...तो बंद हो जाएंगे वृद्धाश्रम, आजमा के देख लो
दिनेश पाठक, वरिष्ठ पत्रकार, काउंसलर |
सास-बहू
के झगड़े, माँ-बेटी
का प्यार घर-घर की कहानी है। आदि काल से ऐसा ही होता आ रहा है। लोगों ने मान लिया
है कि इसका कोई तोड़ नहीं है। जबकि तोड़ है। बस, हम सबका मन इस बात के
लिए तैयार हो जाए। कुछ परिवार तो इसे आजमा रहे हैं और खुश भी हैं। लेकिन अगर इसे
सब या ज्यादातर अपनाने लगें तो तस्वीर बेहद खूबसूरत बनेगी। बच्चों को उनका हक मिल
जाएगा और बुजुर्गों को उनका। बड़ों को मिलेगा प्यार का बोनस।
देश
के ही नहीं दुनिया के सभी वृद्धाश्रम देखते ही देखते बंद हो जाएंगे। मासूम बच्चों
को नौकरों की मार-पिटाई, उपेक्षा, झिड़की की जगह जगह
दादा-दादी का प्यार मिलेगा। बहुओं को माँ का प्यार मिलेगा। माँ-बेटी के रिश्ते
यथावत रहेंगे। घर खुशहाल दिखेंगे। यह सब करने या होने का तरीका सिर्फ यह है कि सास, बहू को बेटी की तरह
प्यार करे और बहू, सास
को माँ की तरह मान दे। यह सर्वविदित है कि बेटियाँ माँ-पापा की तकलीफ में सबसे
पहले पहुँचती हैं। उनके दुःख को बाँटने में उनका कोई सानी नहीं है। यह और आसान हो
जाएगा जब देश की हर बेटी यह मान ले कि उसके दो माँ-पापा हैं। एक मायके में और दूसरे
ससुराल में। इसे वह अपनी ताकत बना ले तो फिर आधी समस्या खत्म।
यही बात बेटों पर भी लागू हो। उन्हें भी कोई यह ताना न
दे कि शादी के बाद ससुराल वालों का ख्याल कुछ ज्यादा रखने लगा है। जोरू का गुलाम
हो गया है। और समधी-समधन आपस में भाई-भाई और बहन-बहन का रिश्ता बना लें। ऐसा करने
के बाद बहुत सारी तकलीफें खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएंगी।
इसी के साथ ये दो परिवार एक-दूसरे के दुःख-सुख में सीधे शामिल होना शुरू कर दें। बेटी के ससुराल पहुँचने पर होने वाली औपचारिकताओं को तत्काल त्याग दिया जाए और बेटे की ससुराल पहुँचने पर जो स्वाभाविक अकड़ होती है, उसे हिन्द महासागर में फेंक दिया जाए।
बेटी के घर में उसकी माँ का कोई नकारात्मक दखल न हो, अगर बहुत जरूरी हो तो दखल इस शर्त पर दी जाए कि पति-पत्नी दोनों एक साथ आएँ। चारों माँ-पापा बैठें फिर सुनवाई होगी। ऐसा हो तो भरोसा करना होगा कि पति-पत्नी की समस्याएं खुद ब खुद हल होती जाएंगी। कोई बेटा-बहू-बेटी-दामाद नहीं चाहते कि उनके रिश्ते का तमाशा बने।
अगर यह हो जाए तो उसके बाद जो मिलने वाला है,उसकी कल्पना करके भी आपके रोम-रोम खुशी से खिल जाएंगे। जब समधी-समधन के रिश्ते से औपचारिकता समाप्त हो जाएगी तो दोनों परिवारों के बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी का प्यार बराबर मिलना शुरू होगा। ये बच्चे कब पल के बड़े हो जाएंगे, पता भी नहीं चलेगा।
पति-पत्नी को नौकरी करनी है तो करें, उसमें कोई किट-किट नहीं होगी। अगर आपके पास फंड है तो माँ-पापा की मदद के लिए नौकर रखिए। बच्चों की देखभाल उनकी देखरेख में हो। आप भी मस्त, बच्चे खुश और दादा-दादी, नाना-नानी की तो खैर हुई ही बल्ले-बल्ले।
यहाँ, ध्यान रखना जरूरी है कि घर के बुजुर्ग केवल और केवल आपको खुश देखना चाहते हैं। अपने पोते-पोतियों को खुश देखना चाहते हैं। इसके बदले उन्हें आपसे चाहिए भोजन और थोड़ा सा प्यार। इसके अलावा कुछ नहीं चाहिए।
ध्यान यह भी रखा जाना है कि जब चार बर्तन एक साथ रखे जाते हैं तो कुछ न कुछ आवाजें आती ही रहती हैं लेकिन हम बर्तन फिर भी रखते हैं। ध्यान यह भी रखना जरूरी है कि उन्हीं माँ-पापा ने आपके लिए न जाने कितनी रातें जागकर गुजारी हैं। आज उन्हें आपकी जरूरत है तो वैसा ही व्यवहार आपको भी करना होगा। अगर इसे हम जमाने के हिसाब से स्वार्थी मान लें तो भी कोई बुराई नहीं है। क्योंकि यह जमाना वो कहते हैं न गिव एंड टेक का है।
