स्तन पान के लिए सप्ताह, दिवस या विज्ञापन की जरूरत क्यों?

दिनेश पाठक

आज स्तनपान की बात| विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर सरकारें और ढेरों समाजसेवी संगठन इस मसले पर बात करते आ रहे हैं| अख़बारों में विज्ञापन, टीवी पर भी स्तनपान का प्रचार होते देखा जा रहा है| मैं प्रचार का विरोधी नहीं हूँ लेकिन समझने का प्रयास जरुर करता हूँ कि आखिर, इसके प्रचार की जरूरत क्यों पड़ी? निश्चित तौर पर कोई न कोई फीडबैक ऐसा होगा प्रचार करने, कराने वाली एजेंसियों के पास, तभी तो करोड़ों रुपए केवल इस मद में खर्च हो रहे हैं|
आदि काल से यह स्थापित सच है और सर्वविदित है कि माँ का दूध बच्चे के लिए सर्वोत्तम उपहार है| मैं डॉक्टर नहीं हूँ लेकिन तजुर्बे के आधार पर कुछ तथ्य शेयर कर रहा हूँ| 1980 तक जो बच्चे पैदा हुए उनकी सेहत और उसके बाद पैदा हुए बच्चों की सेहत में जमीन-आसमान का अंतर है| गाँव और शहर के बच्चों में अक्सर फर्क देखा जा सकता है| पहले माँ बच्चे को दूध तब तक पिलाती थीं जब तक दूध बनता था| माँ को दूध बने, इसके लिए अतिरिक्त प्रयास किए जाते थे| खान-पान ठीक किया जाता था| नवजात बच्चे की माँ का ध्यान ससुराल से लेकर मायके तक रखे जाने की व्यवस्था थी| व्यवस्था अभी भी है लेकिन अब यह फिल्मों की तरह ज्यादा हो गया है| अब भाग-दौड़ भरी दुनिया में माँ इस बात के लिए दवा लेते देखी जा रही है कि दूध कम बने, क्योंकि वह आठ-आठ, 10-10 घंटे बच्चे से दूर है| ऐसे में अगर दूध ज्यादा बना तो उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा| वह असहज होगी| काम में मन नहीं लगेगा| अभी हमारे यहाँ दफ्तर में बच्चों को साथ लेकर जाने या वहाँ फीडिंग की व्यवस्था सामान्य दशा में बिल्कुल नहीं है|
इस मुश्किलात से निपटने का तरीका यही है कि दूध बनने ही न पाए या कम बने| कुछ माएँ फिगर के चक्कर में भी दूध कम से कम समय पिलाना चाहती है| जबकि मेडिकल साइंस कहता है कि बच्चे को दूध पिलाने के नुकसान तो बिल्कुल नहीं हैं, अलबत्ता फायदे थोक भाव में हैं| माँ और संतान दोनों ही अनेक समस्याओं से मुक्त रहते हैं| जो इम्यून सिस्टम बच्चे में माँ के दूध से पैदा होता है, बाहर के दूध से कभी नहीं आ सकता| मेडिकल साइंस का यह कहना है| 80 के दशक तक यह दिक्कतें, भागदौड़ अपेक्षाकृत कम थी| नतीजा, बच्चे मजबूत थे और आज बड़े होने के बावजूद वे मजबूत हैं| उनके शरीर में सरसों के तेल की मालिश का असर है तो उबटन का भी असर देखा जा रहा है| आजकल बच्चों के आँखों में चश्मा सामान्य है| उस दौर के लोगों में चश्मा सामान्य दशा में 35 के पहले नहीं लगा| इसे देखकर कहा जा सकता है कि पहले संसाधन कम थे तो बच्चे ज्यादा मजबूत थे| आज लोगों के पास पैसा है, संसाधन है तो दिक्कतें ज्यादा हैं| फिजिकल फिटनेस को लेकर आज की पीढ़ी लापरवाह भी हुई है| आजकल सडक पर भागते हुए बच्चे कम मिलते हैं| सरसों के तेल की जगह तमाम अन्य ने ले ली है| पौष्टिक आहार के नाम पर तमाम डिब्बा बंद पाउडर बाजार में उपलब्ध हैं| बच्चों को मालिश हो ही नहीं रही है या नाम मात्र हो रही है|
नतीजा, बच्चे दिल-दिमाग से लेकर फिजिकली भी कमजोर हैं फिर भी हम खुश हैं| सबको यह पता है कि स्वस्थ बच्चे का ही भविष्य स्वस्थ होगा| तभी देश का भविष्य भी बेहतर होगा, बावजूद इसके हम जड़ों को छोड़ते जा रहे हैं| ध्यान रहे, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है| जिनके पास अवसर है, वे बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी का भौतिक प्यार दे दें| आधी से ज्यादा समस्याओं का निदान हो जाएगा| बच्चे को आया कभी वह प्यार नहीं दे सकती जो अपने दे सकते हैं| ऐसा करके हम बच्चे को स्वस्थ रख पाएँगे और अपने बुजुर्गों की देखरेख भी| इसी को कहते हैं आम के आम और गुठलियों के दाम या एक पंथ दो काज| अगर आपके पास ऐसा अवसर है तो उसका लाभ उठायें और बच्चे को स्वस्थ रखने की दिशा में एक कदम और चलें| आमीन|   

लेखक भावी पीढ़ी के विकास पर केन्द्रित अभियान 'बस थोड़ा सा' के संयोजक हैं| वे स्टूडेंट पैरेंट्स, टीचर्स और समाज के अन्य हिस्सों से संवाद करते आ रहे हैं| अगर आपके मन में भी कोई सवाल है तो संपर्क कर सकते हैं-Email- dpathak0108@gmail.com | WhatsApp-9756705430 | youtube.com/dineshpathak0108 | Fb.me/dpathak0108 |

Comments

Popular posts from this blog

पढ़ाई बीच में छोड़ दी और कर दिया कमाल, देश के 30 नौजवान फोर्ब्स की सूची में

खतरे में ढेंका, चकिया, जांता, ओखरी

युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हो सकती है अगम की कहानी