प्रेरक है उदयपुर से वाया मुंबई लखनऊ पहुंचे इंजीनियर दीपक की कहानी

दिनेश पाठक

इस बार थोड़ी हटकर एक कहानी. बहानेबाजों के लिए एक कहानी. उनके लिए जो केवल कमियों का रोना रोते नहीं थकते, यह सबको प्रेरित करेगी. खिंचाई बिल्कुल नहीं करेगी. मेरे साथी हैं नवल कान्त सिन्हा. दो दिन पहले वे टैक्सी से सफर कर रहे थे. उस टैक्सी को जो नौजवान चला रहा था, नवल जी ने उसे फेसबुक पर लाइव किया. इस नौजवान का नाम है दीपक. रहने वाला है राजस्थान के उदयपुर का. मम्मी-पापा मुंबई में हैं. यह नौजवान भी मुंबई का ही पढ़ा-लिखा है. इंजीनियर है. वहाँ दीपक ने नौकरी भी की है. फिलवक्त दीपक लखनऊ में हैं और एक बड़ी कंपनी में काम भी कर रहे हैं.
बकौल दीपक, उन्हें इतना पैसा मिलता है कि आराम से जीवन चल सकता है. उनके पास नौकरी भी है और अपनी कार भी. एक दिन माल के पास बने पार्क में दीपक ने देखा कि बड़े घरों के बच्चे पिज्जा, बर्गर जैसी चीजें लेकर कुछ खाए और कुछ फेंक दिए. वहीँ कुछ गरीब घरों के बच्चे उसे उठाकर खाते हुए भी मिले. यह बात इंजीनियर दीपक को खराब लगी. वे इनके लिए सोचने लगे. कुछ मदद करने का इरादा उनके मन में आया. पर, यह सब हो कैसे तो इसकी तोड़ उन्होंने यह निकाली कि अपनी कार ओला / उबर के साथ लगा दी और दफ्तर से छूटने के बाद उसे चलाने लगे. दीपक की दिनचर्या अब कुछ ऐसी है कि दफ्तर के बाद जो भी समय उनके पास होता है, उसे वह टैक्सी चलाने में लगाते हैं और जब कुछ पैसा इकठ्ठा होता है तो वे गरीब बच्चों को किसी रेस्तराँ में ले जाकर कुछ खिला देते हैं या फिर गरीब बस्तियों तक जाकर वहीँ खिलाते हैं और उनके चेहरे पर संतुष्टि के भाव देखकर खुद खुश हो जाते हैं.
इंजीनियर दीपक कुमार

किसी महीने अगर कमाई अच्छी हो गई यानी 10-15 हजार पार तब ये किसी अस्पताल में जाते हैं. वहाँ कोई ऐसा मरीज ढूढ़ते हैं, जिसका इलाज 10-15 हजार में हो जाए. ऐसा मरीज मिलने पर उसे ख़ुशी बांटकर चले आते हैं. यह वीडियो देखने के बाद मैंने साथी नवलकांत से बात की. फिर अपने फेसबुक पेज, निजी फेसबुक एकाउंट, लिंक्डइन तक पर शेयर किया. और अब यह पीस आपके सामने है. आप अगर चाहें तो मेरे फेसबुक पेज पर जाकर वीडियो देख सकते हैं. दीपक को सीधे सुन सकते हैं.
मेरी अक्सर ऐसे लोगों से मुलाकातें होती हैं, जिनके पास किसी भी चीज के लिए बहानों की फेहरिस्त है. कोई कहता है कि मैं गरीब हूँ, पढ़ाई कैसे करूँ तो कोई कहता है कि मैं तो विकलांग हूँ, कैसे आगे बढूँ. कोई कहता है कि मेरे मम्मी-पापा मुझे गाँव में ही पढ़ने को कहते हैं इसलिए मैं बहुत अच्छा नहीं कर पा रहा हूँ. लेकिन यह नौजवान इंजीनियर बहानेबाजों के लिए मिसाल हो सकता है. जिसके पास मल्टीनेशनल की नौकरी है. वह लखनऊ सिर्फ दो साल के लिए आया है. वह चाहता तो दो साल चुटकियों में कट जाते. उसने कार अपने चलने के लिए खरीदी है. निश्चित ही शौक रहा होगा और वह उसकी किश्तें देने की स्थिति में होगा, तभी खरीदी कार. लेकिन गरीब बच्चों को जूठन खाते देख दीपक को अच्छा नहीं लगा और टैक्सी चलाने लगे. वह भी अपनी ही गाड़ी लगा दी कंपनी में. मैं तो दीपक के जज्बे का कायल हो गया हूँ. मुझे उम्मीद है कि इस कहानी को पढ़ते हुए कोई भी दीपक से कुछ सीख सकता है. रास्ता कुछ ऐसे ही निकल सकता है, जैसे दीपक ने निकाला. अपने देश में दीपक जैसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं. अगर आप भी कुछ करने की इच्छा रखते हैं, चाहे अपने लिए या फिर समाज के लिए तो दीपक एक उल्लेखनीय उदहारण है, इनसे हम काफी कुछ सीख सकते हैं. दीपक को बहुत शुभकामनाएँ कि वे औरों की मदद करते हुए एक बड़ी लकीर खींचने में कामयाब हों.
लेखक करियर/पेरेंटिंग/चाइल्ड काउंसलर हैं. आप इन्हें सीधे कनेक्ट कर सकते हैं.
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