहीं-कहीं कुछ सहायता देने के लिए तैयार है. इस पुनर्विकास के साथ कितनी आशाएं बांधी जा सकती हैं, इस विषय पर हम आगामी अंक में कुछ कहेंगे.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप' में 6 दिसंबर 1914 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)  

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