स्कूलों की दुर्दशा : मी लार्ड, आप आदेश देते रहो, हम नहीं मानेंगे
उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में यह दृश्य आम है. फोटो-साभार |
यूपी में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा पर सुप्रीम कोर्ट नाराज है. अदालत ने मुख्य सचिव से कहा है कि वे इन समस्याओं का निदान करें और सर्वोच्च अदालत को अवगत भी कराएँ. राज्य सरकार और मुख्य सचिव पूरी ताकत भी लगा देंगे तो भी अवमानना तय है क्योंकि सरकारी स्कूलों की दशा वाकई बहुत ख़राब है. दयनीय है.
सर्वोच्च अदालत ने यह आदेश इलाहाबाद जिले के स्कूलों के सर्वे के आधार पर दिया दो दिन पहले दिया है. यह सर्वे अदालत ने खुद कराया था. अगर इलाहाबाद के सर्वे को आधार बना लिया जाए तो राज्य के बाकी स्कूलों की दशा भी कुछ ख़ास अच्छी नहीं है, बल्कि कहीं-कहीं तो कुछ ज्यादा ही ख़राब है. प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों का सर्वे अलग-अलग कई एजेंसियां समय-समय पर करती ही रहती हैं. अब तक एक भी रिपोर्ट ऐसी सामने नहीं आई, जिसने इन स्कूलों की दशा पर चिंता न जताई हो. पर, अफ़सोस यह कि यहाँ के शिक्षकों, जिम्मेदार अफसरों आदि की चिंता में यह सर्वोच्च प्राथमिकता वाला विषय शामिल ही नहीं है.
पिछले दिनों हाईकोर्ट ने भी अपने एक आदेश में कहा था कि मंत्री, विधायक और अफसर अपने बच्चों का दाखिला इन्हीं सरकारी स्कूलों में कराएँ तो शायद इनकी दशा में कुछ सुधार हो, पर अदालत का यह आदेश फाइलों का हिस्सा बन गया. प्रतीक स्वरुप भी किसी नेता या अफसर ने अपने बच्चों का दाखिला इन स्कूलों में नहीं कराया. अगर कराया है, तो सूचना सार्वजानिक नहीं है.
असल में इन स्कूलों की गुणवत्ता इतनी खराब है कि यहाँ के बच्चे जैसे ही निजी स्कूलों मन या फिर उच्च शिक्षा के लिए आगे शहरों की ओर जाते हैं तो खुद को कहीं रोक नहीं पाते. उनके सामने भाषा से लेकर ज्ञान तक का अभाव है. यहाँ के शिक्षकों के लिए कोई भी रिफ्रेशर कोर्स नहीं है. बड़ी संख्या में शिक्षक नेतागिरी में व्यस्त हैं. मेरा मानना है कि अगर शिक्षक सुधर जाएँ तो वे अपने स्तर पर ही स्कूलों को काफी हद तक सुधार सकते हैं. कुछ स्कूल हैं भी ऐसे, जिन्होंने मिसाल कायम की है. पर, यह मसला निजी प्रयासों का ही है. अगर किसी ने अपने स्तर पर कुछ ठोस किया तो ठीक, नहीं तो मामला भगवान भरोसे.
'असर' की सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के 64 प्रतिशत स्कूलों में अभी तक बाउंड्री नहीं है। 15 प्रतिशत स्कूलों में पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है। कुल 4.2 प्रतिशत स्कूल तो ऐसे हैं, जहां शौचालय भी नहीं बने हैं. 40.9 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय हैं लेकिन उनका उपयोग नहीं हो रहा। लड़कियों के टॉयलेट की हालत भी चिंताजनक है। 12.3 प्रतिशत स्कूल तो ऐसे हैं जहां लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट ही नहीं हैं। 18.6 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के टॉयलेट में ताला पड़ा है। वहीं 20 प्रतिशत लड़कियों के स्कूलों ऐसे हैं जहां टॉयलेट उपयोग करने लायक नहीं हैं। इस तरह 50 प्रतशित लड़कियों के स्कूलों में ही टॉलेट का उपयोग हो रहा है।
असर या अदालत की रिपोर्ट तो सुविधाओं पर केन्द्रित है. मैं भी मानता हूँ कि सुविधाएं होनी चाहिए, लेकिन सबसे अहम मसला गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का है. ग्लोबल विलेज के हिसाब से न तो इन स्कूलों का कोर्स है और न ही शिक्षक अपने स्तर कोई दर्द उठाने को तैयार हैं. मेरा मानना है कि ज्यादातर शिक्षक अपना वेतन भी जस्टिफाई नहीं कर रहे हैं. कई स्कूल ऐसे हैं जहाँ शिक्षक खुद पढ़ने नहीं जाते. उन्होंने अपनी जगह पर गाँव के ही किसी नौजवान को लगा दिया है. एक और बड़ी बात है. वह सरकार के ढेरों कार्यक्रम आज भी इन्हीं शिक्षकों के सहारे चल रहे हैं. जब कोई ऐसा अभियान सरकार की ओर से चलता है, तो ढेरों स्कूलों में ताला डालने की नौबत आ जाती है.
गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के अभाव में अभिभावकों का दिल भी इन स्कूलों से टूट रहा है. यहाँ पढ़ने वाले बच्चों में बड़ी संख्या दोपहर के भोजन करने वालों की है. गांवों में जिस किसी का वश चल रहा वह अपने बच्चे को शहर के स्कूल भेज रहा है.इस सूरत में अदालतें कुछ भी कह लें, सरकारी तंत्र सुधरने वाला नहीं है. सर्वोच्च अदालत के इस आदेश की अवमानना तय है. ठीक उसी तरह से, जैसे हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी किसी भी नेता-अफसर का बच्चा इन स्कूलों में नहीं गया.
कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर भी एक नज़र
प्राइमरी स्कूल 1.30 लाख
अपर प्राइमरी स्कूल 58 हजार
छात्र संख्या 1.75 करोड़
शिक्षक संख्या 4 लाख
शिक्षक छात्र अनुपात 1:43
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