कोई नहीं चाहता, बस्तों का बोझ कम हो

दिनेश पाठक

बस्तों का बढ़ता बोझ...यह एक ऐसा विषय है, जिस पर जितनी भी चर्चा हो, कम है| कारण साफ़ है| बोझ और उम्र का आपस में गहरा रिश्ता है| कम उम्र के बच्चे के सिर पर जब भी उससे ज्यादा वजन रख देंगे, वह किसी न किसी बहाने गिरा देगा या उस बोझ से कुछ सामान निकाल कर अपना बोझ खुद हल्का कर लेगा| ज्यादा बोझ लेकर सौ में एक-दो बच्चा ही चलेगा| वह भी लम्बे समय तक नहीं| बोझ का मतलब और करीब से समझना हो तो उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी जिलों की यात्रा करिए और देखिए कि कैसे माँ-बहनें पीठ पर लकड़ी, घास के बड़े बड़े बोझ लेकर चलती हैं और 30 की उम्र की महिला 60 की लगती है| वजह यह है कि पहाड़ी पर चढना-उतरना और भारी बोझ| खान-पान उस स्तर का है नहीं| शरीर पर ज्यादातर समय बोझ ही होता है| यह कोई मामूली बात नहीं| यही बात बच्चों पर लागू होती है|
बस्तों का यह बोझ बच्चों को कहीं कहीं परेशान कर रहा है और हम समझ नहीं पा रहे हैं...


हम कोर्स की बात करें तो कोई भी बच्चा नर्सरी, केजी या कुछ और भी नाम हो सकता है, वह क्या सीखता है| हिंदी, अंग्रेजी की वर्णमाला, सौ तक की गिनती, कुछ पहाड़ा, शहरों के नाम, नदियों के नाम, ए फॉर एप्पल जैसी चीजों की आधारभूत जानकारी| ऐसी चीजें तो दादा-दादी, नाना-नानी जैसे रिश्ते बिस्तर में लेटे-लेटे कविता, कहानी की तरह बच्चों को सिखा देते थे और आज भी सक्षम हैं लेकिन अब हमें उनका साथ भाता नहीं है| जिसने हमें इस काबिल बनाया, गीले बिस्तर से उठाकर सूखे में सुलाया, वही आज हमें गुजरे जमाने के बेकार, सड़े-गले टूल महसूस होते हैं|
ये बच्चे जितना कुछ सीखते हैं, उसके लिए कतई किसी बोझ की जरूरत नहीं है लेकिन ऐसा होता नहीं है| इस समय मम्मी-पापा भी बच्चों को स्कूल भेजने की इतनी जल्दी में हैं कि दो-ढाई साल में ही भेज रहे हैं स्कूल नाम के पिंजरे में| मैं तो विरोधी हूँ ऐसे मम्मी-पापा का भी और ऐसे खूबसूरत पिंजरों का भी| एक-दूसरे को देख हम भेडचाल के शिकार हैं और अपने बच्चों को भी हम उसी में शामिल कर रहे हैं| शायद हम चाहते ही नहीं कि मेरा बच्चा लीडर बने| हर चीज की उम्र होती है|
पांच साल का होते-होते बच्चा आजकल तीन साल स्कूल जा चुका होता है| दो साल की उम्र से उसे हम एहसास कराने की नाकाम कोशिश भी करते आ रहे हैं कि तुम्हारे ऊपर देश का बोझ आने वाला है| जब हम इस बात का एहसास कराते हैं उसे, तब वह बच्चा कुछ भी नहीं समझता और हाँ में हाँ मिलाने को ही हम उसके ज्ञान को खजाना मानने की गलती कर बैठते हैं| यह गलत है| बस्तों के बोझ और स्कूल और हर क्लास की एक तय उम्र होनी चाहिए| फिर बच्चे के कंधे पर थोड़ा ज्यादा भी बोझ होगा तो वह आसानी से उठा लेगा| व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में स्कूल संचालक, मम्मी-पापा, पब्लिशर्स सब के सब शामिल हैं| हालाँकि, सीबीएससी बोर्ड के स्कूलों में थोड़ी स्थिति सुधरी है| एनसीआरटी की किताबें जहाँ-जहाँ चल रही हैं, वहाँ हालत थी है लेकिन बाकी जगह तो वाकई बस्ता भारी ही पड़ता है| मम्मी-पापा पर भी और बच्चे पर भी|
कबीर दास जी ने लिखा है...
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप
यह बात बच्चों और उनके बस्तों पर भी लागू होती है| यह सब लोग जानते हैं लेकिन हम आधुनिकता की एक ऐसी सुरंग में घुसे हुए हैं, जिसका कोई अंत नहीं है| इसे स्कूल कभी नहीं रोकेंगे| मम्मी-पापा ही इसे रोक सकते हैं लेकिन एक-दूसरे की प्रतियोगिता में वह भी लगे हुए हैं| अब बच्चे का मानसिक विकास रुकता है तो रुके| वे क्यों परवाह करें| स्कूलों को बोझ बढ़ाने से फायदा ही फायदा है तो भला वे क्यों इसे रोकने लगे|
वायस ऑफ़ लखनऊ में 8 जुलाई को प्रकाशित लेख


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