अपने लाल को प्यार के पाश में बाँधिए, सुविधाओं के नहीं
दिनेश पाठक |
पता नहीं क्या हो गया है आज के मम्मी-पापा
को, बाजारवाद के चक्कर में गली-मोहल्लों में खुले प्री स्कूलों में दो-दो, ढाई-ढाई
साल के मासूमों को भेजकर न जाने कौन सी शिक्षा दे और दिला रहे हैं? ये स्कूल कौन
सी ऐसी शिक्षा हमारे मासूमों को दे रहे हैं, जो हम अपने घर में नहीं दे पा रहे
हैं| इन स्कूलों में किसी गरीब का बच्चा नहीं पढ़ता / पढ़ती| यहाँ धनाड्य परिवारों
से ही बच्चे जाते हैं|
मुझे कोई यह कहे कि मैं इन स्कूलों का
विरोधी हूँ तो मैं हूँ लेकिन मेरा असली आक्रोश इन मासूमों के माता-पिता के प्रति
है| क्योंकि अगर ये नहीं भेजेंगे तो ये स्कूल खुद-ब-खुद बंद हो जाएँगे| देखिए जरा
इन बच्चों की जिंदगी कैसे गड़बड़ की जा रही है| इन स्कूलों तक मासूमों को भेजने वाले
ज्यादातर मम्मी-पापा इन बच्चों के लिए अपने घरों में कमरा सजाया हुआ है, इस कमरे
में भौतिकवाद के हिसाब से वह सब कुछ है, जो उसे चाहिए| रात का खाना खिलाने के बाद
बच्चे को उसके इसी कमरे में सुलाने की परम्परा बनती जा रही है| यह फिल्मों का असर
है शायद| अब ध्यान दीजिए, यहाँ बच्चे को सुलाने के बाद मम्मी-पापा अलग कमरे में
पहुँच गए| बच्चा सुबह उठा| मम्मी या पापा ने बाथरूम पहुँचाया| निवृत होने के बाद
उसे स्कूल रुपी नाट्यमंच के लिए सजा संवारकर तैयार कर दिया गया|
डिजायनर बस्ते, पानी की बोतल उसके कंधे पर
टांगी गई या फिर मम्मी-पापा में से कोई लेकर चल पड़ा स्कूल| वहाँ से दो घंटे बाद
उसे लेने का उपक्रम और फिर कुछ खाने-पीने के बाद वही कमरा| क्योंकि उसे सिखाया जा
रहा है कि वह कमरा उसी का है| इस तरह हम देखें तो बच्चे का मम्मी-पापा से फिजिकल
रिलेशन बन ही नहीं रहा है| न तो वह उनके कंधे पर बैठ रहा है और न ही घर में घुसते
ही पापा घोड़ा बन रहे हैं| न ही मम्मी को लिपट रहा है| मम्मी-पापा का समय पाने के
लिए वह इसलिए परेशान नहीं हो रहा क्योंकि जब भी वह कोई जिद करता, उसे कुछ न कुछ
रिश्वत देकर चुप करा अपने कमरे में जाने की हिदायत दे दी जा रही है| विजई भाव से
बच्चा अपने कमरे में चला भी जाता है| यह बेहद खतरनाक स्थिति बनी हुई है|
धीरे-धीरे बच्चा बड़ा होने लगा| उसे कमरे
के अपना होने की समझ विकसित होने लगी| इस स्कूल से निकल कर वह असली स्कूल में
पहुँच गया| देखते ही देखते कमरे में कॉपी-किताब की संख्या बढ़ने लगी और मम्मी-पापा
से उसका भौतिक संपर्क कम होता गया| कम्प्यूटर, इन्टरनेट भी लग गया| बीच-बीच में
मम्मी-पापा अपना फोन उसे सिर्फ इसलिए देने लगे कि वह अपने कमरे में जाकर चुपचाप
कुछ खेले लेकिन उनके दोस्त के सामने शोर-शराबा न करे| यह रिश्वत पाकर बच्चा खुश भी
हुआ| धीरे-धीरे यह उसकी आदत में शामिल हुआ| अब यही बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ तो अपने लिए
फोन की जिद की| कुछ दिन की मान-मनौव्वल के बाद उसे वह भी मिल गया| अब वह कभी-कभी
कमरा अंदर से बंद करने लगा तो मम्मी-पापा अचानक टेंशन में रहने लगे| विचार-विमर्श
इस बात का शुरू हुआ कि कहीं मेरे बेटा-बेटी फोन का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे|
इंटरनेट का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे| पहले सब कुछ इसलिए दिया कि वह चुप रहे, जब
उसे लत, जी हाँ लत लग गई तो चिंता होने लगी|
ध्यान यह रखना है कि बच्चों को आप खुद ही
ख़राब कर रहे हैं| वे तो इस दुनिया में सच्चे ही आ रहे हैं| उन्हें फोन, खिलौना
रुपी रिश्वत की जरूरत नहीं है| जिस तरह आप उन्हें फोन देकर चुप करा रहे हैं, अगर
उन्हें कुछ ऐसी लत लग जाए कि पापा चाहे जब आएँगे, मुझे उनके साथ खेलने का मौका
मिलेगा| गप्प मारने का मौका मिलेगा| मम्मी मेरे साथ पार्क में जाकर नियमित
बैठेंगी| मैं खेलूँगा, गिरूँगा| मम्मी दौड़कर आएँगी| गोद में उठा लेंगी| फिर मुंह से
फूंक कर चोट को ठीक कर देंगी, तो मासूम को यही लत लगेगी| वह आदती हो जाएगा तब उसका
जो प्यार बड़ा होने पर फोन, इंटरनेट, कम्प्यूटर और अपने कमरे से आज है, वही प्यार
मम्मी-पापा से होगा| केवल सुविधाओं को जुटाने के लिए बच्चा आपके आसपास नहीं आएगा|
उसे आपकी जरूरत रहेगी| इसका लाभ यह होगा कि किशोरवय उम्र की तमाम समस्याओं से आप
बच जाएँगे| बच्चा आपसे ही सवाल पूछ लेगा| प्रयास कुछ ऐसा करना है कि बच्चे को आपकी
जरूरत हो, आपके पैसों के लिए वह आपके पास न आए| उसे प्यार के पाश में बांधिए,
सुविधाओं के नहीं| ऐसा करके आप बहुतेरी समस्याओं से बच जाएँगे|
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