इच्छा और जरूरत के बीच से ही निकलेगा खुशी का रास्ता
दिनेश पाठक |
इच्छा और जरूरत के बीच से ही खुशी और गम का रास्ता निकलता है। ऐसा मैं नहीं, हमारे मनीषियों ने कहा है। इस बात को जब बच्चों की दृष्टि से देखें तो यह और महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर हम अपने बच्चों में इच्छा और जरूरत को समझने की समझ पैदा करने की कोशिश शुरू से करें तो आगे का उनका जीवन बहुत आसान और खुशहाल हो जाएगा, ऐसा मैं बहुत भरोसे से कह पा रहा हूँ।
अब आपके मन में यह सवाल उठ सकता है कि इच्छा और जरूरत के बीच के फर्क को बच्चों को समझाएं कैसे? आपके पास चाहे जितना पैसा हो या फिर आप कितने भी गरीब हों, बच्चों की जरूरतों का ध्यान हर हाल में रखा जाना चाहिए और दुनिया का हर माँ-बाप ऐसा करते भी हैं। इच्छाओं की पूर्ति जो माता-पिता करते हैं, वे आगे पश्चाताप करते हैं लेकिन तब चीजें उनके हाथ से निकल चुकी होती हैं। क्योंकि इच्छाएँ असीमित हैं और जरूरतें बहुत सीमित। अगर हमारे बच्चे को यह महसूस होता है कि थोड़ी सी जिद के बाद मम्मी-पापा उसकी कोई भी इच्छा पूरी कर देंगे और आपने ऐसा कर दिया तो तय मान लीजिए कि आप अपने बच्चे से आगे की खुशी छीन रहे हैं। वह आए दिन आपसे जिद करके अपनी हर इच्छा पूरी कर लेगा। फिर उसके सामने कोई चुनौती नहीं रहेगी। फिर जब आप समर्थ नहीं रहेंगे तो वहीं से उसकी तकलीफ की शुरुआत होगी, वह भी आपके सामने। ध्यान यह भी रहे कि बच्चे आपके बच्चे के भी होंगे। फिर वह अपनी अगली पीढ़ी को क्या और कैसे देगा। वह तो शायद जरूरत भी पूरी करने में अक्षम होगा और उसके लिए भी वह आपके सामने ही हाथ पसारेगा लेकिन कब तक? यह बहुत बड़ा सवाल है, जिसे आसानी से समझा जा सकता है।
मौत सबकी आनी है, इसलिए जरूरी यह है कि बच्चों को जितनी जल्दी इच्छा और जरूरत में फर्क पता चले, उतना अच्छा। यह बहुत बड़ी चुनौती भी नहीं है। सिर्फ 15-16 वर्ष की सावधानी में आप अपने बच्चे का भविष्य संवार सकते हैं। 18-20 वर्ष की उम्र के बाद यह फर्क बच्चा खुद ही समझने लगता है। फिर आपकी तकलीफ कम होने लगती है। इच्छा और जरूरत के इस फर्क को समझना आपके लिए कतई मुश्किल नहीं है लेकिन बच्चे के लिए यह काम कठिन है। वह तो इच्छा को ही जरूरत बताता है। फर्क हमें ही बताना होगा। कई बार सख्ती भी करनी होगी। आपके सामने ही बच्चा रोएगा भी। चिल्लाएगा भी। आपको उसकी संवेदनाओं में नहीं बहना है। यही वह समय है जब आप इमोशनल ब्लैकमेलिंग से बचें।
जरूरत का मतलब भोजन, वस्त्र, कॉपी, किताब, दवा आदि ही है। आज के युग के हिसाब से सप्ताह में एक बार पिज्जा, बर्गर भी हो सकता है। अगर आपको लगता है कि बच्चे को फोन देना है तो की-पैड वाला दे सकते हैं। स्मार्टफोन को आप जरूरत समझते हैं तो बाजार में चार हजार के फोन भी हैं। अगर आप ऐसा करते हैं तो उचित लेकिन अगर बच्चे के फोन की माँग पर आई फोन दिलाते हैं तो इसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता। यह इच्छापूर्ति कही जाएगी। एक समय पर किसी भी व्यक्ति के शरीर पर एक ही वस्त्र होता है। चाहे अमीर हो या गरीब। ऐसे में हमें समझना होगा कि कितने कपड़े होने चाहिए बच्चे के पास। अगर बेइंतहा कपड़े की उपलब्धता है तो तय मान लीजिए आपने इच्छा पूरी की है, जरूरत नहीं।
इस तरह का व्यवहार करके हम अपने बच्चों में इच्छा और जरूरत के बीच फर्क जता, बता सकते हैं। भरोसा करिए उन्हें समझ भी आता है। और यहीं से खुशियों के द्वार खुलते हैं। जरूरतें आपने पूरी कीं तो इच्छाओं के लिए बच्चा खुद से संघर्ष शुरू करता है। आपने बहुत बार पिता के मुँह से सुना होगा कि मेरा बेटा या बेटी मेरे सपने को पूरा करेंगे या फिर अक्सर यह भी सुनने में आता है कि मैं अपने मम्मी-पापा के सपने को हर हाल में पूरा करना चाहता हूँ। मम्मी-पापा ऐसा भी कहते हुए सुने जाते हैं कि अमुक काम मैं नहीं कर पाया, क्योंकि मेरे पास संसाधन नहीं थे। अब मेरा लाल उसे पूरा करेगा।
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