माँ-पापा तो इसमें भी खुश रहते हैं। इस सच से तो आप भी इंकार नहीं कर पाओगे कि दुनिया में अकेला रिश्ता है जो केवल और केवल आपका हित चाहता है, वह भी निःस्वार्थ भाव से। बाकी जितने भी रिश्ते हैं, उनमें कुछ न कुछ अपेक्षाएं हैं। चाहे वह पत्नी हो, बेटा हो या बेटी। सबके मन में कहीं न कहीं कुछ न कुछ चल रहा होता है।
तमाम दिक्कतों, दुश्वारियों के बीच अगर परिवार एक हों। बुजुर्गों को हम अपने पास रखने लगें तो भला वृद्धाश्रम बचेंगे कैसे और कहाँ? शायद नहीं। आप इसे हाइपोथेटिकल सिचुएशन कह सकते हैं। पर, एक बार सोचकर अमल करने में कुछ जाता भी तो नहीं। हो सकता है, बात बन जाए। और मुझे पूरा विश्वास है कि बात बनेगी भी।
और सोहन लाल द्विवेदी जी ने लिखा भी तो है-
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
आइए, एक कोशिश करते हैं।
आमीन...आमीन...आमीन
इसी के साथ ये दो परिवार एक-दूसरे के दुःख-सुख में सीधे शामिल होना शुरू कर दें। बेटी के ससुराल पहुँचने पर होने वाली औपचारिकताओं को तत्काल त्याग दिया जाए और बेटे की ससुराल पहुँचने पर जो स्वाभाविक अकड़ होती है, उसे हिन्द महासागर में फेंक दिया जाए।
बेटी के घर में उसकी माँ का कोई नकारात्मक दखल न हो, अगर बहुत जरूरी हो तो दखल इस शर्त पर दी जाए कि पति-पत्नी दोनों एक साथ आएँ। चारों माँ-पापा बैठें फिर सुनवाई होगी। ऐसा हो तो भरोसा करना होगा कि पति-पत्नी की समस्याएं खुद ब खुद हल होती जाएंगी। कोई बेटा-बहू-बेटी-दामाद नहीं चाहते कि उनके रिश्ते का तमाशा बने।
अगर यह हो जाए तो उसके बाद जो मिलने वाला है,उसकी कल्पना करके भी आपके रोम-रोम खुशी से खिल जाएंगे। जब समधी-समधन के रिश्ते से औपचारिकता समाप्त हो जाएगी तो दोनों परिवारों के बच्चों को दादा-दादी, नाना-नानी का प्यार बराबर मिलना शुरू होगा। ये बच्चे कब पल के बड़े हो जाएंगे, पता भी नहीं चलेगा।
पति-पत्नी को नौकरी करनी है तो करें, उसमें कोई किट-किट नहीं होगी। अगर आपके पास फंड है तो माँ-पापा की मदद के लिए नौकर रखिए। बच्चों की देखभाल उनकी देखरेख में हो। आप भी मस्त, बच्चे खुश और दादा-दादी, नाना-नानी की तो खैर हुई ही बल्ले-बल्ले।
यहाँ, ध्यान रखना जरूरी है कि घर के बुजुर्ग केवल और केवल आपको खुश देखना चाहते हैं। अपने पोते-पोतियों को खुश देखना चाहते हैं। इसके बदले उन्हें आपसे चाहिए भोजन और थोड़ा सा प्यार। इसके अलावा कुछ नहीं चाहिए।
ध्यान यह भी रखा जाना है कि जब चार बर्तन एक साथ रखे जाते हैं तो कुछ न कुछ आवाजें आती ही रहती हैं लेकिन हम बर्तन फिर भी रखते हैं। ध्यान यह भी रखना जरूरी है कि उन्हीं माँ-पापा ने आपके लिए न जाने कितनी रातें जागकर गुजारी हैं। आज उन्हें आपकी जरूरत है तो वैसा ही व्यवहार आपको भी करना होगा। अगर इसे हम जमाने के हिसाब से स्वार्थी मान लें तो भी कोई बुराई नहीं है। क्योंकि यह जमाना वो कहते हैं न गिव एंड टेक का है।
माँ-पापा तो इसमें भी खुश रहते हैं। इस सच से तो आप भी इंकार नहीं कर पाओगे कि दुनिया में अकेला रिश्ता है जो केवल और केवल आपका हित चाहता है, वह भी निःस्वार्थ भाव से। बाकी जितने भी रिश्ते हैं, उनमें कुछ न कुछ अपेक्षाएं हैं। चाहे वह पत्नी हो, बेटा हो या बेटी। सबके मन में कहीं न कहीं कुछ न कुछ चल रहा होता है।
तमाम दिक्कतों, दुश्वारियों के बीच अगर परिवार एक हों। बुजुर्गों को हम अपने पास रखने लगें तो भला वृद्धाश्रम बचेंगे कैसे और कहाँ? शायद नहीं। आप इसे हाइपोथेटिकल सिचुएशन कह सकते हैं। पर, एक बार सोचकर अमल करने में कुछ जाता भी तो नहीं। हो सकता है, बात बन जाए। और मुझे पूरा विश्वास है कि बात बनेगी भी।
और सोहन लाल द्विवेदी जी ने लिखा भी तो है-
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
आइए, एक कोशिश करते हैं।
आमीन...आमीन...आमीन
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