जिंदगी की आपाधापी और खोते रिश्तों को आप संजोना नहीं चाहेंगे



दिनेश पाठक

जिंदगी की आपाधापी में हम इतने व्यस्त हो गए हैं कि अपनी जड़ों की ओर झांकने की फुर्सत भी नहीं है. अगर शहरों में रहते हैं तो किसी बच्चे को अपने पिता के कंधे पर बैठे आप ने शर्तिया नहीं देखा होगा. हाल फ़िलहाल, आप खुद अपने ड्राइंग रूम में घोड़ा न तो बने होंगे और न ही किसी यार दोस्त को देखा होगा. यह कुछ ऐसे उपाय थे जिससे बच्चों की बड़ी से बड़ी जिद पूरी हो जाती थी. पर, आज हम मोबाइल, लैपटॉप देकर उन्हें चुप कराने की कामयाब कोशिश करते हैं. टेबलेट देकर खुश कर देते हैं. लेकिन जो सुख माता-पिता को पेट पर, पीठ पर लेट-बैठकर बच्चे को मिलता है, उसकी कल्पना करना मुमकिन नहीं है, उसे जीना ही पड़ेगा.
अगर आप 70-80 के दशक में पैदा हुए होंगे और गाँव से तनिक भी रिश्ता रहा होगा तो आपके पिता जी या दादा जी ने कंधे पर बैठाकर जरुर मेला दिखाया होगा. वहाँ लगा खेल तमाशा दिखाया होगा. गर्मी की छुट्टियाँ आ गई हैं. अब बच्चे गाँव जाने से कतराते हैं. वहाँ निश्चित साधन की कुछ कमी है. है भी तो गाँव, गाँव ही रहेंगे और दिल्ली, मुंबई महानगर. इनकी तुलना नहीं की जा सकती. लेकिन समय की माँग है कि अपने छोटे-छोटे बच्चों को जड़ों से जोड़ने का प्रयास जरुर हो. दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ, मामा के रिश्तों का मोल समझना होगा. थोड़ी परेशानी भी होगी इन चीजों को करने में फिर भी यह सब किया जाना चाहिए. संस्कार रुपी यह पूँजी और कहीं से आ ही नहीं सकती. बच्चों को पिज्जा-बर्गर के युग के साथ ही नमक, घी चुपड़ी रोटी भी खिलाने की आदत डालनी होगी और यह गाँव में आसानी से मिलेगी. गाँव में अभी भी शुद्ध दूध, घी, दही उपलब्ध है. जामुन, आम, कटहल पेड़ पर लगे मिलेंगे. पेड़ से तोड़कर इन्हें खाने में जो आनंद है, वह बाजार से खरीद कर खाने में कतई आने से रहा. आप के पास बहुत पैसा हो सकता है लेकिन जब आपका बच्चा अपने हाथ से पेड़ से आम तोड़कर खाएगा तो उस समय उसके चेहरे की ख़ुशी केवल महसूस की जा सकती है. दो-चार आम से जो ख़ुशी मिलेगी, वह दस-बीस किलो आम खरीदने के बाद भी नहीं मिल सकती.

ऐसा करके आप इन्हें न केवल जड़ों से जोड़ने में कामयाब होंगे बल्कि ये असली भारत भी जान पाएँगे. इन्हें महुआ की मिठास और इमली की खटास भी आसानी से पता चलेगी. ये देख पाएंगे कि जो रोटी ये खाते हैं, आटा बनने से पहले गेहूँ और उसके पहले बाली या पेड़ असल में कैसा होता है. ये देख पाएँगे कि अरहर की जिस दाल को रूचि से खाते हैं, उसका मूल स्वरुप असल में क्या है. गाँव में पड़ोस की चाची जब प्यार से आपके लाडले को गाय का ताजा दूध पीने को देगी तो उसे पी लेने देने से परहेज न करिए. यह मत कहिए कि नहीं, मेरा बेटा या बेटी कच्चा दूध नहीं पीते. कई बार आधुनिक माएँ ऐसा कहते सुनी जाती हैं. अरे भाई, आपके मुंबई, दिल्ली में कच्चा दूध मिलता ही कहाँ है, जो बच्चे पियेंगे. कहने का आशय यही है कि बच्चे जड़ों से जुड़े रहेंगे तो फायदा ही फायदा है. बच्चे रिश्ते की संजीदगी समझेंगे. उनमें एक अलग तरह का सकारात्मक परिवर्तन दिखेगा. अगर आप योजना बनाकर उन्हें जड़ों से जोड़ने की कोशिश करेंगे तो न केवल उनका भला करेंगे, बल्कि इसका लाभ पूरे देश और समाज को मिलेगा. आचार्य विनोवा भावे ने कहा है-बच्चे ही सच्चे, बाकी सब कच्चे...मैं इन रिश्तों को कहीं खोते हुए देख रहा हूँ. इसमें हम और आप वाकई कच्चे हैं लेकिन हमारे बच्चे तो सच्चे हैं. उन्हें हम सच्चा रहने देने में मदद तो कर ही सकते हैं. 


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