देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत
दिनेश पाठक |
महँगी शिक्षा और गुणवत्तापरक
शिक्षा में क्या फर्क है? लोग क्यों महँगी शिक्षा को ही गुणवत्तापरक शिक्षा मान
रहे हैं? यह सवाल मेरे सामने एक नौजवान ने उछाला है| जो देश के लिए, समाज के लिए
कुछ करना चाहता है| इन्हीं दो सवालों के बीच में उलझा यह नौजवान समझना चाहता है कि
आखिर सच क्या है? और वह किसे सच माने?
सवाल बहुत वाजिब है और मौजू
भी| मेरा मानना है कि हर महंगा संस्थान जरुरी नहीं है कि वह गुणवत्तापरक शिक्षा दे
पा रहा हो| लेकिन इससे पहले समझना जरुरी है कि आखिर गुणवत्तापरक शिक्षा है क्या?
क्या स्कूल की बड़ी वाली वातानुकूलित बिल्डिंग, नित नए बदलते ड्रेस, जूते-मोज़े, रोज
बदलते कापी-पेस्ट कोर्स के माध्यम से हम अपने बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा दे
सकते हैं या गुणवत्तापरक कोर्स से? मेरा जवाब होगा, गुणवत्तापरक कोर्स| बिल्डिंग
कैसी भी हो| ड्रेस कैसा भी हो लेकिन अगर कोर्स अच्छा है, व्यावहारिक है, उन्हें
पढ़ाने वाले शिक्षक अच्छे हैं तो बच्चों में गुणवत्तापरक कोर्स की समझ भी विकसित
होगी और वे देश को चलाने की क्षमता भी रख सकेंगे| यह तभी हो पाएगा जब हम एक बड़े
दायरे में सोचेंगे| बच्चों को सोचने के लिए प्रेरित करेंगे| संस्कार रुपी बीज इस
तरह डालेंगे कि उन्हें लगे कि रिश्तों के बिना जीवन नहीं है| उन्हें लगे कि देश
हित सर्वोपरि है|
मैं समझता हूँ कि अगर हम एक
देश में एक कानून की बात करते हैं तो शिक्षा प्रणाली भी एक ही होनी चाहिए| हमारे
देश में सरकारी स्कूलों में उन्हीं लोगों के बच्चे पढ़ रहे हैं जिनके पास कोई
विकल्प नहीं है| सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट के स्पष्ट आदेश के बावजूद हमारे सरकारी
स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाने को कोई सरकारी अफसर तैयार नहीं है| शायद उन्हें
पक्का भरोसा है कि जिस स्कूली सिस्टम को उन्होंने रचना की है, वहाँ उनके बच्चे का
उचित विकास नहीं होगा|
वहीँ विदेशों में सरकारी
स्कूलों का जलवा है| उन्हें विकसित ही इस तरह किया गया है कि निजी स्कूलों की और
किसी को जाने की जरूरत ही नहीं है| क्या छोटा और क्या बड़ा, सभी के बच्चे अमेरिका
जैसे देश में सरकारी स्कूलों में ही पढ़ रहे हैं| समझना यह भी है कि हमारे देश में
भांति-भांति के कोर्स कैसे चल रहे हैं? कई कई बोर्ड कैसे चल रहे हैं? तमाम प्रयासों
के बावजूद सरकारी स्कूल ध्वस्त क्यों होते जा रहे हैं और निजी स्कूल क्यों आगे
बढ़ते जा रहे हैं? इसे समझने के लिए नीति की जरूरत और नियत की, जो न तो नौकरशाही
में है और न ही नेताओं में| क्योंकि इनमें से जयादातर के बच्चे या तो विदेशों में पढ़
रहे हैं या बहुत महँगे वाले ऐसे कैम्पस में पढ़ रहे हैं जहाँ बिल्डिंग बड़ी है, उसकी
चहारदीवारी बड़ी है, फीस बड़ी है, कोर्स मनमाने हैं? लेकिन यह सबका ख़ुशी ख़ुशी भुगतान
करने वाले बड़ी संख्या में लोग भी अपने यहाँ हैं| इसीलिए ये महँगी शिक्षा को
गुणवत्तापरक शिक्षा मानने की भूल लोग कर रहे हैं|
अगर हमें अपने देश में
गुणवत्तापरक सस्ती शिक्षा देनी है तो नेताओं, अफसरों को इस बारे में सोचना होगा|
पूरी प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा| ऐसे कोर्स बदलने होंगे जहाँ धरती
का विलोम आकाश, महिला का विलोम पुरुष पढाये जाने की परम्परा चली आ रही है|
व्यावहारिक तौर पर सोचें तो लगता है कि इससे बड़ा झूठ तो कुछ हो ही नहीं सकता|
क्योंकि ये तो एक-दूसरे के पूरक हैं| हमें नए कोर्स की जरूरत है| पूरे देश में एक
कोर्स हों| सरकारी स्कूल सबकी प्राथमिकता में हों| यह सब कुछ चरणबद्ध तरीके से
किया जा सकता है| यह मुझे भी पता है कि रातों-रात ऐसा कतई नहीं हो सकता| लेकिन
इसके लिए जाती, धर्म, वोट के चश्मे से ऊपर उठाना होगा सबको| सरकारों को, अफसरों
को, नेताओं को और हमारे जैसे मामूली लोगों को भी| सोच में बदलाव लाना होगा| तब
मिलेगी सस्ती और गुणवत्तापरक शिक्षा| ज्यादा पैसे देकर ज्यादा गुणवत्तापरक शिक्षा
हासिल नहीं की जा सकती| यह सिर्फ छलावा है| हमने दिखता इसलिए है क्योंकि सरकारी
स्कूलों के खेवनहार चाहते ही नहीं कि ऐसी कोई शिक्षा व्यवस्था देश में लागू हो|
www.dineshpathak.info
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